काउच सॉरी.....कोच

एक अगस्त को पड़ रहे फ्रेंडशिप डे को  दर्ज करने से पहले आपके साथ चौदह साल पीछे जाने का मन है। सोलह साल की लड़की पर खेलों का जुनून सवार था। वह बास्केटबॉल खेलती थी और बिला नागा सुबह सवा पांच बजे अपना घर छोड़ देती। उसकी सायकल उसे पंद्रह मिनट में स्टेडियम पहुंचा देती। कभी-कभी तो वह सबसे पहले पहुंचने वालों में होती। कोच रामाराव उसके आदर्श थे। अभी बॉल की ड्रिबलिंग से वह सुबह का मौन तोड़ ही रही थी कि पीछे से आकर कोच ने उसे पकड़ लिया। उसका सिर घुमाकर वह उसे चूमना चाहता था लेकिन वह फुर्तीली लड़की उसकी पकड़ से छूट निकली। लड़की का दिल यूं धड़क रहा था मानो  बाहर ही निकल आएगा। छलनी विश्वास के साथ वह सीधे एसोसिएशन के अध्यक्ष के घर पहुंची। शिकायत सुनते ही रामराव को कोच के पद से हटा दिया गया।

जुनूनी खिलाड़ी का जुनून उतर चुका था। उसने फिर कभी बॉस्केटबॉल नहीं खेला। कुछ ही अर्से बाद रामाराव फिर कोच बना दिया गया था। एसोसिएशन ने इस बार उसकी नहीं सुनी। साथी लड़कियों के साथ उसने एक बोल्ड स्टेप लिया। प्रेस वार्ता कर डाली। पत्रकारों के सवालों ने उसे यह बोलने पर मजबूर कर दिया कि उसके साथ ही ऐसा हुआ है। इंदौर शहर के टीवी चैनल्स के कैमरे और रिपोर्टरों की निगाहें उसी पर जमी हुई थीं। वार्ता खत्म होते ही वह घबरा गई कि अब क्या होगा। वह तो इनडायरेक्टली कहना चाहती थी। माता-पिता का चेहरा घूम गया। एक-एक से हाथ जोड़कर निवेदन किया कि प्लीज टीवी पर ना दिखाएं। भले थे। भारतीय लड़की की बेबसी समझी और खबर बनने से पहले ही दम तोड़ गई।

इस घटना को लिखने का मकसद कुछ और नहीं बल्कि मणिपुर की अंतरराष्ट्रीय भारतीय हॉकी खिलाड़ी टी एस रंजीता को सलाम करना है। उन्हें इस भय ने नहीं घेरा। उन्होंने कोच की पोली खोली। उनका बयान है  "चीन ट्रिप के दौरान एक रात कौशिक सर ने मुझे रूम में बुलाया और कहने लगे, तुम सुंदर हो, तुम मुंबई में अकेली रहती हो, तुम्हें जिंदगी के मजे लेने चाहिए। उन्होंने यहां तक कहा कि वह मेरे लिए 24 घंटे उपलब्ध हैं। ऐसा उन्होंने एकाध बार नहीं बल्कि पांच बार कहा, उन्होंने कई बार पलंग की तरफ इशारा किया।"

अब सिडनी ओलंपिक्स [वेटलिफ्टिंग] में भारत को कांसे का तमगा दिलाने वाली कर्णम मल्लेश्वरी भी सामने आई हैं। उन्होंने साफ कहा है कि कोच रमेश मल्होत्रा के साथ लड़कियां सुरक्षित नहीं है, उन्हें बदला जाना चाहिए। हमारा देश ओलपिंक पदक विजेता और एक महिला की कितनी इज्जत करता है यह इस बात जाहिर होता है कि कोच पर कार्रवाई करने की बजाय, देश के सर्वोच्च खेल अवार्ड द्रोणाचार्य के लिए नामांकित कर दिया। सच है हम न खेलों की इज्जत करते हैं न महिलाओं की। अव्वल तो खेलों से माता-पिता का भरोसा उठा हुआ है और उस पर ऐसे कोच और अधिकारी।

