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बंदिनी की कविता और बिंदासी का आतंक

आंग सान सू की  और राखी सावंत। इन दो स्त्रियों में कोई  जोड़ नहीं, कोई समानता नहीं। एक फख्र तो दूसरी फिक्र। एक दो दशक तक नजरबंद रहकर भी अर्श पर तो दूसरी आधे दशक से अपनी देह और शब्दों से चीखते रहने के बावजूद फर्श पर। क्या पब्लिसिटी और काम पाने की लालसा के मायने यही रह गए हैं कि जितनी बकवास कर सकते हो, करो। सामने बैठे को रौंद दो अपनी जहरबुझी जुबां से। एक कम पढ़ी-लिखी कुंठित स्त्री चैनल और टीआरपी के खेल में किस कदर इस्तेमाल हो सकती है, इसकी मिसाल है राखी सावंत। सलाह दी जा सकती है कि मत देखो। अव्वल तो यह कुतर्क है। आदिम युग से ही देखने और बोलने की चाहत रही है इनसान की। यह अनंत और अराजक है। भाषा और देह की मर्यादा गढऩे की जरूरत भी तभी से महसूस हुई होगी। आज इस दौर में सब ताक पर है। विध्वंस मचा रखा है इन चैनलों ने। कलर्स के बिग-बॉस को सुहागरात बेचकर टीआरपी कमानी है। इमेजिन को नपुंसक कहकर मार डालना है, बिंदास टीवी को ‘चक्करों’ का भंडाफोड़ दिखाना है, सोनी को कॉमेडी  सरकस   में भद्दे इशारों के साथ द्विअर्थी सवांद बोलने हैं। जिंदा इनसानों के बीच इस कसाईनुमा आचरण की पैरवी कौन कर रहा है? देश की पह

आशंकाओं का जनाज़ा

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बीता सप्ताह हर   हिन्दुस्तानी को  फ़क्र से भर गया, वह भी तब जब वह सबसे ज्यादा आशंकित था .३० सितम्बर  और ३ अक्तूबर की तारीख केवल तारीखभर नहीं बल्कि हमारी नज़र और नज़रिए का विकास है. इन दोनों ही घटनाओं को द हिन्दू  के कार्टूनिस्ट केशव की नज़रों से देखना भी दिलचस्प होगा . अयोध्या फैसले के बाद उन्होंने दो पंछी बनाये जो एक पतली-सी डाली को साझा किये  उड़े  जा रहे हैं और राष्ट्रमंडल  खेलों के उद्घाटन समारोह के बाद एक मस्त हाथी जो आशंकाओं के गुबार को  पीछे छोड़ अपनी मतवाली चाल से चला जा रहा है . बेशक इस भव्य समोराह ने पूरी दुनिया को सकते में डाल दिया है. भारत का समूचा वैविध्य इन तीन घंटों में ऐसे सिमटा जैसे एक रंगीन दुनिया जादू के पिटारे में. कितने खूबसूरत हैं हम. कितना सौंदर्य भरा पड़ा है हममें. इंग्लॅण्ड के अखबार ने लिखा कोई कुत्ता बीच में नहीं आया कहीं ध्वनि नहीं टूटी और कोई बिजली गुल नहीं हुई यानी कि  यही सब अपेक्षित था . फ़र्ज़ कीजिये अगर समारोह फीका -फीका सा रहता और भारत के बजाय   इंडिया झांकता  तो? बतौर भारतवासी  हम कैसा अनुभव करते?  इतने बड़े आयोजन किसी एक व्यक्ति की बपौती नहीं होते,पूरे

