खुल गई नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान



अगले हफ्ते देश आज़ादी के पचहत्तरवें साल में संविधान के लागू होने की वर्षगांठ मनाने जा रहा है। 26 जनवरी 1950 को लागू हुए हमारे संविधान में हमने भारत की तमाम विविधताओं के साथ उन कायदों को चुना जहां नागरिक के बुनियादी हक़ और जीने की आज़ादी सर्वोपरि हो। हर नागरिक को ऐसे अधिकार मिले कि वह भारतीय नागरिक होने पर फ़ख़्र महसूस कर सके,रोज़ी कमा सके, देश में भाईचारा हो, फिरकों में अमन हो। ऐसा है और हर नागरिक ऐसा महसूस करता है तो संविधान ने अपना लक्ष्य पा लिया है लेकिन अगर नागरिक ऐसा नहीं महसूस कर पा रहे हैं तो अभी हम लक्ष्य से दूर हैं और हमें और काम करने की ज़रुरत है। संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर ने कहा था -"राष्‍ट्रवाद तभी औचित्‍य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नस्‍ल या रंग का अन्‍तर भुलाकर उनमें सामाजिक भ्रातृत्‍व को सर्वोच्‍च स्‍थान दिया जाये।" इस सप्ताह हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी की बैठक में जो बातें कहीं हैं वह ताज़गी से भरी और उम्मीद जगाने वाली हैं और नफ़रत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलने जैसी ही मालूम होती हैं।


प्रधामंत्री ने भाजपा कार्यकर्ताओं की बैठक में जो कहा वह इसलिए भी मायने रखता है क्योंकि यहां कोई ऐसी मजबूरी नहीं थी। उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से कहा कि मुस्लिम समाज के बारे में गलत बयानबाजी न करें। कई के बयान अमर्यादित होते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। किसी भी जाति-संप्रदाय के खिलाफ बयान नहीं देना चाहिए। प्रधानमंत्री ने चुनाव को लेकर यह भी कहा कि हमें सक्रिय रहना है और आत्ममुग्ध नहीं होना है। कोई यह नहीं समझें कि मोदी आएगा और जीत दिला देगा। हमें इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा। बोहरे, पसमांदा मुस्लिम और पढ़े -लिखे मसलमानों तक भी हमें हमारी नीतियां लेकर जानी है। चार सौ दिन पहले ही चुनाव की उल्टी गिनती शुरू करते हुए पीमए ने कहा कि फ़िल्मो के विरोध और बयानबाज़ी से भी भाजपा कार्यकर्ताओं को बचना चाहिए। दरअसल यह बयान इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक साक्षात्कार में कहा था कि अब बाहर से नहीं अंदर से लड़ाई है। हिन्दू धर्म ,हिन्दू संस्कृति ,हिन्दू समाज की सुरक्षा का प्रश्न है ,उसकी लड़ाई चल रही है। अब विदेशी लोग नहीं हैं, पर विदेशी प्रभाव है, विदेश से होने वाले षड्यंत्र हैं। इस लड़ाई में लोगों में कट्टरता आएगी। नहीं होना चाहिए फिर भी उग्र वक्तव्य आएंगे। तब क्या नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत के बयान परस्पर विरोधी हैं या यही कोई नई नीति है। खैर देश के प्रधानमंत्री की बात पर किसी को भी कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए। वजह चाहे जो रही हो संकेत अच्छे हैं क्योंकि भारत भूमि ऐसे ही सद्भाव का दूसरा नाम है।
शायर इक़बाल के गीत सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा की दो पंक्तियां हैं
यूनानो मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकी नामों निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर ए ज़मां हमारा


भारत की ताकत और क्षमता को बताती ये पंक्तियां कहती है कि बुलंद प्राचीन सभ्यता के लिए पहचान रखने वाली ग्रीक,रोम और इजिप्शियन सभ्यताएं मिट गई लेकिन हमारे यहाँ कुछ ऐसा रहा है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। यह कोई आठ -दस या सत्तर साल की बात नहीं है सदियों का सांस्कृतिक प्रवाह है जो हमारा कद ऊंचा किये हुए है। लेखक विचारक सच्चिदानन्द सिन्हा के अनुसार मिस्र की सभ्यता सिंचाई और स्थापत्य कला में बेजोड़ थीं। ईसा के तीन हज़र्र साल पहले मिस्र ने शौर्य और स्थापत्य में जो प्रतिमान स्थापित किये वह आज भी चकित करते हैं। रोम की अनोखी नगर निर्माण योजना ,जल निकासी ,सड़क निर्माणऔर भव्य एम्फीथिएटरों का निर्माण उसके इंजीनियरिंग कौशल का प्रतीक थे। इस सब से बढ़कर थी उनकी फौज लैजनों की अनुशासित शक्ति। इसी तरह यूनान ने मूर्तिकला और चित्रकला में ऐसी ऊँचाई हासिल की जहाँ पहुंचना आज भी कलाकारों को मुश्किल लगता है। यूनानी संस्कृति रेनैसां से लेकर अब तक यूरोपीय कला के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है। इतना ही नहीं गणित,विज्ञान ,दर्शन,राजनीति शास्त्र ,इतिहास लेखन आदि की नींव भी इस सभ्यता ने डाली लेकिन जिस कारण इस सभ्यता का प्रचार फैला वह थी सिकंदर की बहादुरी और सैनिक दक्षता। सिकंदर ने बहुत थोड़े वक्त में ही मिस्र और रोम के विशाल साम्राज्यों को रौंद डाला और भारत तक आ गया। मिस्र , रोम और यूनान तीनों में उनकी प्राचीन सभ्यता की निरंतरता कायम नहीं रह पाई केवल भारत ही है जहाँ आज भी भारतीय मनीषा के गहरे तल में उसके प्राचीन संस्कार विराजमान है। भारत की यह सांस्कृतिक निरंतरता बनी रही जिसके दो कारण रहे हैं एक तो भारत में अनेक मानव समुदायों के विशेष पारस्परिक सम्बन्ध और दूसरा उन आदर्शों का चुनाव जो भारतीय जीवन को संचालित करते हैं।


