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ऐसा क्या है बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री में

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आखिर कोई भी सरकार कभी भी प्रतिबंध,रोक या बैन का सहारा क्यों लेती हैं ताकि देश में अमन चैन बना रहे,व्यवस्था भंग ना हो तब क्या हालिया चर्चित बैन से यह लक्ष्य हासिल हो रहा है ? व्यवस्था तो भंग होती दिख रही है ,छात्र गिरफ्तार हो रहे हैं। तब क्या वजह थी कि बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री 'इंडिया: द मोदी क्वेश्चन' जो 2002 के गुजरात दंगों से लेकर आज तक के भारत में मुसलमानों के हालात और नरेंद्र मोदी से उनके रिश्तों पर आधारित है, उसे बैन कर दिया गया। रोक के बाद तो जैसे देशभर में इसे देखने की चाहत और भी बढ़ गई है। विश्वविद्यालयों में छात्रों ने इसके खास शो आयोजित किए ,पुलिस ने छात्रों को गिरफ्तार किया। छात्रों की यह गिरफ्तारी पूरी दुनिया में हेडलाइन बन रही है। यह भी तब, जब डॉक्यूमेंट्री को बीबीसी ने भारत में रिलीज़ ही नहीं किया था । फिर भी सरकार ने रोक लगाई जिससे डॉक्यूमेंट्री को और प्रचार मिला। तब क्या सरकार खुद ऐसा चाहती थी ? क्योंकि हमने देखा है कि ऐसे विवाद में सरकार चुप बनी रहती है और प्रवक्ता उन्मुक्त हो जाते हैं। उसे पता है इस सब से उसकी हिन्दू हृदय सम्राट की छवि को फायदा मिलता है ? क्या

तुम्हारी डॉक्यूमेंट्री की ऐसी तैसी बीबीसी

 ये बीबीसी को क्या पड़ी है भई हमारे अंदरूनी मामलों में दखल देने की। तुम क्या पाकिस्तान और क्या नई बात बता दी तुमने कि हमारे देश के मुखिया के मुसलमानों से ताल्लुक अच्छे नहीं हैं। नहीं हैं तो नहीं हैं। क्या उन्होंने ऐसा कोई दावा किया कभी? कभी वोट चाहे उनके? टिकट नहीं देना उनको, नहीं देते। अभी गुजरात के चुनाव में भी साफ साफ तो बोल दिया कि 2002 के बाद से चुप बैठे हैं ये दंगाई।  80 और 20 में भरोसा की बात भी किसी से राज़ नहीं रखी उन्होंने। बुल्डोजर तो बहुत ही सनन चलता हैं। नागरिकता का डर भी उन्हें ऐसा दिखाते हैं कि औरतें बच्चे भरी सर्दी में शाहीन बाग में धरने पर बैठ जाते हैं। मस्जिद तो कई साल पहले ही ढहा दी थी।  अब ये बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री बताएगी क्या कि हमें क्या करना है और क्या नहीं? हमें सब पता है कि तुम अंग्रजों के जुल्मों पर फिल्म नही बनाओगे। हत्यारे डायर को भी कुछ नहीं बोलोगे।अब जब हमारी सरकार का कॉन्फिडेंस सातवें आसमान पर पहुंच चुका है तो तुम ये डॉक्यूमेंट्री ले आए और वो भी इतना डर के कि हमारे देश में रिलीज करने की हिम्मत ही नई हुई तुम्हारी। क्या हुआ जो बलवे में दो तीन तुम्हारे ब्रि

खुल गई नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान

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अगले हफ्ते देश आज़ादी के पचहत्तरवें साल में संविधान के लागू होने की वर्षगांठ मनाने जा रहा है। 26 जनवरी 1950 को लागू हुए हमारे संविधान में हमने भारत की तमाम विविधताओं के साथ उन कायदों को चुना जहां नागरिक के बुनियादी हक़ और जीने की आज़ादी सर्वोपरि हो। हर नागरिक को ऐसे अधिकार मिले कि वह भारतीय नागरिक होने पर फ़ख़्र महसूस कर सके,रोज़ी कमा सके, देश में भाईचारा हो, फिरकों में अमन हो। ऐसा है और हर नागरिक ऐसा महसूस करता है तो संविधान ने अपना लक्ष्य पा लिया है लेकिन अगर नागरिक ऐसा नहीं महसूस कर पा रहे हैं तो अभी हम लक्ष्य से दूर हैं और हमें और काम करने की ज़रुरत है। संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर ने कहा था -"राष्‍ट्रवाद तभी औचित्‍य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नस्‍ल या रंग का अन्‍तर भुलाकर उनमें सामाजिक भ्रातृत्‍व को सर्वोच्‍च स्‍थान दिया जाये।" इस सप्ताह हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी की बैठक में जो बातें कहीं हैं वह ताज़गी से भरी और उम्मीद जगाने वाली हैं और नफ़रत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलने जैसी ही मालूम होती हैं। प्रधामंत्री ने भाजपा कार्यकर्ताओं की बैठक में जो क

डंडे वालों को दंड से डर लगता है!

