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तुम तो पढ़ी-लिखी काबिल थीं

काबिल डॉक्टर की खुदकुशी से पहले लिखी गई चिट्ठी समाज से भी कई सारे सवाल करती है  कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका नाम क्या है और वह किस शहर की है। फर्क पड़ता है तो उसके खत से जो उसने खुदकुशी से पहले अपने फेसबुक अकाउंट पर समाज को संबोधित करते हुए लिखा है। फर्क पड़ता है इस बात से कि वह पढ़ी-लिखी काबिल एनेस्थेटिस्ट युवा थी। फर्क पड़ता है कि जिस कॅरिअर को हासिल करने के लिए उसने कड़ी मेहनत की होगी उसने उसे एक  पल में मिटा दिया। वह व्यक्ति उसका पति था। पति-पत्नी दोनों डॉक्टर। हैरानी होती है कि चिकित्सक होते हुए भी वह अपने शारीरिक रुझान को समझ नहीं पाया। अठारह अप्रेल के खतनुमा फेसबुक स्टेटस में उसने लिखा है कि उसका पति समलैंगिक था। शादी के पांच सालों में दोनों के  बीच कोई संबंध नहीं बना और जब वह पति के समलैंगिक संबंधों को भांप गई तो पति ने उसे प्रताड़ित  करना शुरू कर दिया। युवती का खत महसूस कराता है कि वह अपने पति से बहुत प्रेम करती थी उसका यह व्यहार उसके बरदाश्त से बाहर हो रहा था। वह लिखती है कि मैं सिर्फ उसका साथ चाहती थी अगर कोई समस्या भी है तो हम मिलकर सुलझा सकते थे, लेकिन मैं ऐसा कर पाने में न

मार्गरीटा चखने से पहले

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मार्गरीटा चखने से पहले कुछ लिखा था दोस्तों एक फिल्म ने रिलीज से पहले ही अखबार, टीवी चैनल्स, सोशल मीडिया को बाध्य कर दिया है कि वह इस मुद्दे पर सोचे और बात करे। मुद्दा सेरिब्रल पल्सी नामक बीमारी से जुड़ा है, जिसमें मरीज के  दिमाग का वह हिस्सा चोटग्रस्त या कमजोर होता है जो संतुलन और गति को बनाए रखता है। मसल्स सख्त हो जाती हैं। मरीज बोलने, करवट लेने में तकलीफ महसूस करता है और कभी-कभी इसका असर आंखों पर भी देखा जा सकता है। प्रति एक हजार पर 2.1 ब"ो सेरिब्रल पल्सी का शिकार होते हैं। एक और बहस साथ में चलती है कि विकलांग और अपंग को फिजिकली डिसएबल्ड ना कहा जाए इन्हें डिफरेंटली एबल्ड कहा जाए यानी इनमेेंं ऐसी असमर्थता है, तो कई ऐसे गुण भी हैं जो इन्हें समर्थ बनाते हैं। बेशक लेकिन हमारा सारा जोर एबल्ड या समर्थ बनाने की ओर ही क्यों है? इतने सक्षम बनो कि जीवन की रफ्तार से कदम मिला सको। हम आम बच्चों  को तो इस रफ्तार में धकेल ही रहे हैं इन बच्चों  को जिन्हें कुदरत ने कुछ अलग नेमत देकर भेजा है वे भी इसी दौड़ में शामिल कर लिए हैं। कुदरत ने ऐसे बच्चों  को बड़ा ही सुंदर दिल बख्शा होता है। ये हरेक स

ये लाडली न रीझती है न रिझाती

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अक्सर हम टीवी विज्ञापनों का जिक्र इसी हवाले से करते हैं कि ये आज भी स्त्री की छवि को एक प्रोडक्ट की तरह ही इस्तेमाल करते हैं। बेचना चाहे शेविंग क्रीम या कच्छे-बनियान हो, स्त्री इस अंदाज में प्रस्तुत की जाती है जैसे दूसरे पक्ष पर रीझने और रिझाने के अलावा उसकी कोई भूमिका ही नहीं। वक्त बदला है और स्त्री की बदलती हुई छवि को विज्ञापन की दुनिया ने भी स्वीकारना सीखा है। थिएटर तो हमेशा से ही प्रगतिशील रहा है। फिल्में भी यदा-कदा अपनी मौजूदगी का एहसास करा देती हैं लेकिन चंद सेकंड्स की इन विज्ञापन फिल्मों का बदलना बड़ा बदलाव है। एक ऋण देने वाली बैंक के विज्ञापन पर गौर कीजिए। तेज बारिश में एक बेटी अपनी बुजुर्ग मां को अस्पताल ले जाने के लिए ऑटो वालों की मिन्नतें करती है लेकिन कोई नहीं चलता। कुछ दिनों बाद यही लड़की फिर एक ऑटो वाले को रोकती है कि भैया एमजी रोड चलोगे? ऑटो वाला मुस्कुराते हुए कहता है-'हां' क्वीन के लिए डाय ना हेडन ने लाड़ली अवार्ड   लिया    मेरे  कॉलम खुशबू की पाती को भी मिला  लाडली नेशनल अवार्ड  lataji ki aur se in search of lata ke lekhak harish bhimani ne awa