नोटबंदी फैसला :चारागर ख़ुद ही बेचारे नज़र आने लगे



उर्दू शायरी में एक शब्द 'चारागर' अक्सर सुनाई दे जाता है। खासकर उस संदर्भ में जब चारागर  मर्ज़ जानते हुए भी मरीज का इलाज ना करे। इसके मायने डॉक्टर या चिकित्सक से है जो बीमार को दवा देता हो। शकील बदायुनी का एक शेर देखिये -किस से जा कर मांगिये दर्द-ए-मोहब्बत की दवा /चारागर अब ख़ुद ही बेचारे नज़र आने लगे। नोटबंदी पर छह साल बाद आया फैसला कुछ ऐसी ही बेचारगी से भरा मालूम होता है। हर चारागर से मिली  नाउम्मीदी को रेखांकित करता है। सवाल वहीं का वहीं है कि आखिर वह सब क्या और क्यों  था जो जनता को यकायक परेशानी में डाल गया। आठ नवंबर 2016 की रात पांच सौ और एक हज़ार के नोटों के गैरकानूनी हो जाने की घोषणा केवल घोषणा नहीं थी ,यह फैसला अपने चुने हुए लोकप्रिय नेता पर उस विश्वास और भरोसे का टूटना भी था जो जनता ने उन  पर किया था।  उसने कभी नहीं  सोचा था कि  यह नोटबंदी उसे अपने ही धन के  इस्तेमाल से रोक देगी। उसकी  ज़िन्दगी थम जाएगी, काम रुक जाएंगे क्योंकि यह कुल नगदी का 85 फीसद थी । इसके अलावा जो नोट चलन में थे वे केवल पंद्रह फीसदी थे। यह कैसे और क्यों मान लिया गया कि यह नगदी किसी मेहनतकश और ईमानदार की न होकर केवल काली कमाई थी ? भारत में बाजार हो या व्यवहार नकद ही चलन में रहा। पांच में से एक जज साहिबा को अवश्य  जनता की पीड़ा दिखी जो उनके अपने फैसले में मुखरता से उभरती  भी है। 

बीते सोमवार को एक ऐतिहासिक फैसले में नोटबंदी सही 
ठहरा दी गई है। सरकार भी सही है,सबसे ऊंची अदालत 
भी सही है ,ग़लत वे करोड़ों लोग हैं जो रातों रात कतारों 
में लगा दिए गए ,लाखों को उनके पवित्र कार्यों के लिए
 भी उनका अपना धन नहीं मिला,हज़ारों ग़रीब 
आधी-अधूरी जानकारी के साथ ताबड़तोड़ अपने बड़े नोट खर्च करने निकल पड़े और वे सैकड़ों जो इस फ़ैसले के बाद असमय काल के ग्रास बन गए। वे सब गलत हैं। हैरानी इस बात की भी है कि किसी यमदूत की तरह लागू हुई इस नोटबंदी के फ़ायदे अब तक कोई नहीं गिना पाया ,बस सुनतेआए हैं कि कालाधन समाप्त हो गया,अर्थव्यवस्था कैशलेस हो गई ,आतंकवाद,नक्सलवाद और जालीनोट सब  नेस्तानाबूद हो गया। क्या वाकई ? नोटबंदी को वैध ठहराने का फ़ैसला  कोई वैसी नज़ीर तो नहीं पेश कर रहा है जहां डॉक्टर ने अपने मरीज़ के त्वचा रोग का इलाज तो कर दिया लेकिन भीतर पनपते कैंसर को नज़रअंदाज़ कर गया हो । केवल जस्टिस बीवी नागरत्ना की इस अनायास हुई नोटबंदी से जुड़े फैसले पर अलग राय थी। बेशक  लोकतंत्र में असहमत आवाज़ की अपनी महत्ता है फिर यह तो उनकी 124 पेज की टिप्पणी है। जस्टिस नरीमन अपनी एक किताब में लिख चुके हैं कि असहमति के फैसले उस क़यामत का अंदाजा लगा सकते हैं जो बहुमत वाले जजमेंट के कारण समाज पर आने वाली है। 