आज मकबूल फ़िदा हुसैन की सालगिरह है

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 बीस साल पहले जब कलाकारों के समूह 'फनकार' ने मकबूल फ़िदा हुसैन को इंदौर बुलाया तो पूरे शहर ने बंदनवार सजाये. तब हुसैन 75 के थे.ख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा ने तब उन पर एक लेख लिखा. आज जब हुसैन 95 के हो रहे हैं पेश हैं उन झलकियों की झलक .हुसैन खुद को देश निकला दे चुके हैं और इन दिनों क़तर में हैं. इस मुबारक दिन इन पचड़ों में न पड़ते हुए हुसैन का स्केच शाहिद मिर्ज़ा की कलम से      art attach not attack: makbool fida hussain                          and shahid mirza   image: ramesh pendse                                     सचमुच मकबूल फ़िदा हुसैन पर लिखना बहुत मुश्किल काम है, क्योंकि जो भी आप लिखेंगे,यकीन मानिये हुसैन अपनी रचनात्मक ऊर्जा से उसे पुराना, प्राणहीन और निष्प्रभ कर डालेंगे. सारे मास्टर पेटर्स ने यही किया है, फिर भले ही वे पश्चिम के वान गौफ़ हों, रेम्ब्रां हों, पॉल  क्ली हों या फिर हमारे इंदौर की छावनी और पारसी मोहल्ले के हुसैन ही क्यों न हों. फ़िदा हुसैन उनके पिता का नाम है, जो पंढरपुर से १९१७ में इंदौर आये थे और आज सारा ज़माना 

ईट-प्रे-लव

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आराधना, भक्ति, वंदना, स्मरण जो नाम दीजिए, आशय एक  जगह पहुंचने से है, जहां शांति हो, सुकून हो। मकसद चित्त को एकाग्र करने से है। तो क्या बार-बार श्रीकृष्ण जपने से मन शांत हो जाता है या फिर पूजा-पाठ की तमाम विधियां मन को राहत देती हैं? हालांकि  भक्ति को विभक्त ·करना निरी मूर्खता होगी, लेकिन इसके दो प्रकार तो हैं ही। एक तो हमें बचपन से ही सिखा दी जाती है कि सुबह-शाम पवित्र होकर ईश्वर के आगे दीप प्रज्ज्वलित करो और आरती गाओ। या फिर वक्त निर्धारित कर दिए जाते हैं कि इस दिशा में बैठकर इसी मुद्रा में प्रार्थना ·करो। तरीके हमें विरसे में मिलते हैं और हम सब अपने-अपने मौला को याद करते हैं। फिर  दूसरे किस्म की भक्ति क्या है? किसी ऐसे को याद करना, जिसके लिए दुनिया ने आपको कोई निजाम नहीं दे रखा। वह आपके भीतर समाता चला जाता है। आपको वह वक्त से याद नहीं आता। सुबह-शाम, दिन-रात की मर्यादा से परे वह बस आ धमकता है। यह भक्ति उसके लिए है, जिसके लिए आपके भीतर स्वीकार्य भाव है। श्रीकृष्ण के लिए वैसा ही स्वीकार्य भाव द्वापर युग से चला आ रहा है। मोर मुकुट, बंसी, पीतांबर और मोहक मुस्कान धारण करने भर से कोई किस

भला काहे देखें पीपली लाइव

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क्योंकि फिल्म लीक हटकर है? कि सारे पात्र हकीकत की दुनिया से आये लगते हैं ? कि यह किसी भी महिला निर्देशक कि बेहतरीन फिल्म है? कि एक भी गीत ठूंसा हुआ नहीं लगता? कि यह यथार्थ का सिनेमा है और किसी को प्रेमचंद तो किसी को सत्यजीत रे याद आ रहे हैं ? नहीं इनमे से किसी के लिए भी पीपली लाइव मत देखिये.. .. इसे देखिये क्योंकि यह भारत कि सत्तर फीसदी आबादी का सिनेमा है. उस भारत की कहानी है जिसके पास रोज़मर्रा कि बेहिसाब मुश्किलें हैं और जिसे मौत,ज़िन्दगी से आसान लगती है .... वेरा नौ साल की है। हिंदी की मैम ने उसकी पूरी क्लास से अपनी पसंद·की एक कविता लिखकर लाने के लिए कहा। वेरा ने पापा से जिद की  मुझे वही कविता चाहिए। ये बच्चा   किसक  बच्चा है जो रेत पे तन्हा बैठा है न उसके  पेट में रोटी है न उसके तन पर कपड़ा है.. पिता ने इब्ने इंशा की वह कविता वेरा को लिख दी। वेरा ने भी उसे याद कर लिया। मैम के सामने कविता रखते हुए वेरा की आंखें चमक रही थीं। लेकिन मैम ने घूर कर वेरा को देखा- ‘यह क्या भिखारी पर कविता लिख लाई। यह नहीं चलेगी’। वेरा की आंखें बुझ गईं। वह पूरे समय क्लास में उदास बैठी रही। देस मेरा