कुछ लोगों का कहना है कि लड़कियों के पास यही आखिरी हथियार होता है। वे पुरुषों पर इसी से वार करती हैं। एकाधिक मामलों में ऐसा हो सकता है, लेकिन सत्चरित्र इसमें से बेदाग बाहर भी निकलते हैं. अधिकांश मामलों में लड़की का मुखर होना उतना आसान नहीं क्योंकि हम लड़कियों में ही दोष देखते हैं। उसी को कठघरे में खड़ा करते हैं। ऐसा करने पर उसकी सामाजिक हैसियत नहीं के बराबर रह जाती है। साफ-साफ कहे तो ऐसी स्वाभिमानी लड़कियों के साथ कोई रिश्ता नहीं जोडऩा चाहता।

फिल्म चक दे इंडिया की बिंदिया भी याद आती है जो खुद को कोच कबीर खान को समर्पित करना चाहती है, लेकिन कबीर अपने आचरण से बिंदिया को गलती का एहसास करा देते हैं। यही एक गुरु का दायित्व है। काउच की ओर इशारा करने वाले कोच खेलों को दाव पर लगाए बैठे हैं। हॉकी खिलाड़ी परगट सिंह ने साफ कहा है कि इस पूरे मसले को बच्चे की तरह ट्रीट किया गया है। भारतीय ओलंपिक संघ पर बरसों से एक चेहरा  काबिज़ है। सवा अरब की आबादी वाला देश मेडल को तरसता है। इक्का-दुक्का पदक आते भी हैं  तो व्यवस्था से लड़कर। खेलों का बजट न जाने किस तहखाने में समा रहा है। अखेल अधिकारी, कोच अंतरराष्ट्रीय टूर पर जाकर कर्तव्य की इतिश्री मान रहे हैं। खेलों के साथ हमारी मित्रता बेहद कमजोर है।

आपको आराधना गुप्ता और रुचिका गहरोत्रा की दोस्ती याद होगी। हरियाणा के आईजी राठौड़ लॉन टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। चौदह साल की टेनिस प्लेयर रुचिका के यौन शोषण में लिप्त राठौड़ का कच्चा चिट्ठा खोलने में उसकी दोस्त ने दिन-रात एक कर दिया। रुचिका ने तंग आकर खुदकुशी कर ली थी। न्याय मिलने में उन्नीस साल लगे। राठौड़ आज जेल में है। खेलों की ऐसी दुर्गति और दोस्ती की ऐसी सदगति की शानदार मिसाल शायद ही कहीं और मिले। फ्रेंडशिप डे मुबारक हो। अग्रिम.

टिप्पणियाँ

  1. gazzab ka likha hai. aap to har bar naya or behtareen likhti hain. hum vakai aapki lekhni ke mureed hain.

    hockey game ki stithi vakai abhishekji ne behtar spast kee hai.

    regard
    pradeep

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  2. बेहद दुखद और शर्मनाक ! बढ़िया पोस्ट !

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  3. भारी सवाल, सच्चे ब्योरे, और अभिषेक जी का कार्टून मिल कर
    मुझ पाठक को किस तरह झकझोरते है कैसे लिखा जाये सोच रहा हूँ.
    सवालों के आईनों का पानी उतर चुका है
    मिडिया आज जितना पावरफुल है उतना कभी दिखाई न देता था मगर उसकी रूचि यूज एंड थ्रो और कास्मेटिक खबरों में ज्यादा है.
    हमारी नैतिकता किसी पवित्र सरोवर सी न होकर सडांध मारते दूषित जल वाले गड्ढों जैसी हो गई है
    जो जागेगी क्या ? साफ़ भी हो जाये तो इसे गनीमत समझा जाये.
    कभी विजय अकेला की कविता हमने कॉलेज दिनों में प्रकाशित की थी अपने ही पेम्फलेट में और उसे फिर से ढाणी बाज़ार पर भी लगाया
    वे कविता में कहते हैं 'ऐसा लगता है जैसे नंगों से नंगों की दोस्ती हो गई है.."
    उस कविता का शीर्षक था अब कोई आवाज़ नहीं उठाता.
    आप को चौदह साल पुरानी स्मृतियां संजीदा करती है जबकि समाचार ग्राहकों की प्रवृति कुछ ऐसी हो गई हैं कि वे ऐसे घटनाओं को रोज़ पढ़ना चाहते हैं

    बातें बहुत सी है मगर दुःख इस बात का है कि ये स्वीकार्य क्यों होता जा रहा है ?

