आदिपुरुष और गीताप्रेस के अतीत में विचरते हम


देश इन दिनों दो बातों की बातें बनाने में व्यस्त है। बेबात की इन बहसों  के हम इस कदर आदी बनाए जा चुके हैं कि जिस तरह पालतू श्वान या बिल्ली अपने नरम और गुद-गुदे खिलौनों से खेलते -उलझते हैं, ठीक यही करने में हम भी लिप्त हैं। मुद्दों और असली चुनौतियों की बजाय इन्हीं में उल्टा-पुल्टा होना हमें पसंद है। दशक की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना, मणिपुर संकट और महिला पहलवानों के गंभीर आरोपों को अनदेखा कर हम आदिपुरुष और गीता प्रेस गोरखपुर को मिले पुरस्कार में उलझा दिए गए हैं। हिंदी की सबसे महंगी  फिल्म बताई जा रही आदिपुरुष के पात्र रामायण से हैं और इसके संवाद से हर हिंदुस्तानी का दिल दुःख रहा है। अब की बार  विचारों का ध्रुवीकरण नहीं है। एक स्वर में आदिपुरुष की आलोचना हो रही है जिसका एक कारण फिल्म के संवाद लेखक की पृष्ठभूमि भी है। जिस दूसरी बहस में उलझ रहे हैं, वह है गीता प्रेस गोरखपुर को देश का गांधी शांति  पुरस्कार दिया जाना। महात्मा गांधी के आदर्शों पर खरे उतरने वालों को यह पुरस्कार भारत सरकार 1995 से दे रही है लेकिन जूरी के एक सदस्य ने कह दिया है कि उन्हें अंधेरे में रखा गया है । जिन संस्थाओं को अब तक यह सम्मान मिला है उनमें रामकृष्ण मिशन ,ग्रामीण बैंक ,इसरो ,सुलभ इंटरनेशनल हैं। बेशक गीता प्रेस सौ साल से हिन्दू धर्म और उससे जुड़े ग्रंथों  का लगातार प्रकाशन करती आ रही है ,वह भी बिना किसी दान राशि को लिए लेकिन जिनके नाम पर इतना बड़ा पुरस्कार है और प्रकाशक खुद जीवित रहते हुए उनसे अपने मतभेद का ज़िक्र कर दे, क्या तब भी उस व्यक्ति के नाम का पुरस्कार उस संस्था को दिया जाना चाहिए?

 पुरस्कार महात्मा गांधी के नाम पर है और बापू की बड़ी बात यह रही कि वे अपना हर काम पारदर्शिता से करते थे। खुद को कठिन कसौटी पर कसते थे तब भी।  उनके आलोचक भी उन्हीं के लिखे से प्रेरणा लेकर बड़ी-बड़ी पुस्तकें  लिख गए हैं। कुछ ने ऐसी भी कि नैतिक छवि बिगड़ जाए और उनका चरित्र हनन किया जा सके। उनके ब्रह्मचर्य  के नियम के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। कुमार शुभमूर्ति ने उनके ब्रह्मचर्य पर लिखा है गांधी जी इसे व्यक्ति की शुद्धता का पैमाना मानते थे। 1947 के जनवरी महीने (अपनी हत्या से ठीक एक साल पहले) में मुस्लिम लीग के गढ़ और नफरती हिंसा की आग में जलते पूर्वी बंगाल के नोआखली इलाके में गंभीर चुनौती दिखी, मानो उनकी अहिंसा को हिंसा ललकार रही हो। उनका ध्यान तुरंत अपने ब्रह्मचर्य को और प्रभावी बनाने की ओर गया। यह समय आत्मबल को ज़्यादा से ज़्यादा उठाने का समय है ऐसा उन्हें लगा। मनु उनकी बेटी के समान यह बात जितनी सच है उससे भी ज़्यादा सच है कि महात्मा गांधी  मनु की मां  के समान थे। इसे समझने के लिए मनु ने जो किताब लिखी है 'बापू मेरी मां' उसे पढ़ना और समझना आवश्यक है। गांधी के ब्रह्मचर्य के अनेक पहलू थे। सच बोलना , निर्भय होना ,सर्वव्यापी प्रेम करना यह सब उनके ब्रह्मचर्य में सिमट आता था। फिर यह बात हाथ आई कि किसी की काम भावना उसके बाहर नहीं भीतर ही रहती है। यह बात उन्हें समझाना कठिन है जो औरतों की चाल ,ढाल उनके वस्त्रों में उत्तेजना खोजते फिरते हैं। 