काउच सॉरी.....कोच

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एक अगस्त को पड़ रहे फ्रेंडशिप डे को  दर्ज करने से पहले आपके साथ चौदह साल पीछे जाने का मन है। सोलह साल की लड़की पर खेलों का जुनून सवार था। वह बास्केटबॉल खेलती थी और बिला नागा सुबह सवा पांच बजे अपना घर छोड़ देती। उसकी सायकल उसे पंद्रह मिनट में स्टेडियम पहुंचा देती। कभी-कभी तो वह सबसे पहले पहुंचने वालों में होती। कोच रामाराव उसके आदर्श थे। अभी बॉल की ड्रिबलिंग से वह सुबह का मौन तोड़ ही रही थी कि पीछे से आकर कोच ने उसे पकड़ लिया। उसका सिर घुमाकर वह उसे चूमना चाहता था लेकिन वह फुर्तीली लड़की उसकी पकड़ से छूट निकली। लड़की का दिल यूं धड़क रहा था मानो  बाहर ही निकल आएगा। छलनी विश्वास के साथ वह सीधे एसोसिएशन के अध्यक्ष के घर पहुंची। शिकायत सुनते ही रामराव को कोच के पद से हटा दिया गया। जुनूनी खिलाड़ी का जुनून उतर चुका था। उसने फिर कभी बॉस्केटबॉल नहीं खेला। कुछ ही अर्से बाद रामाराव फिर कोच बना दिया गया था। एसोसिएशन ने इस बार उसकी नहीं सुनी। साथी लड़कियों के साथ उसने एक बोल्ड स्टेप लिया। प्रेस वार्ता कर डाली। पत्रकारों के सवालों ने उसे यह बोलने पर मजबूर कर दिया कि उसके साथ ही ऐसा हुआ है। इंदौर शह

गलियाँ गालियों की

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आज जाने क्यों उस पर लिखने के लिए बाध्य हो गयीं हूँ जिस पर सभ्य घरों में सोचना भी मना है. इन दिनों पसरती  धूल ने किताबों को भी नहीं बख्शा है. धूल ही झाड़ने की कोशिश में राही मासूम रज़ा की लिखी ओस की बूँद हाथ आ गयी.  धूल  कम, हर्फ़ ज्यादा दिखाई देने लगे . फ्लैप  पढ़ा तो बस वहीँ रह गयी. मेरे परिवार में आधा गाँव , ओस की बूँद   उनके ये दोनों ही उपन्यास वर्जित थे .उसी तरह शेखर कपूर  की बेंडिट क्वीन भी. लेकिन अब गलियाँ मुझे भली लगती हैं .क्योंकि किसी ने मुझे उसका भी गणित समझाया...कि यह बेवजह नहीं होती ...कि इनको कह देने के बाद मन निष्पाप हो जाता है... कि आम इंसान को समझना है तो उसकी भाषा को समझो. बस तबसे जब भी सड़क पर गालियों के स्वर सुनती हूँ तो चिढ़ नहीं जाती और न ही वित्रष्णा होती है . पहले यही सब होता था.  कोई होता है जिसके मुख से  अपशब्द भी सोने-से खरे लगते हैं . वे बेवजह नहीं होते. कई बार सोचती हूँ  कि यहाँ से गाली हटा कर किस शब्द को रखूँ कि बात में वजन पड़ जाए लेकीन यकीन मानिये मेरी हार होती. सामान्य शब्दों में शायद वह धार ही नहीं होती जो गाली में होती है. शायद आप जानते हों गलियों के

मोरा पिया मोसे बोलत नाहीं...

