यह महान दृश्य है चल रहा मनुष्य
सियासी मौसम बदला-बदला सा है। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राज्यपाल खुलकर कह रहे हैं कि मैं 2024 में इन्हें फिर नहीं देखना चाहता। पार्टी के एक केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ नेता भारत को बेहद अमीर देश तो मानते हैं लेकिन उसकी जनता को बहुत गरीब। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाहक ने देश भर में बढ़ती बेरोजगारी और आय में बढ़ती असमानता पर न केवल चिंता जताई है बल्कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने तो नई जनसंख्या नीति बनाने की बात तक कर दी है वर्ना अब तक तो "उधर आबादी बढ़ती जा रही है, इधर बढ़ानी है" कि उत्तेजना ही सम्प्रेषित होती थी। शायद विश्लेषकों की बात समझ आ गई है कि आबादी बढ़ने का सीधा ताल्लुक जहालत से है न कि मज़हब से। यह बहुत ही सकारात्मक है कि देश में ऐसी आवाज़ें अर्से बाद अब फिर सुनाई देने लगी हैं। नफ़रती कीचड़ से सने बोल कहीं बह गए हैं, विसर्जित हो गए हैं। और भी बहुत कुछ बहा है, मसलन किसी को कमतर साबित करने की आईटी सेल की मुहीम। फिर भी घृणा के बीज जो देश में बोए जा चुके हैं, वे चुनावी सियासत वाले राज्यों में खाद-पानी पाने लगते हैं और काटों की तरह लहलहाने लगते हैं। गुजरात ताज़ा मिसाल है। परिवर्तन के इस दौर में सबसे बड़ी पार्टी ने अपने अध्यक्ष का कार्यकाल दो महीने के लिए बढ़ा दिया है और देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने अध्यक्ष को चुनने जा रही है, जबकि इसी पार्टी का एक पूर्व अध्यक्ष कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पद यात्रा पर है जिसे आज पूरा एक महीना हो गया है।
"यह महान दृश्य है / चल रहा मनुष्य है.." ये दो पंक्तियां हरिवंश राय बच्चन की कविता 'अग्निपथ' की हैं जो मनुष्य के चलते रहने को महान दृश्य की संज्ञा दे रही है। चरैवेती चरैवेती संस्कृति के हम नुमाइंदे हैं जो कहती है कि जिसने चल लिया उसने उतार-चढ़ाव के तमाम मौसमों को जी लिया, अपने भीतर आत्मसात कर लिया। उसने पतझड़ भी देखा तो वसंत भी। धूप की आग भी देखी तो बरखा की बूंदें भी। रास्ते की धूल भी माथे पर ली तो,उसी धूल को उड़ा देने वाली हवा भी। आख़िरकार जो इतने बदलाव को जी लेगा वह जीवन के झंझावातों से कहां घबराएगा? फिर उसका हर फैसला तपे कुंदन की दमक वाला होगा। उसमें अंतिम व्यक्ति की अपेक्षा शामिल होगी। वह उसे दरगुज़र नहीं कर पाएगा इसलिए उसके निर्णयों से अन्याय दूर रहेगा। भगवान राम, महावीर, महात्मा बुद्ध, बापू ,आचार्य विनोबा भावे सब की यही तो धरोहर रही। इतनी यात्राएं कर लीं कि फिर कभी इनके व्यवहार में ऐसी चेष्टा नहीं नज़र आई कि किसी व्यक्ति को व्यथित करती हो। यही पदयात्रा की ताकत है।आज जिस विविध भारत को देख दुनिया अचरज करती है उस विविधता को एक सूत्र में बांधने वाली यात्राएं ही रही हैं। यात्राएं जो महान लोगों ने कीं उन्हीं का परिणाम है कि कोई आततायी , कोई फिरंगी, कोई विभाजनकारी इसकी समरसता का कुछ बिगाड़ नहीं पाया। हर कठिन समय में कोई यात्री हमें मिल गया जो हमारी विरासत को हमसे रूबरू कराने के पवित्र मिशन पर जुट गया। वह खुद विलीन हो गया हमें बनाए रखने के लिए।
यात्राएं ऐसे ही मंजर रचती आई हैं, हमारा अतीत तो यही कहता है। राहुल गांधी की पदयात्रा किसी बड़े अध्याय को लिख पाएगी ऐसा कहना अभी जल्दबाज़ी होगी लेकिन जो दृश्य आने शुरू हुए हैं वे स्वाभाविक और प्रभावी हैं। वे केवल यात्रा के दृश्य नहीं, वे प्रकृति के साथ रिश्ता जोड़ते हुए जन-मन से जुड़ने के दृश्य हैं। वे बनाए गए दृश्य नहीं हैं ख़ुद ही बन पड़े हैं और बोल रहे हैं। मुस्कुराते आम जीवन की तस्वीरें, पानी में सर्पीली नाव की दौड़, बारिश की बूंदों के बीच जनता से संवाद ने तो जैसे देखने वालों की बाढ़ ही ला दी। मूसलाधार बारिश भी जनता को दूर नहीं कर रही, वह सुन रही है। उनका अनुवादक उन्हें कन्नड़ भाषा में पूरी बात समझा रहा है उतने ही जोश के साथ। यह महान दृश्य हर चलने वाले को मिल सकते हैं क्योंकि भारत के कण-कण में विविधता है। कोई करोड़ों खर्च करके भी ऐसी मौलिक तस्वीरें नहीं पा सकता। चल लेगा तो शायद पा लेगा। भारत के तो हर गांव में फ़कीर के डेरा डालने और गांववासी के उनके मान की अनगिनत कहानियां हैं। फ़कीर, पथिक, बाबा, महात्मा, साधु जो चलकर आते और गांव में समय बिताते उनके पास रास्तों की सच्ची कहानियां होती थीं जो उन्हें जनप्रिय बना देती थीं। यात्राओं का यही जादू इंसान को बड़ा और स्वीकार्य बना देता है।
