बंदिनी की कविता और बिंदासी का आतंक

आंग सान सू की  और राखी सावंत। इन दो स्त्रियों में कोई  जोड़ नहीं, कोई समानता नहीं। एक फख्र तो दूसरी फिक्र। एक दो दशक तक नजरबंद रहकर भी अर्श पर तो दूसरी आधे दशक से अपनी देह और शब्दों से चीखते रहने के बावजूद फर्श पर। क्या पब्लिसिटी और काम पाने की लालसा के मायने यही रह गए हैं कि जितनी बकवास कर सकते हो, करो। सामने बैठे को रौंद दो अपनी जहरबुझी जुबां से। एक कम पढ़ी-लिखी कुंठित स्त्री चैनल और टीआरपी के खेल में किस कदर इस्तेमाल हो सकती है, इसकी मिसाल है राखी सावंत। सलाह दी जा सकती है कि मत देखो। अव्वल तो यह कुतर्क है। आदिम युग से ही देखने और बोलने की चाहत रही है इनसान की। यह अनंत और अराजक है। भाषा और देह की मर्यादा गढऩे की जरूरत भी तभी से महसूस हुई होगी।

आज इस दौर में सब ताक पर है। विध्वंस मचा रखा है इन चैनलों ने। कलर्स के बिग-बॉस को सुहागरात बेचकर टीआरपी कमानी है। इमेजिन को नपुंसक कहकर मार डालना है, बिंदास टीवी को ‘चक्करों’ का भंडाफोड़ दिखाना है, सोनी को कॉमेडी सरकस  में भद्दे इशारों के साथ द्विअर्थी सवांद बोलने हैं। जिंदा इनसानों के बीच इस कसाईनुमा आचरण की पैरवी कौन कर रहा है?
देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी आती थीं ‘आपकी कचहरी’ लेकर। जाति मसलों, क्रूरता पर बात उसमें भी होती थी, लेकिन बात कहने का सलीका होता था। एक मानसिक तौर पर परिपक्व और संयत व्यक्तित्व का तरीका। पत्नी से देह व्यापार करवाने वाले पति से लेकर क्रूर सास तक के बारे में उन्होंने कचहरी का फैसला सुनाया। यहां तो इंसाफ करने वाली राखी खुद अपने ही जीवन में अनिर्णय की शिकार हैं । जो भी करती हैं , उस पर खुद  का ही यकीन नहीं। चैनल पर शादी भी रचाई। टीआरपी तो बढी़, शादी रसातल में चली गई। सदियों पुरानी स्वयंवर की अवधारणा को चूर-चूर कर स्वयं कहीं पहुंच गईं और वर कहीं। दरअसल, ये चैनल ऐसे अपराध रच रहे हैं, जो कानून की सीमा-रेखा से बहुत परे हैं। एक समूची पीढ़ी को वे पथभ्रष्ट कर रहे हैं। हम मध्यमवर्गीय परिवारों ने जिस टीवी और केबल कनेक्शन को अपनी बैठक का अनिवार्य हिस्सा बना रखा है, उससे मुक्त होने  का  वक्त आ गया है। वरना विदेशी तर्ज पर स्त्री-पुरुष के अंतरंग दृश्यों को देखने के लिए तैयार रहना होगा । वहां ऐसा रिएलिटी शो चल रहा है और यह सब होगा  प्राइम  टाइम पर। देर रात और प्राइम टाइम का फर्क मिटा दिया है इन चैनलों ने. बिग बॉस में हालीवुड से पामेला को लाकर इन्होने अपने इरादे भी ज़ाहिर कर दिए हैं. मार्केट से पैसा उगाना है. गोरी देह रास्ते आसान करती है  और तो और कार्टून्स तक में बच्चों को बहलाया और बहकाया जा रहा है। वाकई केबल नाम के वाइरस के उठावने का यही सही समय है।
बात पड़ोसी देश की महान स्त्री की। आंग सान सू की [६५] को रिहाई मिल गई है। अपने बच्चों से दूर सू के पास कोई फोन ,इन्टरनेट नहीं था. पति का केंसर से देहांत[१९९९] हो चुका है और  बेटों को बर्मा आने की इजाज़त नहीं थी. म्यांमार (बर्मा) को अंग्रेजों से आजाद कराने वाले आंग सान की बेटी बर्मा को सैनिक शासन से मुक्त करा वहां लोकतंत्र के बीज रोपना चाहती हैं।   नोबल शांति पुरस्कार विजेता के लिए यह आसान नहीं, क्योंकि दुनिया के ही दो रवैए हैं। स्वशासी चीन तमाम प्रतिबंधों से मुक्त, जबकि बर्मा जकड़ा हुआ। हाथ, गले और बालों में फूल सजाए सू की उम्मीद जिंदा है। कभी पिआनो से गहरा नाता रखनेवाली  सू की एक कविता