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तमाम हिंसा और आवेग के दृश्यों के बावजूद प्रकाश झा की फिल्म राजनीति सोचने के लिए मजबूर करती है कि अगर एक स्त्री राजनीति में है तो वह या तो अपनी देह कुर्बान कर रही है या फिर परिवार में हुए किसी हादसे के नतीजतन राजनीति में है।....और जो इरादतन (पात्र का नाम भारती) राजनीति में है, उसे केवल इसलिए सब छोड़ना पड़ता है क्योंकि वह अपने ही गुरु को सर्वस्व अर्पित कर बिन ब्याही मां बन जाती है। लाल झण्डा लिए गुरु पलायन कर जाते हैं और वह एक राजनीतिक परिवार की बहू। यह ब्याह भी जोड़-तोड़ की भावी राजनीति का बीज बोने के लिए होता है। फिल्म में एक कैरेक्टर उस युवती का है जो सीतापुर के टिकट के लिए खुद को सौंपती चली जाती है लेकिन टिकट है कि उसे ही शटल कॉक बना देता है। इस गन्दी राजनीति पर बहुत हौले से कैमरा घूमता है। नायिका इन्दु प्रताप सिंह (कैटरीना कैफ) भी इसलिए मैदान में उतरी है क्योंकि उनके ससुर और पति की हत्या हो चुकी है और सहानुभूति का पूरा वोट उनकी झोली में गिरने वाला है। यही जमीनी हकीकत है हमारे देश में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी की।राजनीति के बहाने निर्देशक प्रकाश झा ने रिश्तों की बुनावट को जिस प्रकाश

कल बदनाम लेखक मंटो का जन्मदिन था

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कल उर्दू के बेहतरीन अफसानानिगार सआदत अली हसन मंटो की ९८वीं सालगिरह थी.उनके अंदाज़े बयां को सजदा करते हुए एक अफ़साना और एक हकीकत  उन हमज़ुबां दोस्तों के नाम जो कुछ अच्छा पढ़ने की उम्मीद में इस ब्लॉग पर आते हैं .  यूं तो मंटो के बारे में कहने को इतना कुछ है कि मंटो पढ़ाई-लिखाई में कुछ ख़ास नहीं थे कि मंटो कॉलेज में उर्दू में ही फ़ेल हो गए थे कि शायर फैज़ अहमद फैज़ मंटो से केवल एक साल बड़े थे कि उन्हें भी चेखोव कि तरह टीबी था कि वे बेहद निडर थे कि उनकी कई कहानियों पर अश्लीलता के मुक़दमे चले कि बटवारे के बाद वे  पकिस्तान चले गए कि उन्होंने दंगों की त्रासदी को भीतर तक उतारा कि वे मित्रों को लिखा करते कि यार मुझे वापस बुला लो कि उन्होंने ख़ुदकुशी की नाकाम कोशिश  की और ये भी कि वे बहुत कम [४३] उम्र जी पाए गोया कि  चिंतन और जीवन का कोई रिश्ता हो . उफ़... उनके बारे में पढ़ते-लिखते दिल दहल जाता है और उनकी कहानियाँ तो बस इंसान को चीर के ही रख देती हैं. बेशक मंटो का फिर पैदा होना मुश्किल है. हमारा नसीब कि उनका लिखा अभी मिटा नहीं है. एक अर्थ में मंटो सव्यसाची थे हास्य व्यंग्य पर उनका बराबर का अधिकार था.

