गुजरात :भाजपा का छेल्लो शो !

 


 खेला होबे सियासत की दुनिया का लोकप्रिय मुहावरा हो गया है। किसे पता था कि पश्चिम बंगाल से चला यह शब्द खेल में 'सियासत होबे' का पाठ पढ़ा जाएगा। इस नई सियासत से दीदी के प्रदेश में यह नजरिया बन गया है कि चूंकि दादा ने पार्टी का साथ नहीं दिया इसकी वजह से उन्हें अध्यक्ष पद से चलता कर दिया गया है। दादा रबर स्टांप नहीं हो सकते थे लिहाजा उनकी पारी यहीं खत्म कर दी गई है। अगर जो दादा पार्टी का हाथ थाम लेते तो कथा कुछ और होती। 

बहरहाल, खेला गुजरात में भी बहुत रोचक हो गया है। विधानसभा चुनाव होने को हैं और 27 सालों से राज कर रही भारतीय जनता पार्टी का बुखार इस बात से ही नापा जा सकता है कि कभी प्रधानमंत्री तो कभी गृह मंत्री वहां डेरा डाले रहते हैं। घोषणाओं पर घोषणाएं जारी हैं और पार्टी एक नहीं कई गौरव यात्राओं की शरण में चली गई है क्योंकि जनता अब नेताओं को हवा में नहीं सड़क पर देखना चाहती है। पता नहीं क्यों प्रधानमंत्री को राजकोट रैली में कांग्रेस के बारे में गुजराती भाषा में यह कहना पड़ा कि "इस बार कांग्रेस कुछ कह नहीं रही है, शांत बैठी है, चुपचाप घर-घर जाकर अभियान चला रही है। इस बात से सावधान रहने की जरूरत है।" अब प्रधानमंत्री जनता से संवाद कर रहे थे या अपने कार्यकर्ताओं को आगाह कर रहे थे लेकिन यह तो साफ है कि भाजपा इस बार इन चुनावों को हल्के में ले सकने की स्थिति में कतई नहीं है। 27 सालों के शासन से नागरिकों में पैदा हुई परेशानियों के साथ अरविन्द केजरीवाल भी भाजपा की नाक में दम किए हुए हैं। चुनाव में तनाव है इसीलिए भाजपा के एक सांसद के नफरती उद्गार भी निकल आए हैं।

अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को अगर कोई भाजपा की 'बी' टीम मान रहा है तो उसे अपनी भूल सुधार लेनी चाहिए। दिल्ली में जिस भीषण जंग के बाद पार्टी भाजपा को हराकर सत्ता में आई और फिर पंजाब के बाद गुजरात में दम-खम दिखाया है, वह भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। इसे असदुद्दीन ओवैसी फैक्टर नहीं कहा जा सकता जो अल्पसंख्यकों के वोट काटकर भाजपा की जीत का गणित आसान कर देता हो। कांग्रेस और भाजपा के अलावा आप अकेली पार्टी है जिसकी देश के दो राज्यों में सरकार है। दूसरे बड़े नेता हैं लेकिन उनका जनाधार एक राज्य तक ही सिमटा हुआ है, फिर चाहे वह नीतीश कुमार हों ममता बैनर्जी या फिर स्टालिन या के चंद्रशेखर राव (केसीआर)। शरद पवार की एनसीपी के पास तो कोई राज्य भी नहीं है। गुजरात में आप और भाजपा नूरा कुश्ती नहीं कर रहे हैं। भाजपा कड़ी टक्कर में है और उसे 2017 में केवल 99 सीटें मिलीं थीं। कांग्रेस को 77 सीटें मिलीं थीं। कांग्रेस का वोट शेयर तो बढ़ा ही था, 32 साल बाद उसे इतनी सीटें भी मिली थीं। तोड़-फोड़ के बाद  जोड़ से भाजपा की सरकार बन गई थी। भाजपा को रेकॉर्ड 127 सीटें 2002 के दंगों के बाद मिली थीं। घोर ध्रुवीकरण से हासिल हुई सीटों के बाद 2007 में भाजपा की सीटें 117, 2015 में 115 और  2017 में घटकर 99 हो गईं। भाजपा का 49 तो कांग्रेस का मत प्रतिशत 41 था। अब इन दोनों के बीच गुजरात में 'आप' है। सूरत नगर निकाय चुनाव में पहली बार 27 सीटें जीतकर आप ने गुजरात में आधार बताकर देश का ध्यान खींचा था। यहां गांधीनगर निकाय चुनाव के नतीजों पर निगाह डालना भी दिलचस्प होगा जो साल भर पहले ही संपन्न हुए थे। यहां कांग्रेस और आप दोनों का सुपड़ा साफ़ था। दोनों को दो और एक सीट मिली थी लेकिन दोनों का वोट शेयर भाजपा से ज़्यादा था। कांग्रेस को 28 फ़ीसदी और आप को 22 फ़ीसदी मत मिले थे। हालांकि गांधीनगर म्युनिसिपल कार्पोरेशन का चुनाव कोई विधानसभा चुनाव के नतीजों की आहट नहीं देता है लेकिन ऐसा  हाल रहा तो गुजरात को नई सरकार तब मिलेगी जब ये दोनों मिल जाएं। ऐसा होना मुश्किल इसलिए भी है कि भाजपा हार कर भी जीत का ताज पहनना जानती है। महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश आदि मिसाल हैं फिर यह तो गुजरात है जिसे भाजपा के अध्यक्ष अपने चुनावी भाषण में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की गंगोत्री बताते हैं। 

