नोटबंदी फ़ैसला: काश जनता की पीड़ा भी झलकती

बेतरतीब और बेतुकी बातों के लिए हरी झंडी अब व्यवस्था की नई शैली है। फ़ैसले, बयान, टिप्पणियां चाहे तकलीफदेह, जानलेवा और बेतरतीब हों, लेकिन वे सही हैं। नफरती बयानों  के लिए भी नेता ख़ुद ज़िम्मेदार है। किसी सरकार या पार्टी का इसमें कोई लेना-देना नहीं। लेना-देना केवल तब होगा जब अधिकारी इसे व्यवस्था में शामिल करें। बयानबाज़ी का फैसला मंगलवार को आया और इससे ठीक एक दिन पहले अपने ऐतिहासिक फैसले में नोटबंदी भी सही ठहरा दी गई है। सरकार भी सही है, सबसे ऊंची अदालत भी सही है, ग़लत वे करोड़ों लोग हैं जो रातों-रात कतारों में लगा दिए गए। लाखों को उनके पवित्र या मांगलिक कार्यों के लिए भी उनका अपना धन नहीं मिला। हज़ारों अनजान लोग आधी-अधूरी जानकारी के साथ ताबड़तोड़ अपने बड़े नोट खर्च करने निकल पड़े। सैकड़ों इस फ़ैसले के बाद असमय काल के ग्रास बन गए। हैरानी इस बात की भी है कि किसी यमदूत की तरह अचानक प्रकट हुई इस नोटबंदी के फ़ायदे अब तक कोई नहीं गिना पाया। बस, सुनतेआए हैं कि कालाधन समाप्त हो गया, अर्थव्यवस्था कैशलेस हो गई, आतंकवाद, नक्सलवाद और जाली नोटों का नेटवर्क सब नेस्तानाबूद हो गया। 

क्या वाकई ऐसा हुआ? नोटबंदी को वैध ठहराने का फ़ैसला कोई वैसी नज़ीर तो नहीं पेश कर रहा है जहां एक डॉक्टर ने अपने मरीज़ की त्वचा के रोग का इलाज तो कर दिया लेकिन भीतर कैंसर पनपने लगा था जो उससे पूरी तरह से नज़रअंदाज़ हो गया। केवल एक जज साहिबा जस्टिस बीवी नागरत्ना की इस अनायास हुई नोटबंदी और नेताओं के बेतुके बयानों से जुड़े फैसलों में अलग राय थी। बेशक, लोकतंत्र में असहमत आवाज़ की अपनी महत्ता है। फिर यह तो उनकी 124 पेज की टिप्पणी है। 

आठ नवंबर 2016 को हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था के चक्के इस उम्मीद में रोक दिए गए कि आगे सब कुछ शानदार होगा। इरादा नेक भी रहा हो, तब भी देश की जनता ने जो भोगा है वह बही-खाता कौन देखेगा? लोकतंत्र में जनता ने जिसे चुनकर भेजा था वह संसद में था, उस सांसद की आवाज़ क्योंकर अनदेखी व अनसुनी की गई? क्यों संवैधानिक संस्था रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने बिना अपना दिमाग लगाए 24 घंटे में अपनी सहमति दे दी और हर पत्राचार में यही लिखा कि जैसा सरकार ने चाहा। जस्टिस नागरत्ना ने यही सब लिखा है। संसद नहीं, संवैधानिक संस्था आरबीआई रही भी तो महज़ औपचारिक तौर पर। तो आखिर यह निर्णय था किसका? और जिस किसी का भी था तो क्या गारंटी है कि वह आगे भी ऐसे निर्णय नहीं लेगा। पांच जजों की खंडपीठ में से चार ने इस पर मुहर लगा दी है कि कोई चाहे तो आगे भी ऐसे निर्णय ले सकता है। ज़ाहिर है कि सरकार चलाने वाला क्यों नहीं चाहेगा कि उसके पास ऐसी शक्ति हो जिसका इस्तेमाल वह कर सके। पिछली सरकारों में ऐसे फैसले लिए गए हैं लेकिन पूरी नोटबंदी पहली बार हुई है यानी 85 फ़ीसदी मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया गया। इससे पहले नोटों की सीरीज को चलन से बाहर किया गया जो केवल पांच फ़ीसदी के करीब ही बाजार में थे। सरकार ने नोटबंदी की तब भी इसे 'अलादीन का चिराग़' बताया था और अब भी यही कर रही है। यह और बात है कि पार्टी को चुनाव प्रचार में गिनाने लायक यह कतई नहीं लगी। सवाल यही है कि क्या आवाम की तकलीफ़ यहां कोई मायने नहीं रखती? 