मेरा घर...


जहां मैं पली-बढ़ी
बेहद खूबसूरत व अपना था
अब वहां अंधेरा व दहशत है।


मेरा परिवार...

जहां मेरा वजूद बना
बेहद खुश और जिंदा था
आज वहां भय और आतंक है

मेरे दोस्त ...


जिनसे मैंने जिंदगी साझा की
बेहद पवित्र और मस्त थे
अब टूटे दिलों से जी रहे हैं।


एक आजाद पंछी...


जो अभी-अभी आजाद हुआ है
कैद से
अब उड़ रहा है
अपनी प्रिय जगह के लिए
जैतून की डाली के साथ
आजाद पंछी आजाद बर्मा की ओर।

मुझे क्यों लडऩा पड़ रहा है?

टिप्पणियाँ

  1. अन्दर तक हिला दिया आपके इस लेख ने, वाकई बहुत चिंताजनक विषय है, ये भी बहुत अच्छा कहा आपने कि " एक फख्र तो दूसरी फिक्र" हमें कुछ तो करना चाहिए, वरना नयी पीढ़ी सचमुच गर्त में चली जाएगी!

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  2. आंग सां सू का व्यक्तित्व और चरित्र दोनों ही प्रभावशाली हैं ...
    अच्छा आलेख ...अखबार में पढने के बाद मैं इसका लिंक देने वाली थी अपने ब्लॉग पर ...अच्छा हुआ कि यही लिखा मिल गया ..
    आभार !

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  3. ek aakash doosra paatal........ aaj ke daur ki bhyanakta dekh rooh kaanp jati hai... aalam ye hai ki kabhi aankhon me gurur bharker hum kiran bedi ki baat sunate the , ab bachche achanak hilaker poochte hain - 'kahan gum ho?' pata nahi , saaree soch stabdhta ki sthiti me hai

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  4. होना तो जिक्र भी नहीं चाहिये, कम से कम फिक्र तो है हमें।

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  5. ये विषय मैं उठाने जा रही थी लेकिन अब उठाया है और सही तरीके से तो पुरानावृत्ति कि आवश्यकता नहीं है. राखी सावंत को अगर किरण बेदी की तरह उतारना चाहा तो ये मूर्खता है . इन चैनलों पर अब कोई अंकुश नहीं रह गया है. वैसे मैं इनमें से कुछ भी नहीं देख पाती हूँ लेकिन कभी कभी तो नजर पड़ ही जाती है. आज कल राखी द्वारा अपमानित किये गए झाँसी के युवक द्वारा आत्महत्या के मामले में राखी और उनके कार्यक्रम को आलोचना का विषय बना दिया है और ठीक भी है. न्याय करने का अधिकारी कौन होता है? इसके बारे में अगर ये चैनल के सञ्चालन कर्ता नहीं जानते हैं तो फिर ऐसे चैनलों कि आवश्यकता ही नहीं है. आने वाली पीढ़ी को बचाने कि चिंता हर अभिभावक को करनीहोगी.
    आंग सान सू के व्यक्तित्व को नमन है . उनकी अभिव्यक्त कविताएँ उनके अंतर से निकली हुईं है और उनके दर्द को समझाने के लिए चाँद लाइने ही काफी हैं. ऐसे व्यक्तित्व को नमन.