हर सरकार की फ़ितरत होती है कि सब कुछ उसके नियंत्रण में हो। हाथ में जादू का एक ऐसा डंडा हो जिसे वह जब चाहे, जैसे चाहे इस्तेमाल कर सके। इसकी कल्पना हमारे पूर्वजों और फिर संविधान निर्माताओं को रही होगी शायद इसीलिए उन्होंने दंड विधान का सिद्धांत तो रखा ही, साथ ही ऐसी व्यवस्था भी रखी कि सत्ता इसमें शामिल तो रहे लेकिन सीधे-सीधे दखल न दे सके। अब जो दिखाई दे रहा है वह यह कि सत्ता इसमें दाख़िल भी होना चाहती है और दखल भी देना चाहती है। डंडे के सामने मौजूद दंड उसे खटक रहा है। इसकी शुरूआत तो तब ही हो गई थी जब नए बने उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने अपने भाषण में जजों की नियुक्ति के संबंध में सदन में अपना संदेह व्यक्त किया था। उन्होंने पूछा था कि आख़िर किस हैसियत से सर्वोच्च न्यायालय ने जजों की नियुक्ति वाले विधेयक को ख़ारिज किया था। क़ानून मंत्री के बयान तो पहले से ही लक्ष्मण रेखा से जुड़कर आ ही रहे थे। हैरानी की बात तो यह है कि जो सरकारें क़ानून के ज़रिये अपना इक़बाल बुलंद रखते हुए , जनता के बीच उसका पालन सुनिश्चित करती थी, वे ही सरकारें अब न्याय व्यवस्था से दो-दो हाथ किये बैठी हैं। क्या लोकतंत्र की सेहत के लि

हमने माना कि LGBTQ का वजूद रहा है

अगले साल देश में आम चुनाव हैं। नेता और उनके दल अभी से मतदाताओं को प्रभावित करने में लग गए हैं। कोई बांटकर अपना वोटबैंक बढ़ाना  चाहता है, तो कोई सबको साथ लेकर चलने की दिशा में देश जोड़ने की यात्रा पर निकल जाता है। यह मतदाता को तय करना है कि कौन कितना ईमानदार है और किसके इरादे उसे नेक नज़र आते हैं। बयानों की भूख में जीने वाले मीडिया को  हिन्दू-मुसलमान का मुद्दा खूब भाता है। यही उसकी पसंदीदा डिश है और  वह उसे खाता ही चला जाता है। फिर इतना खाता है कि अपच का शिकार भी हो जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत के हालिया आए बयान के साथ भी यही हो रहा है। बल्कि वह तो एक साक्षात्कार है जिसे उन्होंने अपने संगठन के ही मुखपत्र 'पाञ्चजन्य' और 'आर्गेनाइज़र' (क्रमशः हिन्दी और अंग्रेजी) को दिया है। एक लम्बा  साक्षात्कार, जिसमें उन्होंने कई मुद्दों पर बातें की हैं। संघ से महिलाओं को जोड़ने के मसले पर भी लेकिन सबसे अलग जिस पर बात की है वह है समलैंगिक समुदाय जिसे दुनिया एलजीबीटीक्यू के नाम से संबोधित करती है। यह जवाब बहुत महत्वपूर्ण है। अब तक के नज़रिये से अलग और पौराणिक