क्या लोकतंत्र को यूं बेहाल कर देना ही लोकतंत्र है? उसकी पीड़ा फैसले में एक टिप्पणी की भी हैसियत नहीं रखती फिर हम कहें कि हम लोकतंत्र निभाने वाले सबसे बड़े देश हैं। वह राजस्थान के पुष्कर में 9 नवंबर, 2016 का दिन था यानी रात आठ बजे नोटबंदी की घोषणा के बाद का अगला दिन। पुष्कर मेला सजा हुआ था। पशुओं की ख़रीद-बिक्री होनी थी लेकिन किसी को समझ नहीं आ रहा था कि नोट लें या नहीं। इस मेले में या इन तमाम मेलों में कारोबार कैश में ही होता आया था। ग्रामीण कैश लाए भी थे लेकिन कारोबार बंद था। पांच सौ और हज़ार के नोट चलन से रोक दिए गए थे। कोई पशु न बिक रहा था और न ही ख़रीदा जा रहा था । ढाबे वाले केवल सौ और उससे छोटे नोट ही ले रहे  थे। घूमने आए परिवार एक दूसरे से मिलकर नोट इकट्ठे कर रहे थे। जितने इकट्ठे हुए उतने का ही खाना खाया। खाना था, भूख भी थी, लेकिन व्यवस्था को चलाने वाले नोट बंद थे। इसलिए सब कुछ थम गया था। देश की नब्ज़ रूकती हुई मालूम हो रही थी। जनता खुद के हालात को वेंटिलेटर पर रखा हुआ पा रही थी। 

हो सकता है कि आज छह साल बाद सरकार का खज़ाना भरा हो। टैक्स देने वालों की तादाद बढ़ी हो, लेकिन सवाल यह उठता है कि इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए देश को यूं उलट-पलट देने का हक़ किसी को होना चाहिए क्या? काले धन का हिसाब इतने सतही ढंग से आना चाहिए था क्या, जबकि 99 फीसदी धन बैंकों में वापस आ गया हो? मां, दादी-नानी की थोड़ी सी जमा पूंजी पर यूं शक करते हुए उन्हें कतारों में लगा दिया जाना चाहिए था क्या? काम न मिलने या फिर उसकी मज़दूरी के एवज में कैश न मिल पाने की वजह से किसी ग़रीब का चूल्हा यूं बुझना चाहिए था क्या? छुट्टे काम और नौकरियों पर यूं गाज गिरनी चाहिए थी क्या? कतारों में खड़े लोगों की जान जानी चाहिए थी क्या? इन कतारों की तकलीफ को "सियाचिन में हमारे जवान लड़ रहे हैं" जैसे जुमलों के साथ जोड़ा जाना चाहिए था क्या? हां, यही तर्क था कि "सियाचिन में हमारे जवान लड़ रहे हैं। आप थोड़ी सी परेशानी नहीं झेल सकते?" यह खाए-पिये लोगों के तर्क थे। गरीब का जीवन तो रोज़ का सियाचिन है। पवित्र इरादों और तरीकों के नाम पर देश को यूं  झंझावातों में झोंक दिये जाने को कैसे सही ठहराया जा सकता है? देश ने उन दिनों सब झेला जिसमें  कोविड महामारी ने आकर हालात को और नासूर कर दिया । 

आम तौर पर निम्न मध्यमवर्गीय घरों में स्त्रियां अपनी बचत को कभी मर्तबान में, कभी तकिये में और कभी संदूकों के कोनों में छिपाकर रखती रही हैं क्योंकि बैंकों के ज़रिये बचत की आदत उन्हें कभी दी नहीं गई। घर से बाहर निकलना उनके लिए हमेशा ही मुश्किल रहा था। नोटबंदी कई अड़चनें अपने साथ लाई थी। कुछ मामलों में तो घरवालों की आंखों से छिपकर जमा किया हुआ धन जब सामने आया तो पति ने उन्हें पीट भी दिया। राज्यों में अपराध के रेकॉर्ड बताते हैं कि घरेलू हिंसा के आंकड़े उस दौरान दौगुने हो गए। भोपाल के वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर में उन दिनों आने वाले फ़ोन की संख्या दोगुनी  हो गई। पचास प्रतिशत महिलाओं की शिकायत थी कि उनके साथ हिंसा हुई और पति ने धमकी दी कि "तुम्हें अब जेल जाना पड़ेगा क्योंकि तुमने जो नोट छुपा रखे थे, वे अवैध हो गए हैं।" फैसले को अदालत ने भले ही वैध करार दे दिया हो लेकिन महिलाओं की यह छोटी सी जमा पूँजी अवैध घोषित हो गई थी।  