फिलहाल आप से दोनों दलों ने दूरी बनाई हुई है। पंजाब में आप की सरकार कह रही है कि हमें पाकिस्तान से व्यापार की अनुमति मिलनी चाहिए। इस पर कांग्रेस-भाजपा दोनों ही पिल पड़े हैं। यह और बात है कि पंजाब के नेता और क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू बहुत पहले ही यह कह चुके हैं कि भाषा और खान-पान हमें पाकिस्तान से जोड़ता है। भारत का पंजाब और पाकिस्तान का पंजाब सांस्कृतिक रूप से क़रीब हैं शायद इसीलिये इमरान खान से सिद्धू की दोस्ती औरों को खटकती आई है। बहरहाल गुजरात में संघर्ष कहीं-कहीं  त्रिकोणीय है और यह रोचक भी  कि दो परंपरागत विरोधियों के बीच आप जगह बनाती दिख रही है। अस्थाई कर्मचारियों का असंतोष आप के हक में होता दिख रहा है।आप पार्टी के स्कूल और हेल्थ मॉडल के प्रति भी मतदाताओं का झुकाव है और यह भाजपा को चुनौती भी दे रहा है। कोविड के समय गुजरात के अस्पताल हांफ गए थे।


अगर जो 80 हज़ार करोड़ की योजनाओं की घोषणा और चकाचौंध के बूते वोट हासिल करना पर्याप्त होता तो मोदी-शाह को यूं गुजरात में वक्त न बिताना पड़ता और न ही यह कहना  पड़ता कि कांग्रेस चुप है कोई शोर नहीं मचा रही है, उधर चौकन्नी  नज़र रखना ज़रूरी है। राजकोट की इस रैली में प्रधानमंत्री की टोपी का रंग केसरिया से ज़्यादा लाल दिखाई दे रहा था और उन्होंने जयप्रकाश नारायण को याद करते हुए कहा कि मुझे उनके चरण छूने का सौभाग्य मिला है। जयप्रकाश नारायण भ्रष्टाचार मुक्त भारत की बात करते थे और उनके चरण छूना यानी लोहे के चने चबाने जैसा काम है। जो काम वे अधूरा छोड़ गए उसे पूरा करने का काम हमने उठाया और दिल्ली में  हम जैसे ही कुछ करते हैं खलबली मच जाती है और एक भीड़ इकट्ठी हो जाती है,भारत सरकार की संस्थाओं को बदनाम करती है,अरे भाई पहले उसका जवाब तो दो जो आपने देश से लूटा है । गौरतलब है कि गुजरात चुनाव में प्रधानमंत्री कांग्रेस को छुपा हुआ हमलावर  बता रहे हैं और खुद पूरी तरह हमलावर हो रहे हैं। गुजराती फिल्म 'छेल्लो शो' भारत की ओर से ऑस्कर के लिए आधिकारिक एंट्री है और भाजपा कतई नहीं चाहेगी कि यह गुजरात में उनका छेल्लो शो हो। गुजराती भाषा में  छेल्लो यानी आख़िरी। यह छेल्लो हुआ तो 2024 की लड़ाई पूरी तरह बिखर जाएगी। 