झुमरी तलैया से चीत्कार

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बरसों तक झारखण्ड के इस क़स्बे के साथ मीठी फर्माइशों का नाम जुड़ा रहा है. आकाशवाणी के विविध भारती चैनल  पर कई मधुर गीत केवल यहीं के बाशिंदों के आग्रह पर बजते रहे हैं. आज एक बार फिर यह नाम सुर्ख़ियों में है लेकिन इस बार सुर-ताल के लिए नहीं बल्कि एक लड़की की चीत्कार के लिए. बाईस साल की निरुपमा पत्रकार थी और प्रियभान्शु रंजन नाम के हमपेशा लड़के को हमसफ़र बनाना चाहती थी. लड़की ब्राह्मण और लड़का कायस्थ. दोनों दिल्ली में थे . छोटे शहरों से झोला उठाकर चलनेवाले लड़के-लड़कों में माता-पिता तमाम ख्वाब भर देते हैं लेकिन उसका अहम् हिस्सा अपने कब्ज़े में रखना चाहते हैं . खूब पढो, अच्छा जॉब चुनों, ज्यादा कमाओ लेकिन जीवनसाथी? वह मत चुनों. बेटी को खुला आसमान देनेवाले पढ़े-लिखे अभिभावक भी यहाँ पहुंचकर उनके पंख कतरना चाहते हैं. निरुपमा के साथ भी यही हुआ. पुलिस ने माँ को गिरफ्तार करते हुए आरोप लगाया की उसने ख़ुदकुशी नहीं की उसकी गला दबाकर हत्या की गयी है वह दस हफ्ते के गर्भ से थी. दरअसल, हर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार के भीतर एक खांप जिंदा है.हम उस खांप से बहार आना नहीं चाहते. शादी के ज़रिये हम यह साबित करते हैं की ह

एक ख़त, मई दिवस १९८१ का

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यह ख़त एक लड़की का है. मुम्बई डेटलाइन से. मुझे तब मिला होता तो मेरे लिए सिर्फ नीले कागज़ का पुर्जा भर होता . कोई ताल्लुक इस ख़त से नहीं है लेकिन इस ख़त की खुशबू मुझे बहुत अपील करती है. मुझे अच्छा लगता है कि कोई कितनी शिद्दत से जिया है उन पलों को. उन सरोकारों को. पहले वह ख़त और फिर पानेवाले कि तात्कालिक प्रतिक्रिया जो उसी ख़त के हाशिये पर लिख दी गयी है. प्रिय ......... आपका पत्र २९ को मिला, टेलीग्राम कल और फ़ोन भी कल ही . इन सारी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद. कल शाम को तो मैं सारा सामान उठा कर दरवाज़े से बहार निकलने को ही थी कि आपका फ़ोन आया . धन्यवाद. जन्मदिन ठीक ही रहा. दिन भर दफ्तर , शाम खार में एक छोटे बच्चे कि जन्दीन पार्टी में आज मजदूर दिवस के उपलक्ष्य में सबको छुट्टी थी लेकिन हमारे दफ्तर में तो सबने बराबर मजदूरी की है . गर्मी आज अचानक ही बढ़ गयी है और काम करना भी मुश्किल हो रहा था. खैर इस वक्त तो मैं अपने कमरे में हूँ . मेरी रूम मेट्स पढ़-पढ़ कर परेशान हो रही हैं और मुझे देखकर उन्हें बड़ी कोफ़्त हो रही है. आपकी शुभकामनाएँ उन तक पहुंचा दी हैं और अब उनका धन्यवाद आप तक पहुंचा रही हूँ.

लिव- इन रिश्ता बोले तो . . . अप्रैल fool !!!

