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सर ढंकना औरत की सोच को नियंत्रित करने की साज़िश

कर्नाटक के शिक्षण संस्थानों में हिजाब को प्रतिबंधित किए जाने के बाद दो जजों की पीठ के दो अलग-अलग फैसले आए हैं ठीक वैसे ही जैसे पिछले साल इसी वक्त पूरा देश बहस करते हुए दो धड़ों में बंट गया था ,अपनी राय दे रहा था और तर्क रख रहा था। अभी एक पखवाड़े पहले ही सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने महिला को गर्भपात का अधिकार दिया है। महिला का वैवाहिक स्टेटस जो भी हो वह 24 सप्ताह के गर्भ को समाप्त कर सकती है। यह उसके शरीर पर उसके कानूनी हक के  उद्घोष की तरह  है। क्या हिजाब के मामले को भी इस नजरिए से देखा जा सकता है कि यह उसकी देह है, वह चाहे तो हिजाब पहने, चाहे तो नहीं। कोई मजहब, कोई कानून उस पर थोपा नहीं जाए कि उसे इसे पहनना ही है। ईरान की स्त्रियां यही तो कह रही हैं। जान कुर्बान कर रही हैं कि आप इसे हम पर थोप नहीं सकते। हमारे देश में जो यह सवाल चला वह एक शैक्षणिक संस्था से चला था। संस्थान में एक ड्रेसकोड है जिसका पालन होना ही चाहिए लेकिन हमने जानते हैं  कि भारत विविधता और विविध विचारधाराओं का देश है।  हम जिस स्कूल में पढ़ा करते थे वहां की स्कूल यूनिफॉर्म घुटनों तक की ट्यूनिक थी लेकिन लड़कियां शल

गुजरात :भाजपा का छेल्लो शो !

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   खेला होबे सियासत की दुनिया का लोकप्रिय मुहावरा हो गया है। किसे पता था कि पश्चिम बंगाल से चला यह शब्द खेल में 'सियासत होबे' का पाठ पढ़ा जाएगा। इस नई सियासत से दीदी के प्रदेश में यह नजरिया बन गया है कि चूंकि दादा ने पार्टी का साथ नहीं दिया इसकी वजह से उन्हें अध्यक्ष पद से चलता कर दिया गया है। दादा रबर स्टांप नहीं हो सकते थे लिहाजा उनकी पारी यहीं खत्म कर दी गई है। अगर जो दादा पार्टी का हाथ थाम लेते तो कथा कुछ और होती।  बहरहाल, खेला गुजरात में भी बहुत रोचक हो गया है। विधानसभा चुनाव होने को हैं और 27 सालों से राज कर रही भारतीय जनता पार्टी का बुखार इस बात से ही नापा जा सकता है कि कभी प्रधानमंत्री तो कभी गृह मंत्री वहां डेरा डाले रहते हैं। घोषणाओं पर घोषणाएं जारी हैं और पार्टी एक नहीं कई गौरव यात्राओं की शरण में चली गई है क्योंकि जनता अब नेताओं को हवा में नहीं सड़क पर देखना चाहती है। पता नहीं क्यों प्रधानमंत्री को राजकोट रैली में कांग्रेस के बारे में गुजराती भाषा में यह कहना पड़ा कि "इस बार कांग्रेस कुछ कह नहीं रही है, शांत बैठी है, चुपचाप घर-घर जाकर अभियान चला रही है। इस बात स