दिल्ली में भाजपा के ही एक सांसद प्रवेश वर्मा ने फिर नफ़रत भरे बयान का वमन कर दिया है। एक पार्टी जिसके बड़े नेता और संघ मेल-जोल की बात कह रहे हैं लेकिन बीच-बीच में अन्य नेता ऐसी चिंगारी सुलगा देते हैं जिससे ऐसा लगता है कि यह भी रणनीति के तहत हो रहा है। हम पानी के छीटें डालेंगे तुम आग लगाते जाना अन्यथा कैसे यह बयान आता है -"जहां जहां ये आपको दिखाई दें, मैं कहता हूं  अगर इनका दिमाग ठीक करना है तो एक ही इलाज है, वह है  सम्पूर्ण बहिष्कार। आप इस बात से सहमत हों तो मेरे साथ बोलो हम इनका  सम्पूर्ण बहिष्कार करेंगे, हम इनकी दुकान, रेड़ियों  से कोई सामान नहीं खरीदेंगे, हम इनको मजदूरी नहीं देंगे। "सांसद ने भी यह बयान दिल्ली के दिलशाद गार्डन में मनीष नामक युवक की हत्या के ख़िलाफ़ आयोजित एक सभा में दिया था। पुलिस का आरोप है कि हत्या जिन युवकों ने की है वे अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। बेशक गुस्सा जायज़ है लेकिन गुस्से के बदले में दो समुदायों को भड़काना भारतीय दंड विधान के तहत अपराध है। मामला दर्ज़ हुआ है लेकिन आयोजक विश्व हिन्दू परिषद के ख़िलाफ़, सांसद पर नहीं। अनुराग ठाकुर पर भी नहीं हुआ था जब उन्होंने 'देश के गद्दारों को...'नारे को गुंजाया था।  नुपूर शर्मा की  नफ़रती भाषा ने भले ही  सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुसीबत में पड़ी हो, अपने नेताओं को 'फ्रिंज एलिमेंट' कहना पड़ा हो, लेकिन गिरफ़्तारी किसी की भी नहीं हुई। नफ़रत की भाषा जारी है। साफ़ है कि बाहर माफ़ी की मुद्रा मजबूरी है और भीतर इन्हें पार्टी की शह है अन्यथा किसी नेता की हिम्मत नहीं कि वह पार्टीलाइन के ख़िलाफ़ जा सके।  

सच तो यह है कि जनता इस खेल से ऊब चुकी है। इस खेल से ऊबकर जो वह  खेलों की दुनिया से ऊर्जा हासिल करना चाहे तो वहां भी सियासत दिखाई देती है। सौरव गांगुली को पटखनी दी जा चुकी है और रोजर बिन्नी बीसीसीआई के नए अध्यक्ष बन चुके हैं। नेताओं के बेटों का कार्यकाल जारी रहेगा, दादा का ख़त्म। शायद यह पार्टी से दूरी का ही परिणाम है। सबके कयास थे कि बंगाल चुनाव से पहले जो महाभोज बेंगाल टाइगर ने अमित शाह के साथ किया था, उसके बाद वे भाजपा  में शामिल हो जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दादा ही अस्पताल में भी दाखिल रहे और भाजपा को मिथुन दा से काम चलाना पड़ा। अमिता शाह के बेटे जय के सचिव बने रहने के साथ यह देखना दिलचस्प होगा कि 1983 के विश्व कप हीरो रोजर बिन्नी रबर स्टाम्प तो नहीं बनते।


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