एक ख़त, मई दिवस १९८१ का

यह ख़त एक लड़की का है. मुम्बई डेटलाइन से. मुझे तब मिला होता तो मेरे लिए सिर्फ नीले कागज़ का पुर्जा भर होता . कोई ताल्लुक इस ख़त से नहीं है लेकिन इस ख़त की खुशबू मुझे बहुत अपील करती है. मुझे अच्छा लगता है कि कोई कितनी शिद्दत से जिया है उन पलों को. उन सरोकारों को. पहले वह ख़त और फिर पानेवाले कि तात्कालिक प्रतिक्रिया जो उसी ख़त के हाशिये पर लिख दी गयी है.

प्रिय .........

आपका पत्र २९ को मिला, टेलीग्राम कल और फ़ोन भी कल ही . इन सारी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद. कल शाम को तो मैं सारा सामान उठा कर दरवाज़े से बहार निकलने को ही थी कि आपका फ़ोन आया . धन्यवाद.

जन्मदिन ठीक ही रहा. दिन भर दफ्तर , शाम खार में एक छोटे बच्चे कि जन्दीन पार्टी में

आज मजदूर दिवस के उपलक्ष्य में सबको छुट्टी थी लेकिन हमारे दफ्तर में तो सबने बराबर मजदूरी की है . गर्मी आज अचानक ही बढ़ गयी है और काम करना भी मुश्किल हो रहा था. खैर इस वक्त तो मैं अपने कमरे में हूँ . मेरी रूम मेट्स पढ़-पढ़ कर परेशान हो रही हैं और मुझे देखकर उन्हें बड़ी कोफ़्त हो रही है. आपकी शुभकामनाएँ उन तक पहुंचा दी हैं और अब उनका धन्यवाद आप तक पहुंचा रही हूँ.

शुभकामनाएँ ..........

आज सुबह आपका एक और कार्ड मिला जो आपने २८ अप्रैल को पोस्ट किया था. इतने सारे माध्यमों से बधाई! आश्चर्य हो रहा है . खैर..... धन्यवाद

अब जो पत्र पाने वाले ने हाशिये पर लिखा है

में क़ुबूल करता हूँ

रोज़ बरोज़ मैंने


देखा है तुम्हारा ख्वाब


देखा है


नीला बेहद नीला और खुला आसमान


गाते मुस्कुराते हरे-हरे ऊंचे पेड़


लगातार चहकती चिड़ियाएँ


और मौसम में


भरपूर बरखा

ताकि कहीं कुछ

सूखा न बचे .

टिप्पणियाँ

  1. "ताकि कहीं कुछ
    सूखा न बचे"


    वाह क्या कहने !!

    जवाब देंहटाएं
  2. मौसम में भरपूर बरखा ...
    ताकि कुछ सूखा ना बचे ...
    खुशबू इस ख़त की और हाशिये पर लिखी कविता की यहाँ तक आ रही है ...फुर्सत में हो तो देखिएगा ...डायरी में दर्ज़ एक शाम से कितनी मिलती जुलती है ...!!

    जवाब देंहटाएं
  3. ताकि कहीं कुछ

    सूखा न बचे .

    बहुत गहराई है, सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं
  4. theek ek maheene baad likha hai aapne. achcha laga padhkar
    thanx

    जवाब देंहटाएं
  5. वर्षा जी, ख़त की, कविता की कुछ पंक्तियाँ बहुत कुछ कह रही हैं

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी पोस्ट को मैंने कल के दिन दो बार पढ़ा था.
    आज सुबह फिर से पढ़ा ताकि उन दिनों के 'सत' को सही सही समझ सकूँ. अभी कुछ लगने लगा है कि इस कथा के पात्र किस तरह से दिखाई देते होंगे. एक तपते दिन में किस तरह से शब्दों और कार्ड्स के माध्यम से राहतें बरसी होंगी. ख़त की भाषा को पढ़ कर एक चरित्र सजीव हो उठा है तो सोचता हूँ कि लोग इतने रूखे कैसे हो जाया करते हैं? कितने सारे प्रयासों पर, मन की गहराइयों से निकले उदात्त भावों पर कोई ये लिखे कि "आज सुबह आपका एक और कार्ड मिला जो आपने २८ अप्रैल को पोस्ट किया था. इतने सारे माध्यमों से बधाई! आश्चर्य हो रहा है . खैर..... धन्यवाद"

    और धन्यवाद के सिवा कुछ भी नहीं ?

    लेकिन फिर भी वह लिखता है उन रूखे बेजान शब्दों पर सुंदर कविता और खाली नहीं छोड़ता उसकी ज़िन्दगी का हाशिया भी... उसे भर देना चाहता है प्यार से.
    सच है कि कुछ लोग पत्थर से भी अधिक सख्त हुआ करते हैं उनके सानिध्य से लगी रगड़ से जो स्मृतियां शेष रहती हैं वे सिर्फ टीस पैदा करती है.
    हाँ इस पोस्ट में मई दिवस पर जो उम्दा बात है वह मुझे प्रभावित करती है. बस कि ऐसे ही होना चाहिए ज़िक्र मजदूरी और मजदूर का, किसी नाटक, प्रदर्शन या तमाशे की जगह पर. ऐसे ही होनी चाहिए ज़िन्दगी में मई दिवस के लिए जगह...

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

सौ रुपये में nude pose

एप्पल का वह हिस्सा जो कटा हुआ है