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  4. हमेशा की तरह लीक से हटकर,,,,और मुद्दे की बात बेबाक.,.. बधाई,,,।

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  5. अपने नैतिक मूल्यों से किसी को भी हराया जा सकता है.. फिर ना कोई लड़की इल्जाम लगा सकती है ना ही कोई कोच दुस्साहस कर सकता है.. पर ऐसी स्थितिया मन में कोफ़्त पैदा कर देती है.. दरअसल महिला खिलाडियों के लिए हर कोई यही सोचता है कि इजीली अवेलेबल होगी.. एक होकी दूंगी रखके फिल्मो में तो ठीक लगता है पर वास्तविक जीवन में कितनी लडकिया होकी रखके दे पाती होगी.. ये सिर्फ खेल में ही नहीं हो रहा हर तरफ यही सब है.. हम अपने नैतिक मूल्यों को खोते जा रहे है.. उसी का परिणाम भुगत भी रहे है.. जवान लड़की का बाप भी बाहर दूसरी लडकियों पर बुरी नज़र डाल ही देता है इस बात से बेखबर कि कोई उसकी बेटी को भी वैसे ही देखता हो..

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  6. सही है कि ये सिर्फ खेल में ही नहीं हो रहा हर तरफ यही सब है। हम अपने नैतिक मूल्यों को खोते जा रहे है।

    विचारोत्तेजक पोस्ट

    बी एस पाबला

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  7. aapki kalam bahut teekhi hai, padh kar hamesha achcha lagta hai... ek jaruri vyang

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  8. धन्यवाद वर्षा
    तुमने मेरे कार्टून को जगह दी.
    साथ ही आभार उन सभी सुधि पाठकों का भी.. जिन्हें ये कार्टून सार्थक महसूस हुआ...

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  9. कार्टून पोस्ट की मूलभावना को सटीक अभिव्यक्ति देती है..और लेख एक दुस्साहसिक ईमानदारी के साथ जरूरी सवालों को सामने रखता है..जिनसे अक्सर हम कतरा कर निकल जाते हैं.समस्या खेलों की नही है हमारी छद्म नैतिक ग्रंथियों की है..उन सामाजिक विडम्बनाऒं की है जो हमारी कथनी-करनी मे फ़र्क पैदा करती है..जुबां और आँखों को झूठ बोलने का मौका देती हैं..यह सइर्फ़ खेलों तक सीमित नही है..कल ही समाचार देख रहा था वर्धमान का जहां किसी बालिका के चालीस वर्षीय विवाहित प्राइवेट ट्यूटर ने उसकी पोर्नोग्राफ़िक सीडी बना कर बाजार मे उतारी..ऊपर से दिखते निर्मल पानी के अंदर तलहटी मे बहुत सड़ांध है..मगर चीजों को बद्लने लायक इच्छा शक्ति आ पाना अभी दूर की बात दीखती है...

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  10. इधर काफी व्यस्त रहा तो पोस्ट देर से पढ़ पाया…समाज के भीतर जो गहरे बैठी पितृसत्तात्मक सोच है यह भी उसी का प्रतिबिंबन है। स्त्री की देह उसकी गुलामी का सबब है तो पुरुष के लिये वही देह असीम उच्छृन्खलता का। जो ताक़तवर है उसे सब भोगने का अधिकार है ( वीर भोग्या वसुंधरा) जैसे विश्वासों ने पुरुषों की नज़र में हर औरत को भोग्या बना दिया है…फिर चाहे वह खेल का मैदान हो, या सिनेमा का पर्दा या फिर राजनीति और नौकर्शाही की कुर्सियां…औरत के लिये हर रास्ते में उसकी देह बाधा बन कर खड़ी हो जाती है…जब साहित्य तक में साथी लेखिकाओं के प्रति यह नज़र देखी जा रही है तो इस सोच से तीखा संघर्ष चलाये बिना फिलहाल तो कोई रास्ता नज़र नहीं आता…

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  11. aise besharm logo ko kya sharm...koi fark nahi padta inhe...ek accha lekh..jari rakhiye!

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  12. ये देह का गणित आख़िर कब ख़त्म होगा भारतीय खेलों से ?

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