ऐसे कई प्रयोग बापू ने अपने सत्य के साथ किए। क्या ही अच्छा होता कि बापू की यह शिक्षा महिला पहलवानों  के बाहुबली आरोपी तक भी पहुंची होती। सच है कि गीता प्रेस गोरखपुर की पत्रिका कल्याण में महात्मा गांधी के लेख भी प्रकाशित हुए हैं बल्कि 1926 में जब हनुमान प्रसाद पोद्दार जमनालाल बजाज के साथ कल्याण पत्रिका की अवधारणा को लेकर बापू से मिले तब बापू ने ही यह सलाह दी थी कि पत्रिका को कभी विज्ञापन का  आधार बनाकर ना चलाएं और ना ही इसमें किताबों की समीक्षाएं छापे क्योंकि इश्तेहार हमेशा झूठे दावों के साथ आते हैं। यह सलाह मानी गई और आज भी गीता प्रेस ने एक करोड़ रूपए की पुरस्कार राशि लेने से इंकार करते हुए इसे जनकल्याण में खर्च के लिए कहा है। यह भी सच है कि गांधी के जीवन काल में ही गीता प्रेस अपने भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के मार्ग से कई बार भटकी और संस्थापक सदस्यों के साथ उनका टकराव भी हुआ। बापू सनातन धर्म के  पैरोकार थे और नई सोच के वातायन हमेशा खुले रखते थे। गीता प्रेस ने गांधी की गीता पर आधारित अनासक्ति योग को छापने से मना कर दिया था। यह गीता के श्लोकों का सरल अनुवाद था जिसके मूल में था कि कर्म करते हुए निष्प्रभ या अनासक्त अवस्था में चला जाना ही अनासक्ति योग है। बापू गीता को इतिहास से जोड़कर नहीं देखते थे और गीता प्रेस की राय इससे ठीक उलट थी। वैसे ही जैसे वाल्मीकि ने राम को भगवान मानते हुए नहीं रचा था लेकिन तुलसीदास और कम्बन ने जो लिखा वह आस्था में डूबकर लिखा था क्योंकि तब तक राम जनमानस के हृदय में घर कर चुके थे।  

हनुमान प्रसाद पोद्दार महात्मा गांधी के दलित आंदोलन से भी इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते थे। उन्होंने बापू को लिखा कि आपके उपवास की वजह से देश में कई जगह दलित आंदोलनरत हैं। लोग दलितों के साथ खाना खा रहे हैं ,उन्हें मंदिरों में प्रवेश दिया जा रहा है। मुझे नहीं लगता कि साथ खाने से कोई बराबरी आएगी। वे तब तक शुद्ध करार नहीं दिए जा सकते जब तक वे मांस–  मदिरा का त्याग नहीं कर दें। यह विचारों का टकराव था। जो उदार और प्रगतिशील ऐसा कर रहे थे उन्हें बिरादरी से बहार निकला जा रहा था। पोद्दार ने नवजीवन पत्रिका में लिखे महात्मा गांधी के उस लेख का भी ज़िक्र किया जिसमें कहा था कि केवल सहभोजन से छुआछूत को नहीं मिटाया जा सकता  पोद्दार ने अपने दोस्त को एक चिट्ठी में यहाँ तक लिखा था कि गांधी भारतीय वेशभूषा में एक फिरंगी साधु हैं और उनके कई विचारों से मैं एकराय नहीं रखता। ऐसे कई ब्योरे लेखक अक्षय मुकुल ने अपनी किताब में दिए हैं। 

सच तो यह भी है कि बापू की हत्या के बाद षड्यंत्र के सिलसिले में चली कई चक्रों की जांच में शक की सुई गीता प्रेस के प्रकाशक और संपादक पर भी रही। जिनके बारे में उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला ने कहा था कि ये दोनों सनातन धर्म की सनातन धारा को नहीं बल्कि शैतान धर्म को आगे बढ़ा रहे थे। यही अंतर्विरोध हैं जो सम्मान पाने वाली संस्था से जुड़ गए हैं। गीता प्रेस ने अपने सौ वर्षों के इतिहास में अठारह सौ से भी ज़्यादा धार्मिक किताबों की 93 करोड़ से ज़्यादा प्रतियां छापी हैं जिसका मकसद भारतीय संस्कृति  का प्रसार और चरित्र बल को ऊंचा उठाना है। तुलसीदास रचित रामचरितमानस की साढ़े तीन करोड़ और श्रीमद भगवत गीता की 16 करोड़ से भी ज़्यादा प्रतियां भारतीय जनमानस तक पहुंचाई गई हैं। उसी जनमानस के पास जिनके आराध्य राम हैं। 

इधर छह सौ करोड़ की एक फिल्म आदिपुरुष के संवाद ने लोगों को उलझाया नहीं बल्कि चिढ़ा दिया है। दर्शक इसे रामायण की पवित्र कथा के साथ छेड़छाड़ कर बनाई गई भोंडी मीम बता रहे हैं। साधु समाज का भी कहना है कि इसमें कथा,वेशभूषा,भाषा कुछ भी ठीक नहीं है। इसे देखना ही पाप का भागी बनना है,इसे नेपाल की तरह यहाँ भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। बहरहाल पता नहीं कैसे यह फिल्म सेंसर की कैंची से बच गई। शायद सेंसर बोर्ड को लग रहा था कि ओम राउत की फिल्म है जिन्हें तानाजी के लिए राष्ट्रीय सम्मान मिल चुका है, क्या देखना लेकिन अब जब दर्शकों ने इसे अच्छी तरह देख लिया  है। संवाद राष्ट्रवादी और संस्कृति पुरुष मनोज मुन्तशिर शुक्ला के हैं। उनसे यह चूक कैसे हुई लेकिन अब प्रगतिशील और पारंपरिक दोनों ही ओर के दर्शक उनके साथ फुटबॉल खेल रहे हैं। "गाड़ दो अहंकार की छाती में विजय का भगवा ध्वज तक तो सब ठीक था लेकिन हमारी बेटियों को हाथ लगाओगे तो लंका लगा देंगे .. आज खड़ा है कल लेटा मिलेगा ..जलेगी भी तेरे बाप की जैसे संवाद सुनकर लोग इंटरवल से पहले ही घर जा रहे हैं। सवाल केवल यही कि ऐसे अतीतजीवी मुद्दों का 'दी एंड ' कब होगा और कब सरकार के मंत्रियों से देश के गंभीर मुद्दों पर सवाल पूछे जाएंगे ?




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