दिल में लॉक हो जाते हैं कला के दृश्य और गीत


 कला एक ऐसा चलचित्र है जिसे देखने के बाद मन देर तक खड़े होकर ताली बजाने का करता है। हर दृश्य किसी बड़ी पेंटिंग सा गहरा और हर शब्द मीठा जैसे शहद। गीत के बोल जैसे कल कल बहती नदी और संगीत उसमें बहा ले जाने को आतुर। क्रेडिट्स में जैसे ही आप कबीर,वाजिद अली शाह,स्वानंद किरकिरे ,वरुण ग्रोवर के नाम पढ़ते हैं उम्मीद बढ़ जाती है। स्वानंद और वरुण तो अपने अभिनय से भी गहरी छाप छोड़ते हैं। शायर मजरूह यानी वरुण जब तीसरे अंतरे की तारीफ के जवाब में कहते हैं कि तीसरा अंतरा कौन सुनता है, इसे तो रेडियो वाले भी नहीं बजाते।इसमें तो आप लाश भी लटका दें तो कोई खोज नहीं पाए। पिछले अर्से में संवाद और गीत पर ऐसा काम कम ही हुआ है।

मानव मन और मस्तिष्क भले ही बारीक तंतुओं से बना है लेकिन ये धागे इतने उलझे हुए हैं कि अपने सबसे प्रिय का भी दिल दुखाने से बाज़ नहीं आते । संवेदनशील कलाकारों की दुनिया के भीतर के ये तंतु कुछ और नर्म और नाज़ुक होते हैं। कला का उफान फिर समेटा नहीं जा पाता। बच्चा अपनी मां की आंखों में अपने लिए सिर्फ  प्यार देखना चाहता है और वह जब उसे नहीं मिल पाता तो उसकी दुनिया में तूफान मच जाता है। कला में पहाड़ की बर्फ और उसका सौन्दर्य किसी पात्र जितना ही प्रभावी और खूबसूरत है। कथानक आज़ादी से थोड़ा पहले का है। दृश्यों में देश की पहली महिला फोटोग्राफर होम्मई व्यरवाला को देखना भी सुखद है। मरहूम इरफ़ान खान के बेटे बाबिल खान को देखकर लगता है कि क्या कला के पास एक शरीर से दूसरे में जाने का हुनर भी होता है। उनकी आवाज़ भी असर पैदा करती है। कला के क़िरदार में तृप्ति  डिमरी आत्मा का आभास दे जाती हैं। स्वस्तिका मुखर्जी मां की भूमिका में कई परतों को खोल जाती हैं पर ओहदा की ऊंचाई भी नहीं खोतीं। मनुष्य अपने डर और ख्वाहिशों में इस कदर घिरा होता है कि जीवन के असली प्रवाह को ही भूल जाता है। झूठे सपनों को चखने में इतना मशगूल कि फिर शहद भी खट्टा लगने लगता है। कथा में गुरुबाणी  की इन्हीं पंक्तियों को क्या खूब गाया है

पैर लंबे निक्की चदरां .. कफ़न ने पूरा ढकणा.. सपने तू झूठे चखदा फिरदा.. शहद भी खट्टा लगदा। लेखक निर्देशक अन्विता दत्त की कला कमाल है और लिखते हुए मैंने पूरी कोशिश की है कि मैं कला की कहानी न लिख जाऊं।

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