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  6. सू का सम्‍पूर्ण जीवन प्रेरणादायी है। इस पोस्‍ट में काहे को घालमेल की? ऐसे चरित्र के साथ सूर्पणखां को जोड़ दिया। जैसे रियल्‍टी शो भारत में आ रहे हैं वैसे मैंने अमेरिका में तो नहीं देखे और देशों का पता नहीं। यहाँ ही ज्‍यादा आग लगी है। खैर अब रात 11 ब‍जे की पाबन्‍दी तो लगी है, देखो क्‍या होता है?

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  7. क्या होगा यह सब लिखने से, क्या प्रोग्राम बंद हो जायेंगे ? या हम देखना छोड़ देंगे ? देर रात अब दिखने की कवायद है... मुझे समझ नहीं आता की ये देर रात क्या होता है?

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  8. सबसे पहले तो मैं वाणी जी का आभार व्यक्त करना चाहूंगी जिन्होंने मुझे आपके इस सधे हुए आलेख तक पहुँचाया..

    इस सार्थक आलेख की प्रशंशा किन शब्दों में करूँ,मैं समझ नहीं पा रही..
    एकदम मेरे मन की कह दी आपने..
    वर्तमान की स्थिति ने मन इतना व्यथित कर रखा है कि क्या कहूँ...कैसे कर के किस तरह से अपसंस्कृति देश में ये टी वी फैला रहे हैं,देख कर मन आक्रोश से भर जाता है..जिनमे समझ है जिनके संस्कार इतने गहरे हैं,वे अच्छे बुरे का फर्क समझ पायेंगे,पर नाम पैसे और प्रसिद्दी का जो फार्मूला आज का यह टी वी माध्यम सिद्ध कर रहा है,हम कितनी उम्मीद रख सकते हैं कि चुन्धियाये दिमाग वाले भ्रमित किशोर और युवा पीढी यह भान रख पायेंगे..

    चाहे पंद्रह प्रश्नों पर पांच करोड़ रुपये का जुआ खिलवा रहे कार्यक्रम हों या नाच गाने,भूत प्रेत,प्रेम प्रसंग वाले रियलिटी शो जो दिखा रहे हैं,जो सिखा रहे हैं सीधे सीधे संस्कृति पर आक्रमण नहीं है ???? अंतहीन धारावाहिक तो ऐसे ही नकारात्मकता का स्लो प्वाइजन रोज असंख्य दिमागों तक पहुंचा रहे हैं...

    पहले अंगरेजी भाषा को बिछा मानसिक रूप से सबको गुलाम बनाया और अब बची खुची जो थोड़ी बहुत संस्कृति के प्रति आस्था है,उसको नष्ट कर हमें क्या बना दिया जा रहा है...और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इस सबको हमारी सरकार का वरदहस्त प्राप्त है...

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  9. सभी लोगो के मन की बात कह दी |अगर इन प्रोग्रामो को नहीं देखते है या नहीं देखना चाहते है तब भी समाचार चैनलों पर इनकी झलकिया ?इतने बार दिखाई जाती है की वमन करने का मन होता है |समाचार चैनलों की क्या जिमेवारी है ?समाचार देना ?धरावाहिको को दिखाना ?क्या पैसा कमाना ही इनका ध्येय है \ये कैसी निरंकुशता है ?

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  10. आप हमेशा अच्छा ही लिखती हैं. आपने बड़ी बारीकी से चीजों को पहले ही अलग कर दिया है. सच है कि चिंता का विषय ये भी बहुत बड़ा है. राखी तो एक प्रतीक मात्र है. सरकारें सामाजिक दायित्वों से लगातार पीछा छुड़ाती जा रही है. शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन सहित लगभग सभी महत्वपूर्ण कार्यों को निजी क्षेत्रों के हवाले किया जा रहा है. ऐसे में, मैं ज्यादा उम्मीद नहीं रखता हूँ. आपके इस विचारणीय लेख का शीर्षक बहुत प्रभावी है.

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  11. Mera Soubhagaya Ki Chapne Se Pahle Hi Padhne Ko Mil Gaya Ye Lekh...