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इस दौर में जब हर शख्स एक दूसरे को टोपी पहनाकर अपना ·काम निकालना चाहता है मूर्ख दिवस की बात करना कोई मायने नहीं रखता। हर रोज कोई न कोई, कहीं न कहीं छला जा रहा है। छलने से याद आया लिव-इन-रिलेशनशिप यानी बिना शादी के साथ-साथ रहना। सामाजिक विश्लेषको का मानना है कि इसमें स्त्री ही छली जाती है। रिश्ते ·की अनिश्चितता उसे अंत में तबाह करती है। वह रोती है, बिसूरती है और पुरुष चट्टान कि तरह अडिग। उसका कुछ नहीं बिगड़ता है। ब्रिटेन में रह रहीं भारतीय नागरिक नीरा जी ने एक पोस्ट के कमेन्ट में लिखा है कि ऐसे देश में रहती हूं जहां लिव-इन टुगेदर  आम बात है। इसका अंजाम मैंने देखा है कि नॉन कमिटल मर्दों के साथ अकेली मांओं ·की संख्या बढ़ी है। नारीवादी हूं। दो बेटियों की मां भी। कल अगर वे ऐसा करना चाहें तो खुशी-खुशी करने दूंगी, कह नहीं सकती। यह भाव सिर्फ और सिर्फ इसलिए आता है की स्त्री के पास मातृत्व ·की जिम्मेदारी है।  पुरुष मुक्त है। वह  इस रास्ते में पल्ला झाड़कर आगे निकल जाता है और स्त्री वहीं की वहीं ठहरी हुई। यह ठहराव उसे पीड़ा देता है। लिव-इन में हम इसी ठहराव को देखते हैं और विरोध करते हैं। न्यायाल

सौ रुपये में nude pose

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'वे जो कला को नहीं समझते मेरे काम को भी सम्मान नहीं दे सकते.मेरी बस्ती के लोग जो मेरे काम को जानते हैं मुझे वैश्या ही कहते हैं. क्या कहूं  खुद भी तो पहले ऐसा ही समझती थी.' निशा यही नाम है उसका. दक्षिण मुंबई के आर्ट्स कॉलेज की न्यूड मॉडल है. तीस विद्यार्थियों और एक प्रोफ़ेसर की  मौजूदगी में वह अपने कपड़े उतार  देती है. जीती जगती निशा सफ़ेद पन्नों पर रेखाओं में दर्ज होती जाती है. यहाँ उसके भीतर की शंकाएँ और सवाल कोई शोर नहीं मचाते. कला के विद्यार्थियों के लिए वह सिर्फ एक मॉडल है जिसके कर्व्ज उनके सामने कला की नई चुनौती रखते हैं. वह छह घंटे की सिटिंग देती है, बदले में उसे १०० रूपए मिल जाते हैं पहले सिर्फ ५० मिलते थे. वह कहती है वे केवल मेरा शरीर देखते हैं. मन नहीं इसलिए मैं बिलकुल सहज बनी रहती हूँ वे. सब मेरा सम्मान करते हैं. दो बेटे हैं. पति जब तक रहे काम करने की नौबत नहीं आयी .फिर लोगों के घरों में काम करना पड़ा. एक दिन मेरी मौसी ने इन कोलेजवालों से मिलवाया. वे भी यही करती हैं. शुरू में मुझे बहुत झिझक हुई लेकिन अब कोई दिक्कत नहीं. मेरे बच्चों को नहीं पता कि  मैं क्या काम करत

मिल जा कहीं समय से परे ....

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तुम्हारे आते ही  भीग जाती हैं ये आंखें इतनी शिद्दत से कोई नहीं आता मेरे पास प्रेम ऐसा ही स्वतःस्फूर्त भाव है जो एक इंसान का दूसरे के लिए उपजता है। यह भाव इस कदर हावी होता है कि उसके सोचने समझने की ताकत छिन जाती है। यूं कहें कि वह इंसान दिल के आगे इतना मजबूर होता है कि लगता है दिमाग कहीं सात तालों में बन्द पड़ा है। ...लेकिन दुनिया तो यही मानती है कि प्रेम अंधा होता है। दरअसल प्रेम है ही आंखों को बन्द कर डूबने का जज्बा। जिसमें यह नहीं वह दुनिया की सारी चीजें कर सकता है, प्रेम नहीं। इश्क आपको दिशा देता है। एक मार्ग। शायद वैसे ही जैसे गुरु अपने शिष्य को। ईश्वर अपने भक्त को। प्रेम में डूबा शख्स  नृत्य की मुद्रा में दिखाई देता है। स्पन्दित सा। एक धुन लगी रहती है उसे। वह खिल- सा जाता है कि कोई है जो पूरी कायनात में सबसे ज्यादा उसे चाहता है। यह चाहत उसे इतनी ताकत देती है कि वह सारी दुनिया से मुकाबला करने के लिए तैयार हो जाता है। यह जज्बा केवल और केवल मनुष्य के बीच पनपता है। किसी मशीन या जानवर ने अब तक ऐसे कोई संकेत नहीं दिए हैं। ... और सच पूछिए तो हमारे यहां इस जज्बे से निपटने के प्रयास अब भ