नोटबंदी ने भारतीय घरों में कई दर्द भरी कहानियां लिख दी थीं। मिसाल देखिये- उस दिन मुन्नू का बापू सुबह से ही चिल्ला रहा था कि "पिछले साल जब नई  साइकिल के लिए पैसे मांगे तब कहने लगी कि नहीं हैं मेरे पास। मुन्नू  की मां, तुमसे तो भगवान ही निपटेगा!" मुन्नू  की मां ने जैसे ही मुंह खोला कि पिछली बार जब दिए थे, तुम दारू पीकर पड़े रहे थे कित्ते दिन।" मुन्नू का बापू उसकी ओर लपकते हुए चिल्लाया- "ज़बान लड़ाती है? चल निकल यहाँ से, बैंक जा और  नोट बदलवा!" मुन्नू  की माँ बच्चे को लेकर घर से निकल गई और मुन्नू  का बापू दुखी होकर घर में पसर गया। उसका मजदूरी के लिए चोखटी पर जाने का टाइम निकल चुका था। मुन्नू  की मां  बिना खाए-पिए लगातार कुछ दिनों तक बैंक की लम्बी लाइन में लगती रही। मुन्नू  को बिस्कुट का पैकेट लेकर दे देती थी। कुछ दिनों में पैसे मिलने की बात कहकर उन दिनों बैंकों ने दिन-रात लोगों के पैसे जमा किये। कतार में खड़े बुज़ुर्ग की जान भी गई।सही है कि इन दुर्दिनों को पलटना आसान नहीं। सब बीत चुका है लेकिन एक हिदायत की उम्मीद फिर जनता किस से करे? संवैधानिक संस्थाओं से इतर आस किससे हो? राजे-रजवाड़ों के समय से ही भारतीय मानस भाग्य को कोसता आया है। आज़ाद भारत में भी उसके लिए क्या बदला है?  छह साल बाद पांच सदस्यीय पीठ का फैसला 4:1 से आ गया है, कि जो हुआ था सब विधि सम्मत है लेकिन जिन एक जज की आवाज़ इस फैसले से अलग है उसे ज़रूर सुना जाना चाहिए। शायद यह वही आवाज़ है जो उन दिनों आकुल-व्याकुल घरों से सुनी गई थी। 

जस्टिस बीवी नागरत्ना  का सवाल है कि आरबीई बोर्ड उस वक्त क्या कर रहा था? यह सवाल आरबीआई  के स्वतन्त्र संस्थान होने पर भी संदेह करता है। जस्टिस नागरत्ना यह भी दर्ज़ करती हैं कि नोटबंदी का पहला कदम केंद्र की तरफ से था और बाद में आरबीआई से सहमति मांगी गईं। उन्होंने यह भी दर्ज़ किया कि आरबीआई बार-बार लिखता है कि जैसा सरकार ने चाहा या सुझाव दिया। इसका मतलब आरबीआई ने खुद अपने विवेक का कोई उपयोग नहीं किया और केवल 24 घंटे में नोटबंदी को लागू कर दिया गया। उन्होंने यह भी लिखा कि नोटबंदी संसद में कानून बनाकर की जानी चाहिए थी, न कि सिर्फ एक नोटिफिकेशन से। फ़ैसला अवैध है। जस्टिस नागरत्ना ने ही नेताओं के अपशब्दों के खिलाफ पांच जजों की खंडपीठ के सर्वसम्मत निर्णय में भी एक टिप्पणी की है। तीन  जनवरी को आए फैसले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, “नागरिकों के अधिकारों के विपरीत एक मंत्री द्वारा दिया गया बयान मात्र एक संवैधानिक अपकृत्य नहीं होता है, लेकिन यदि यह एक सरकारी अधिकारी द्वारा चूक या अपराध का कारण बनता है तो वह संवैधानिक अपकृत्य है। जस्टिस नागरत्ना ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बहुत आवश्यक अधिकार है ताकि नागरिकों को शासन के बारे में अच्छी तरह से सूचित और शिक्षित किया जा सके। यह हेट स्पीच में नहीं बदल सकता। दरअसल यह असहमति ही लोकतंत्र का मूल आधार है। वक्त आने पर यही फैसला भी बन जाया करती है और फिर क़ानून। न्यायालय के फैसलों से पहले बात उस फैसले की है जो जनता के विश्वासपात्र ने लिया। जनता के भरोसे की इस टूटन को फैज़ अहमद फैज़ का शेर यूं ज़ुबां देता है-

बे-दम हुए बीमार दवा क्यों नहीं देते 

तुम अच्छे मसीहा हो शफ़ा क्यों नहीं देते

(देशबंधु में प्रकाशित मेरा लेख)





टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

सौ रुपये में nude pose

एप्पल का वह हिस्सा जो कटा हुआ है