यूं तो प्राचीन भारतीय परंपरा समझने के लिए बहुत विस्तार की मांग करती है लेकिन अलग-अलग कालखंड में अलग-अलग मानवीय समुदाय से भारत वर्ष का नाता उसे सशक्त और विशाल पहचान देता है। यहाँ जो आया वह कभी इसी में तो कभी खास तरह की जातीय व्यवस्था बना कर बस गया। इस क्रम में कोल, द्रविड़,आर्य ,शक, हूण, पठान, तुर्क, अरब आदि अनेक कबीले यहाँ आए और भारत की जीवन धारा में विलीन हो गए। इसके विपरीत यूरोप में कबायली समूह एक जगह से दूसरी जगह गए तो उन्होंने या तो स्थानीय समूहों को भगा दिया या ख़त्म कर दिया। भारत से जुड़ने का क्रम उसके बाद भी थमा नहीं। पारसी यहूदी ,तिब्बती सब आते गए यहाँ की संस्कृति से जुड़ते गए। यह सच है कुछ समय पहले तक यह जो फ़ख़्र का बायस था अब नहीं है। एक वर्ग आज कहने लगा है कि हम एक हज़ार साल से एक युद्ध में रहे हैं। नज़रिये की ऐसी दो ध्रुवीय भिन्नता अजीब है कि हम सद्भाव में रहे हैं इसलिए अनूठे रहे हैं और दूसरी ये कि हमने सबको आने दिया इसलिए आज तक उन्माद में हैं। यह सियासत है।


आज दो भारत दिखाए जा रहे हैं। भारतीय नागरिक की शक्ति को कम किया जा रहा है। शायद इसलिए ही भारत जोड़ो यात्रा चर्चा में आ गई। इसकी इतनी ज़रूरत महसूस की जा रही थी कि जनाधार खो चुकी कांग्रेस को जैसे नई संजीवनी मिल गई। यह भाजपा के कमज़ोर होने के बाद का नतीजा नहीं था, देश में व्याप्त असंतोष और बांटने की भावना ने भारत जोड़ो यात्रा को सफल बना दिया। जो देश इतने कबीलों ,इतने फिरकों,इतनी जातियों और नस्लों से मिलकर एक सम्प्रभु राष्ट्र बना हो, वहां अलगाव की बात लंबे समय तक नहीं चल सकती। भारत की गोदी में वास्तव में कई संस्कृतियों ने सांस ली है और उससे अलग कर के देखना उसकी धड़कनों से छेड़छाड़ करना होगा । उसकी बुनाई कोई उधेड़ नहीं पाया। कई आए और चले गए लेकिन कबीर की झीनी झीनी बीनी चदरिया जतन कर के सबने ओढ़ी फिर जस की तस रख दी।
 
हम दुनिया में अपनी इसी संस्कृति का परचम ही तो लहराते आए हैं। कुछ साल पहले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में एक जर्मन लेखिका आई थीं। उनका नाम था कोर्नेलिया फूंके। वे अपने देश की लोक कथाओं पर बात कर रही थीं। जब उनसे भारत के बारे में सवाल किया गया तो आँखों को हैरत में डाल कर बोलीं यह तो कई देशों का एक देश है और इसे किसी एक शैली में बांध पाना नामुमकिन है। जाहिर है भारत कभी किसी को यह आसानी नहीं देता ।जब इसके ताने-बाने को चोट पहुंचती है तब दुनिया बातें भी करती हैं,फिर हमें प्रतिबंध का सहारा लेना पड़ता है। बीबीसी ने 2002 के गुजरात दंगों पर एक डॉक्यूमेंट्री 'इंडिया: द मोदी क्वेश्चन' रिलीज की है। फिल्म भारत में रिलीज़ नहीं हुई लेकिन इसके कुछ हिस्से यू ट्यूब पर आ गए थे। भारत सरकार ने इसे एकतरफा औपनिवेशिक मानसिकता बताकर प्रतिबंधित कर दिया। डॉक्यूमेंट्री में तीन ब्रिटिश नागरिकों की मौत का हवाला है जी हिंसा में मारे गए थे। तब के ब्रितानी विदेश सचिव जैक स्ट्रॉ से बातचीत भी है जो कहते हैं कि ब्रिटैन की सरकार ने तब एक जांच समिति का गठन कर टीम को भारत भिजवाया था। टीम ने एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी जिसके अनुसार तत्कालीन गुजरात सरकार ने हिंसा को बढ़ावा देकर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया था। बेशक जो बीत गई सो बात गई होना चाहिए। अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने चुनाव से चार सौ दिन पहले अपने कार्यकर्ताओं को जोड़ने का मंत्र दिया है। यह हर भारतीय को जोड़ने से जुड़ा भी होना चाहिए। एक एक का नाम लेकर क्या जोड़ना क्योंकि भारतीयता शांति और प्रेम से जीने का नाम है। यही इसका इतिहास भी कहता है। नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान जब पीएम खोलेंगे तो खूब चलेगी।




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