    :)

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  12. अति सर्वत्र वर्जयेत। बाज़ार ने सचमुच गर्द फैला रखा है।
    सचेत करता आलेख। तोष हुआ कि अभी बहुत शुभ जीवित है। वर्ना ऐसे लेख नहीं लिखे जाते।

    सबसे अच्छी लाइनें:
    सलाह दी जा सकती है कि मत देखो। अव्वल तो यह कुतर्क है। आदिम युग से ही देखने और बोलने की चाहत रही है इनसान की। यह अनंत और अराजक है। भाषा और देह की मर्यादा गढऩे की जरूरत भी तभी से महसूस हुई होगी।

    इस ज़माने में मर्यादा की बात इतने अच्छे ढंग से कह गईं आप!

    मुझे कोई शर्म नहीं कि मेरे घर इनमें से कोई धारावाहिक नहीं देखे जाते।
    सू की और किरण बेदी अनुकरणीय थीं और रहेंगी।
    गोरी चमड़ी के प्रति आकर्षण एक भारतीय प्रवृत्ति है जिसके मूल में दासता की भावना है वर्ना पामेला तो काली है।

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  13. @ वर्षा जी ,
    [ सबसे पहले आपका लिंक देने वाले मित्र का धन्यवाद ! फिर ये कि आपने बड़े गज़ब का आलेख लिख डाला है और आपकी जुबान (भाषा) भी कमाल है]

    अब टीप ये कि 'फख्र' को पहचानने के लिए 'फ़िक्र' की ज़रूरत तो है , पर टीवी चैनलों ने फ़िक्र को ही क्यों चुना ? क्या ये कोई राज की बात है ? वे भाषाई सौम्यता / अभिव्यक्ति की मर्यादा और सामाजिक नैतिकता के नुमाइंदे क्योकर होंगे , जबकि बाज़ार में उतरे है ? बाज़ार ने बाजारूपन को प्राथमिकता दी तो इसमें हैरानी कैसी ?

    कोई शक नहीं कि इस बाज़ार को ज़िंदा रखने और फ़रोग देने में हमारे ही परिवारों का एक बड़ा हिस्सा ,अनजाने में ही सही, गुनाहगार बन बैठा है वर्ना टीआरपी आती कहाँ से है ? फिर वे जिन्हें हमने हाकिमों का दर्ज़ा दिया , उनके भी तो वेस्टेड इंटरेस्ट होंगे ही इस बाज़ार में ? ... और शेष रही फ़िक्र और उसका मुंहबोला चैनल संसार तो वे तो स्वयं ही व्यापार हैं !

    आपका अपना आब्जर्वेशन दुरुस्त है पर किया क्या जाए वे परोसते हैं और हम ? या हममे से ? आशय ये कि गंद हमारे जेहन में भी है हम उसे अभिव्यक्त भी करते हैं और अभिव्यक्त होते देख कर लार भी टपकाते हैं ! बेशक फख्र भी संदर्भ ग्रंथों सी सजी होगी हमारे दिमाग के किसी कोने में कहीं, पर फ़िक्र , उसे सन्दर्भ / शास्त्रीयता /मर्यादा से क्या लेना देना ?

    आंग सान सू की बनाम राखी सामंत पर आपके ख्याल पसंद आये ! 'सू' की कवितायें बेहद खूबसूरत है वे शिद्दत से अपने मुल्क और आज़ादी के लिए अभिव्यक्त हो रही हैं ! वैसे तो इतनी ही शिद्दत से अभिव्यक्त हो रही है राखी भी , नग्नता और अशालीनता की मिसाल जैसी , पैसे और मुल्क की बर्बादी के लिए !

    एक बार फिर से आपको सार्थक चिंतन के लिए साधुवाद और वाणी जी कि जय हो !