मौत और ज़िन्दगी यानी दो नज्में

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पिछले दिनों अनीसुर्रहमान सम्पादित 'शायरी मैंने ईजाद की 'पढ़ी जिसमें आधुनिक उर्दू शायरी का समावेश है. जीवन और अंत से जुडी दो कवितायेँ वहीँ से. क्या करोगे ? शाइस्ता हबीब तुम मेरे मरने पर ज्यादा से ज्यादा क्या कर लोगे? कुछ देर तक आंखें हैरत में गुम रहेंगी एक सर्द सी आह तुम्हारे होटों को छूते हुए उड़ जाएगी और तुम्हें कई दिनों तक मेरे मरने का यकीन नहीं आएगा फिर एक दिन... तुम अपने दोस्तों के साथ बैठै हुए कहकहे लगा रहे होगे मैं एक अजनबी आंसू की तरह तुम्हारे गले में जम जाऊंगी और तुम... तुम उस आंसू को निगलने की कोशिश में सचमुच रो पड़ोगे कि मैं वाकई मर गई हूं   यह मुहब्बत की नज़्म है जीशान साहिल इसे पानी पे लिखना चाहिए या किसी कबूतर के पैरों से बांध कर उड़ा देना चाहिए या किसी खरगोश को याद करा देना चाहिए या फिर किसी पुराने पियानो में छुपा देना चाहिए यह मुहब्बत की नज्म है इसे बालकनी में नहीं पढऩा चाहिए और खुले आसमान के नीचे याद नही करना चाहिए इसे बारिश में नहीं भूलना चाहिए और आंखों से  ज्यादा करीब नहीं रखना चाहिए                           

सुबह चांदनी मिली

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नए साल की पहली सुबह जब आँख खुली तो चांदनी मिली . पूरे चाँद की चांदनी. २००९ के ही चाँद की चांदनी. ज़ाहिर है सूरज की पहली किरण से हम रूबरू नहीं हो सके . ऐसी ही एक सर्द सुबह रणथम्भौर की थी जब शेर के दर्शन को तरसती आँखों के साथ हम कैंटर में सवार हुए .जिन्होंने भी जंगल सफारी का आनंद लिया है वे समझ सकते हैं की जंगल के राजा का दिखना क्या होता है. इस सफारी में हमें एक ऐसा नायाब पक्षी मिला जो आपके सर पर आकर बैठ जाता है.. और जब वह उड़ जाता है तो लगता है सारा अनर्गल हर ले गया. सर्दी में ठिठुरायी   पोस्ट १ जनवरी २००९ की डायरी से. आते और जाते साल के संगम के दौरान मानस पर जो अंकित हुआ वही साझा कर रही हूं। रणथम्भौर के एक होटल में डीजे पर सारे गेस्ट थिरक रहे हैं। काळयो कूद पड्यो मेला में .. से लेकर ब्राजील... पर क्या गोरे क्या काले खूब ताल मिला रहे हैं। होटल क्या है पूरा-पूरा बाघालय है। फर्नीचर, क्रॉकरी, चादर, पर्दों पर, यहां तक कि तस्वीरों में भी बाघ  ही हैं । इतने बाघ यहां है तो जंगल में क्या आलम होगा। यही सोचकर परिवार खासकर उसमें शामिल बच्चे बेहद उत्सुक थे। 31 दिसंबर की पार्टी के बाद सुबह छह बज