आठ नवंबर 2016 को हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था के चक्के इस उम्मीद में रोक दिए गए कि आगे सबकुछ शानदार होगा। इरादा नेक भी रहा हो तब भी देश की जनता ने जो भोगा है उसका बहीखाता कौन देखेगा ? लोकतंत्र में जनता ने जिसे चुनकर भेजा था वह संसद में था, उस सांसद की आवाज़ ही  अनसुनी कर दी गई ? क्यों एक संवैधानिक संस्था रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने बिना अपना दिमाग लगाए 24 घंटे में नोटबंदी अपनी सहमति दे दी और हर पत्राचार में यही लिखा  कि जैसा सरकार ने चाहा। जस्टिस नागरत्ना ने यही सब लिखा है। संसद शामिल नहीं थी ,संवैधानिक संस्था आरबीआई रही भी तो महज़ औपचारिक तौर  पर तो आखिर यह निर्णय था किसका और क्या गारंटी है कि  निर्णय लेने वाला  आगे ऐसे निर्णय नहीं लेगा। पांच जजों की खंडपीठ में से चार ने इस पर मुहर लगा दी । ज़ाहिर है सरकार चलानेवाला क्यों नहीं चाहेगा कि उसके पास ऐसी शक्ति हमेशा रहे  जिसका इस्तेमाल वह कर सके। पिछली सरकारों में ऐसे फैसले लिए गए हैं लेकिन पूरी नोटबंदी पहली बार हुई है यानी 85 फ़ीसदी मुद्रा का चलन से रोक दिया जाना । इससे पहले नोटों की सीरीज को चलन से बाहर किया गया जो केवल पांच फ़ीसदी के करीब ही बाजार में थे। इस सरकार ने नोटबंदी  की तब भी इसे अलादीन का  चिराग़ बताया और अब भी यही कर रही है। यह और बात है कि पार्टी को चुनाव प्रचार में गिनाने लायक यह नहीं लगी। सवाल यही है कि क्या आवाम की तकलीफ़ यहां कोई मायने नहीं रखती ? 

लोक को यूं बेहाल कर देना ही लोकतंत्र है ? उसकी पीड़ा फैसले में एक टिप्पणी की भी हैसियत नहीं रखती फिर  हम कहें कि हम लोकतंत्र निभानेवाले सबसे बड़े देश हैं। वह राजस्थान के पुष्कर में नौ नवंबर 2016 का दिन था यानी रात आठ बजे नोटबंदी की घोषणा के बाद का अगला दिन। पुष्कर मेला सजा हुआ था। पशुओं की ख़रीद-बिक्री होनी थी लेकिन किसी को समझ नहीं आ रहा था कि नोट लें या नहीं। इस मैले में या इन तमाम मेलों में कारोबार कैश में ही होता आया था ,ग्रामीण कैश लाए भी थे लेकिन कारोबार बंद था । पांच सौ और हज़ार के नोट चलन से रोक दिए गए थे। कोई पशु न बिका रहा था ना ख़रीदा जा रहा था । ढाबे वाले केवल सौ और उससे छोटे नोट ही ले रहे  थे। घूमने आए परिवार एक दूसरे से मिलकर नोट इकट्ठे कर रहे थे। जितने इकट्ठे हुए उतने का ही खाना खाया । खाना था ,भूख भी थी लेकिन व्यवस्था को चलाने वाले नोट बंद थे इसलिए सब थम गया था। देश की नब्ज़ रूकती हुई मालूम हो रही थी। जनता  खुद के हालात को वेंटिलेटर पर रखा पा रही थी । 