एक ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। भूदान आंदोलन के जनक आचार्य विनोबा भावे के मूसलाधार बारिश में जन सैलाब के चित्र भी जादुई प्रभाव पैदा करने वाले थे। अगस्त 1954 में वे समस्तीपुर के एक गांव में थे। इटली के एक छायाकार फ्रैंक होरवाट विनोबा के आंदोलन को लगातार कवर कर रहे थे। विनोबा खुद कमर भर पानी को पार कर यहां पहुंचे थे। यह जल सैलाब को पार कर जन सैलाब से जुड़ने का दृश्य था। छायाकार फ्रैंक ने कोई गलती नहीं की और एक अमिट नज़ारा कैमरे में कैद कर लिया था। बाद में इसी दृश्य को आचार्य विनोबा भावे ने देवदुर्लभ दृश्य कहा था। राहुल गांधी की बारिश में बोलती तस्वीर को भले ही मुख्यधारा के चैनलों ने नहीं दिखाया हो लेकिन इन्हीं के सोशल मीडिया पर बने पोर्टल्स ने इन दृश्यों को ख़ूब दिखाया क्योंकि जनता इस पदयात्रा को देखना चाहती है। गौर करने लायक तो यह भी है कि खुद अंग्रेज़ों को भी पता नहीं था कि नमक पर कर के ख़िलाफ़ निकाली गई महात्मा गाँधी की दांडी यात्रा भीतर ही भीतर स्वराज की लौ को जगा रही है। वे बेख़बर थे लेकिन उनकी ख़ुफ़िया सूचनाएं नहीं बता रही थीं कि बापू के ग़िरफ़्तार होते ही आंदोलन की दूसरी पंक्ति इसे संभाल लेगी।
राहुल गांधी की इस यात्रा के बीच कांग्रेस 19 अक्टूबर को अपना नया अध्यक्ष चुनने जा रही है। शशि थरूर और मल्लिकार्जुन खड़गे में से कोई एक अध्यक्ष का चुनाव जीतेगा। खड़गे गांधी परिवार के माने जा रहे हैं तो थरूर असंतोषी गुट के। बातचीत में थरूर जी-23 के अस्तित्व से इंकार करते हैं लेकिन इसके ख़त्म होने का ज़िक्र भी नहीं करते हैं। अगर गांधी परिवार कह चुका है कि उसका दोनों प्रत्याशियों के लिए समभाव है तो इस पर कोई यकीन नहीं करेगा। खड़गे कभी भी गांधी परिवार से अलग नहीं गए। यदि खड़गे चुन लिए जाते हैं तो वे किस तरह भारतीय जनता पार्टी के जेपी नड्डा से अलग होंगे यह देखना होगा। नड्डा का कार्यकाल बढ़ा दिया गया है। शशि थरूर बाक़ायदा घोषणा पत्र के साथ मोर्चे पर उतरे हैं लेकिन वे अपनी छवि में से जी-23 के साए को मुक्त करते हैं तो चुनावी पासा पलट सकता है।
कुल जमा देश की सियासत इन दिनों एक बेहतर परिदृश्य रख रही है। पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने पत्रकारों से बातचीत में कहा है कि वे 2024 में इस सरकार को नहीं देखना चाहते। वे आंदोलनों का रुख़ करेंगे। किसान, जनता सब परेशान हैं। कश्मीर में आतंकवादी शहर में घुसकर मार रहे हैं, बीएसएफ के जवानों को मार रहे हैं, पुलिस को मार रहे हैं। कोई इनके कंट्रोल में नहीं हैं। कश्मीर के राज्यपाल रहे मलिक का यह कहना बताता है कि हालात सरकार के क़ाबू में अब भी नहीं आए हैं। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी साफ़ शब्दों में कह दिया है कि हम भले ही दुनिया में पहली पांच अर्थव्यवस्था होने का दावा करें लेकिन देश में अमीर-ग़रीब के बीच खाई बढ़ी है। सरकार को आईना दिखाने में गडकरी के साथ आरएसएस के दत्तात्रेय होसबोले भी जुड़ गए हैं। उन्होंने कहा है कि एक तरफ़ तो भारत छह सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और दूसरी तरफ यहां के 23 करोड़ लोग हर दिन 375 रुपए से भी कम कमाते हैं। शीर्ष के एक फ़ीसदी लोगों के पास राष्ट्र की 20 फ़ीसदी आय है। ज़ाहिर है कि हालात सबको बोलने पर मजबूर कर रहे हैं। लगभग वैसी ही बात कि सरकार चंद अमीर लोगों पर ज़िम्मेदारी सौंप कर खुद निश्चिंत हो गई है। बस यही तो शेष सबको भी कहना है। सबकी भागीदारी और सबकी मज़बूती के लिए सरकार को सोचने पर मजबूर करना है।
*(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)*
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