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  14. एक फख्र तो दूसरी फिक्र। एक दो दशक तक नजरबंद रहकर भी अर्श पर तो दूसरी आधे दशक से अपनी देह और शब्दों से चीखते रहने के बावजूद फर्श पर।
    ____________________________

    समस्या यह है कि हमारे कुछ घरों में ये प्रोग्राम भले न देखें जाते हों किंतु सब लोग देख रहे हैं। यानि राखी सावंत देह से पैसा कमा रही है। क्यों न कमाए? देह है तो देह का उपयोग कर रही है।

    अब किया क्या जाए? जनता जब तक स्वयं न उठे तब तक तो काम बनेगा।

    अब रही बात लिखा क्यों तो लिखना तो पडेगा। बात तो पहुँचानी होगी। जो ज़रूरी है। शायद कुछ लोग हमारे लिके से ही जागरूक हो जाएँ

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  15. ६ साल पहले जब देल्ही छोड़ी थी तभी कसम खायी थी की टीवी दुनिया का आखिरी आइटम होगा जो मै अपने घर के लिए खरीदूंगा और कारण यही थे .. टीवी का जबरदस्त गिरता स्तर.. साहेबान मै खुश हू की मै अपनी कसम निभाने पर कायम रहा. मैंने अभी तक एक भी नया रिएलिटी शो नहीं देखा है. दुःख होता है कि देखते देखते मनोरंजन कि परिभाषा ही बदल गयी. पर राखी सावंत को दोष देने का क्या फायदा .. वो तो वही कर रही है जो उनसे करवाया जा रहा है. टीवी पे प्रायोजित कार्यक्रम पैसो का खेल है उन्हें मर्यादा से क्या सरोकार..

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  16. घूमते, टहलते माह दो माह में आना होता है इधर। पढ़ कर चली जाती हूँ।

    मगर आज फोन पर किसी सखी के ये कहने पर कि " हिंदुस्तान में लिख डाला से ले कर कुछ लिखा है, वो अच्छा है।" अच्छा लगा और आपको बताने आ गयी।

    ये बहस चाहे जितनी हो इसका समाधान नही। हमारी बैठक की टी०वी० ने बच्चों को पहले ही बड़ा बना दिया है।

    हम खुद इसे देखने का लालच नही छोड़ सकते और बच्चों को इसकी आदत पड़ने से रोक नही सकते।

    राखी का इंसाफ में कुछ गड़बड़ होता है ये तो मुझे अखबारों, फेसबुक और ब्लॉग से ही पता चला। बिग बास अपने पहले अंक से ही समझ में आ गया था कि ना देखने वाली चीज़ है।

    मगर मेरे नेफ्यू, नीस से पूछने पर मुझे सारी जानकारी मिल जाती है कि किस सीरियल में कब कब, कहाँ कहाँ, क्या क्या होता है, क्योंकि शायद उनके मम्मी पापा भी उसके शौकीन हैं।

    एक अच्छा मुद्दा उठाने का आभार

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  17. प्रभावी लिखाई है; अची तुलना की गयी है|

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  18. सू की की कविताएं साझा करने के लिये तहेदिल से शुक्रिया..वरना और कहाँ पढ़ने को मिलती..बाकी चैनल्स का इतना है कि वो बाजार के सिद्धांतों पे चलते हैं..उनके संचालन के पीछे मुख्य उद्देश्य समाज-सेवा नही बल्कि मुनाफ़ा कमाना ही रहता है...अभी तो मीडिया का भी बड़ा हिस्सा डिमांड-और-सप्लाई के अनुपातों से ही संचालित हो रहा है..चैनल्स पर ऐसे प्रोग्राम्स आने की सबसे अहम वजह है कि जनता का बड़ा हिस्सा ऐसी चीजें देखने मे रुचि रखता है..हम इंडिया टीवी, आजतक जैसे चैनल्स को उनकी घटती गंभीरता के लिये कितना भी बुरा भला कहें मगर सच यह है कि उनकी ही टी आर पीज टॉप पे रहती हैं..क्योंकि हममे से ही बड़ा प्रतिशत उनको देखने मे ज्यादा दिलचस्पी रखता है..कल अगर जनता मुंबई के साथ ही मंदसौर की खबर मे भी उतनी ही रुचि रखेगी तो चैनल्स को ऐसी बाकी की खबरें भी परिदृश्य पे लानी ही होंगी जो अन्यथा नेपथ्य मे रहने को अभिशप्त हैं..राखी सावंत का चैनलाकाश पर अभ्युदय हमारी पसंद के गिरते स्तर का ही परिचायक है..मुझे वह एक चतुर और कुशल महिला लगती है..जिसकी यही खासियत है कि उसे हमारी पसंद के स्तर का अंदाजा है और उसे खुद की लोकप्रियता को भुनाना खूब आता है..और वह मीडिया महारथियों के द्वारा खुद को इस्तेमाल नही होने देती है..जो इस माध्यम के किसी महिला के लिये बहुत आसान बात नही है...ऐसे कार्यक्रमों के हर चैनल पर भरमार दरअसल हमारी सोच के दोगलेपन की पहचान भी है..तभी किसी प्रोग्राम मे जितनी कंट्रोवर्सी होगी उसकी लोकप्रियता उतनी ही ऊपर जाती है..जाहिर है कि बाजार के लिये यह एक फायदे का गणित है..जैसे कि हम समाज मे नैतिक शुचिता पर जितने भी भाषण दे लें..मगर मुझे भरोसा है कि उदाहरणार्थ अगर किसी चैनल को किसी व्यस्क फ़िल्म के प्रसारण की छूट मिल जाये तो कितनी भी हाय-हाय के बावजूद उस शो की टी आर पी ही सबसे टोप पर होंगी..यह तय है..सो यह हमारी सोच के सामाजिक नैतिक बैरियर्स का दुस्प्रभाव ही है कि ऐसी चीजें मीडिया मे अपनी जगहें लेती जा रही हैं..और यह ट्रेंड कभी थमने वाला नही..कम से कम मुझे ऐसा ही लगता है..बस विडम्बना यह लगती है कि ऐसी कितनी ही सू क्यी और इरोम शर्मिलाओं को मिलने वाला स्क्रीन-स्पेस राखी सावंत जैसी खाती रहेंगी..समाज का यही दुर्भाग्य भी होगा..यही डिजर्व करता भी है..