हो सकता है कि आज छह साल बाद सरकार का खज़ाना भरा हो। टैक्स देनेवालों की तादाद बढ़ी हो लेकिन सवाल यह उठता है कि इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए देश को यूं उलट-पलट देने का हक़ किसी को होना चाहिए क्या ? काले धन का हिसाब इतने सतही ढंग से आना चाहिए था क्या जबकि 99 फीसदी धन बैंकों में वापस आ गया हो ? मां ,दादी-नानी की थोड़ी -सी जमा पूंजी पर यूं शक करते हुए उन्हें कतारों में लगा दिया जाना चाहिए था क्या ? काम ना मिलने या फिर उसकी मज़दूरी के एवज में कैश ना मिल पाने वजह से किसी ग़रीब का चूल्हा यूं बूझना चाहिए था क्या ? छुट्टे काम और नौकरियों पर यूं गाज गिरनी चाहिए थी क्या ? कतारों में खड़े लोगों की जान जानी चाहिए थी क्या ? इन कतारों की तकलीफ को सियाचिन में हमारे जवान लड़ रहे हैं जैसे जुमलों के साथ जोड़ा जाना चाहिए था क्या ? हां यही तर्क था कि सियाचिन में हमारे जवान लड़ रहे हैं आप थोड़ी सी परेशानी नहीं झेल सकते। यह खाए पिए लोगों के तर्क थे गरीब का जीवन तो रोज़ का सियाचिन है। पवित्र इरादों और तरीकों के नाम पर देश को यूं झंझावातों में झोंक दिया जाना चाहिए कैसे सही ठहराया जा सकता है ? । 
 
आमतौर पर निम्न मध्यमवर्गीय घरों में स्त्रियां अपनी बचत को कभी मर्तबान में, कभी तकिये में और कभी संदूकों के कौनों में छिपा कर रखती रही हैं  क्योंकि बैंकों के ज़रिये बचत की आदत उन्हें कभी दी नहीं गई। घर से बाहर निकलना उनके लिए हमेशा ही  मुश्किल रहा था । नोटबंदी कई अड़चनें अपने साथ लाई थी।  ये सब जमा धन जब सामने आया तो पति ने उन्हें पीट भी दिया। राज्यों में अपराध के रेकॉर्ड बताते हैं कि घरेलू हिंसा के आंकड़े उस दौरान दौगुने हो गए। भोपाल के वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर  में उन दिनों आने वाले फ़ोन की संख्या डबल हो गई। पचास प्रतिशत महिलाओं की शिकायत थी कि उनके साथ हिंसा हुई और पति ने धमकी दी कि तुम्हें अब जेल जाना पड़ेगा क्योंकि तुमने जो नोट छुपा रखे थे, वे अवैध हो गए हैं। फैसले को अदालत ने भले ही वैध करार दे दिया हो लेकिन महिलाओं की यह छोटी सी जमा पूँजी अवैध घोषित हो गई थी।  

सही है कि इन दुर्दिनों को पलटना आसान नहीं। सब बीत चुका है लेकिन एक हिदायत की उम्मीद फिर जनता कहाँ करे। संवैधानिक संस्थाओं से इतर आस किससे हो। राजे रजवाड़ों के समय से ही भारतीय मानस भाग्य को कोसता आया है। आज़ाद भारत में भी उसके लिए क्या बदला है।  छह साल बाद पांच सदस्यीय पीठ का फैसला 4:1 से आ गया है कि जो हुआ था सब  विधि सम्मत है लेकिन जिन एक जज की आवाज़ इस फैसले से अलग है उसे ज़रूर सुना जाना चाहिए। जस्टिस बी वी नागरत्ना  का सवाल है कि आरबीई बोर्ड उस वक्त क्या कर रहा था ? यह सवाल आरबीई  स्वतन्त्र संसथान होने पर भी संदेह खड़े करता है । जस्टिस नागरत्ना यह भी दर्ज़ करती हैं कि नोटबंदी का पहला कदम  केंद्र की तरफ से था और बाद में आरबीआई से सहमति मांगी गईं। उन्होंने यह भी दर्ज़ किया कि आरबीआई बार बार लिखता है कि जैसा सरकार ने चाहा या सुझाव दिया इसका मतलब आरबीआई ने खुद अपने स्वतन्त्र दिमाग का कोई उपयोग  नहीं किया और केवल 24 घंटे में इसे लागू कर दिया गया । उन्होंने यह भी लिखा कि नोटबंदी संसद में कानून बनाकर की जानी चाहिए थी। न कि सिर्फ एक नीटिफिकेशन से। फ़ैसला अवैध है। 


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