दिल में लॉक हो जाते हैं कला के दृश्य और गीत

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 कला एक ऐसा चलचित्र है जिसे देखने के बाद मन देर तक खड़े होकर ताली बजाने का करता है। हर दृश्य किसी बड़ी पेंटिंग सा गहरा और हर शब्द मीठा जैसे शहद। गीत के बोल जैसे कल कल बहती नदी और संगीत उसमें बहा ले जाने को आतुर। क्रेडिट्स में जैसे ही आप कबीर,वाजिद अली शाह,स्वानंद किरकिरे ,वरुण ग्रोवर के नाम पढ़ते हैं उम्मीद बढ़ जाती है। स्वानंद और वरुण तो अपने अभिनय से भी गहरी छाप छोड़ते हैं। शायर मजरूह यानी वरुण जब तीसरे अंतरे की तारीफ के जवाब में कहते हैं कि तीसरा अंतरा कौन सुनता है, इसे तो रेडियो वाले भी नहीं बजाते।इसमें तो आप लाश भी लटका दें तो कोई खोज नहीं पाए। पिछले अर्से में संवाद और गीत पर ऐसा काम कम ही हुआ है। मानव मन और मस्तिष्क भले ही बारीक तंतुओं से बना है लेकिन ये धागे इतने उलझे हुए हैं कि अपने सबसे प्रिय का भी दिल दुखाने से बाज़ नहीं आते । संवेदनशील कलाकारों की दुनिया के भीतर के ये तंतु कुछ और नर्म और नाज़ुक होते हैं। कला का उफान फिर समेटा नहीं जा पाता। बच्चा अपनी मां की आंखों में अपने लिए सिर्फ  प्यार देखना चाहता है और वह जब उसे नहीं मिल पाता तो उसकी दुनिया में तूफान मच जाता है। कला में

नोटबंदी फैसला :चारागर ख़ुद ही बेचारे नज़र आने लगे

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उर्दू शायरी में एक शब्द 'चारागर' अक्सर सुनाई दे जाता है। खासकर उस संदर्भ में जब चारागर  मर्ज़ जानते हुए भी मरीज का इलाज ना करे। इसके मायने डॉक्टर या चिकित्सक से है जो बीमार को दवा देता हो। शकील बदायुनी का एक शेर देखिये -किस से जा कर मांगिये दर्द-ए-मोहब्बत की दवा /चारागर अब ख़ुद ही बेचारे नज़र आने लगे। नोटबंदी पर छह साल बाद आया फैसला कुछ ऐसी ही बेचारगी से भरा मालूम होता है। हर चारागर से मिली  नाउम्मीदी को रेखांकित करता है। सवाल वहीं का वहीं है कि आखिर वह सब क्या और क्यों  था जो जनता को यकायक परेशानी में डाल गया। आठ नवंबर 2016 की रात पांच सौ और एक हज़ार के नोटों के गैरकानूनी हो जाने की घोषणा केवल घोषणा नहीं थी ,यह फैसला अपने चुने हुए लोकप्रिय नेता पर उस विश्वास और भरोसे का टूटना भी था जो जनता ने उन  पर किया था।    उसने कभी नहीं  सोचा था कि    यह नोटबंदी उसे अपने ही धन के  इस्तेमाल से रोक देगी। उसकी  ज़िन्दगी थम जाएगी, काम रुक जाएंगे क्योंकि यह कुल नगदी का 85 फीसद थी । इसके अलावा जो नोट चलन में थे वे केवल पंद्रह फीसदी थे। यह कैसे और क्यों मान लिया गया कि यह नगदी किसी मेहनतकश और ईमानद

नोटबंदी फ़ैसला: काश जनता की पीड़ा भी झलकती

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बेतरतीब और बेतुकी बातों के लिए हरी झंडी अब व्यवस्था की नई शैली है। फ़ैसले, बयान, टिप्पणियां चाहे तकलीफदेह, जानलेवा और बेतरतीब हों, लेकिन वे सही हैं। नफरती बयानों  के लिए भी नेता ख़ुद ज़िम्मेदार है। किसी सरकार या पार्टी का इसमें कोई लेना-देना नहीं। लेना-देना केवल तब होगा जब अधिकारी इसे व्यवस्था में शामिल करें। बयानबाज़ी का फैसला मंगलवार को आया और इससे ठीक एक दिन पहले अपने ऐतिहासिक फैसले में नोटबंदी भी सही ठहरा दी गई है। सरकार भी सही है, सबसे ऊंची अदालत भी सही है, ग़लत वे करोड़ों लोग हैं जो रातों-रात कतारों में लगा दिए गए। लाखों को उनके पवित्र या मांगलिक कार्यों के लिए भी उनका अपना धन नहीं मिला। हज़ारों अनजान लोग आधी-अधूरी जानकारी के साथ ताबड़तोड़ अपने बड़े नोट खर्च करने निकल पड़े। सैकड़ों इस फ़ैसले के बाद असमय काल के ग्रास बन गए। हैरानी इस बात की भी है कि किसी यमदूत की तरह अचानक प्रकट हुई इस नोटबंदी के फ़ायदे अब तक कोई नहीं गिना पाया। बस, सुनतेआए हैं कि कालाधन समाप्त हो गया, अर्थव्यवस्था कैशलेस हो गई, आतंकवाद, नक्सलवाद और जाली नोटों का नेटवर्क सब नेस्तानाबूद हो गया।  क्या वाकई ऐसा हुआ? नोटबंदी को वैध