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  19. SACH KA EK KADVA SAKHSHATKAR..IN KAVITAON KO PADHTE HUE BHITAR HI BHITAR BAHUT KUCH DARAK GAYA...

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  20. इत्ता सब कुछ जानने के लिए अभी मुझे और बड़ा होना होगा.

    'पाखी की दुनिया' में भी आपका स्वागत है.

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  21. Rakhi energetic hai...Bold hai bas jald fame ke chakkar mein padkar vo short cuts ko follow karne lagi...achcha,ek bahut badi kami hamari media ki bhi hai,aj programes mahaz kamai ka jariya ban gaye hain,jab tak usme kamai ki gunjais nahi tab tak koi sponsor tak nahi karega,fir hum khud kaun se kam zimmedar hain jo in serials ke time ko apne behad jaroori kam bhoolkar bhi yad rakhte hain,Discovery,Asia Geographic,Astha,Sanskar va anya kai news channels bhi to isi tathakathit sanskriti virodhi samay mein chal rahe hain,loksabha channel bhi hai,DD national bhi to hai,fir hum log kyon baki ko chod kar aise gande va aslil prgrms dekhte hain...kyonki aslilta va gandgi hamare man mein hai ,Rakhi jaise log to bas cash karva rahe hai aur Bechari Rakhi ki to hasiyat hi kya hai,mahaz ek mukhauta hai vo to...ye khel to bade khiladi jaise ekta kapoor adi ki lobby dwara racha gaya hai..agar hum apni sanskriti ki duhai chod kar apne man mein sex ko lekar chupi hui kuntha ko positive energy mein badal saken to Rakhi & Ekta jaise to sadko par bhikh maangte dikhenge ya fir unko hamari vastvik maang ko dhyan mein rakhkar karyakram banane padenge kintu ummed kam hi hai kyonki hum bhartiy log hathi ke 2 daanton ki tarah 2 vyaktitv bhi rakhte hain...Su Ki ke bare mein likhe jane vale pratek shabd swaymev mein hi Dhany hote hain..aisi neta sirf myanmar ya mahila jagat ki hi thati nahi hain balki sampoorn manav jati ke liye gaurav ki prateek hain...sat-sat naman...!
    Varsha ji...Bhai,Aap to bahut pyara likhti ho..Ap ki bhasa gazab hai,andaz bhi bold hai dekha jaye to apke lekhan mein Rakhi ki boldness aur Su Ki jaisi gambhirta jahalakti hai...apni dhar banaye rakhiye.

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