तेरा सुतवां जिस्म है तेरा

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ऐसे दुनियावी परिदृश्य में जहां ईरान में महिलाएं को हिजाब से मुक्ति पाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ रही हैं और अमेरिका महिलाओं को गर्भपात का अधिकार देने में पीछे हट गया है तब भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के फैसले पर स्त्री को हक देकर उसके सशक्तिकरण की दिशा में सहज ही बड़ा कदम बढ़ा दिया है। यह और बात है कि कुछ लोगों ने जो ना स्त्री के शरीर से वाकिफ हैं और ना उसकी भावनाओं से, न्यायालय की व्याख्या को मनमौजी व्याख्या कह डाला है। यह समझना ज़रूरी है कि भारतीय संविधान मानव अधिकारों को  सर्वोपरि मानता है, बिना किसी लिंगभेद के और यह उस महान संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करता है जहां  संतान की पहचान उसकी जन्मदात्री से होती है। कौशल्या पुत्र, देवकीनंदन, कुंती पुत्र या कॉन्तेय की परंपरा के देश में स्त्री की देह पर स्त्री के अधिकार को रेखांकित  करनेवाला महत्वपूर्ण फैसला पिछले हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। इसके तहत हर स्त्री को यह अधिकार होगा कि वह अपनी मर्जी से 24 हफ्ते के गर्भ पर फैसला ले सकती है फिर चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित। आज जब ईरान की महिलाएं सर से हिजाब उतारने के लिए अपनी

यह महान दृश्य है चल रहा मनुष्य

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सियासी मौसम बदला-बदला सा है। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राज्यपाल खुलकर कह रहे हैं कि मैं 2024 में इन्हें फिर नहीं देखना चाहता। पार्टी के एक केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ नेता भारत को बेहद अमीर देश तो मानते हैं लेकिन उसकी जनता को बहुत गरीब। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाहक ने देश भर में बढ़ती बेरोजगारी और आय में बढ़ती असमानता पर न  केवल चिंता जताई है बल्कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने तो नई जनसंख्या नीति बनाने की बात तक कर दी है वर्ना अब तक तो "उधर आबादी बढ़ती जा रही है, इधर बढ़ानी है" कि उत्तेजना ही सम्प्रेषित होती थी। शायद विश्लेषकों की बात समझ आ गई है कि आबादी बढ़ने का सीधा ताल्लुक जहालत से है न कि मज़हब से। यह बहुत ही सकारात्मक है कि देश में ऐसी आवाज़ें अर्से बाद अब फिर सुनाई देने लगी हैं। नफ़रती कीचड़ से सने बोल कहीं बह गए हैं, विसर्जित हो गए हैं। और भी बहुत कुछ बहा है, मसलन किसी को कमतर साबित करने की आईटी सेल की मुहीम। फिर भी घृणा के बीज जो देश में बोए जा चुके हैं, वे चुनावी सियासत वाले राज्यों में खाद-पानी पाने लगते हैं और काटों  की तरह लहलहाने लगते हैं। गुजरात ताज़ा मिसाल है।

आलाकमान की आला चूक

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 पूरे सप्ताह राजस्थान सुर्ख़ियों में रहा। गहलोत को 'घेलोट' कहनेवाला मीडिया देर रात तक जाग-जाग कर बग़ावत की कहानियां सुनाता रहा ,ब्योरे देता रहा। एक नेता जिसकी ख्याति रही हो कि वह पार्टी का वफ़ादार सिपाही है तो उसके पार्टी लाइन तोड़ने से जुड़ी ख़बरों में भला किसकी दिलचस्पी नहीं  होगी। उन्हें लग रहा था कि कांग्रेस पार्टी के वफ़ादार अशोक गहलोत की बेवफ़ाई के किस्से यहीं से मिलेंगे। अशोक गहलोत के तो नहीं लेकिन उनके विधायकों के एकजुट होने के दृश्य उन्हें खूब मिले, जिन्हें बगावत की तरह पेश करने में किसी ने कोई गलती नहीं की। अब जब इस बगावत की नैतिक ज़िम्मेदारी अपने सर लेते हुए अशोक गहलोत ने माफी मांग ली है तब मीडिया की नई कोशिश राजस्थान का मुख्यमंत्री बदलवाने में लग गई है। एक ठीकठाक काम करते प्रदेश को यूं अस्थिर करने के लिए कौन उत्तरदाई है ? किसने इसके  शांत पड़े धोरों में बवंडर की हवा फूंकी ? किसे लगा कि  गिनती के जिन दो प्रदेशों में सरकार बची हुई है उनमें से ही अध्यक्ष भी आना चाहिए। अगर जो आना भी चाहिये तो यह भांपा क्यों नहीं जा सका कि नए नाम पर वहां किस क़दर विद्रोह हो सकता है? कांग्रेस आलाकम