रेंकने वाले प्राणी की चहचहाहट


गधे की तस्वीर के साथ आए एक ट्वीट के बाद गधों की दुनिया में हलचल मच गई है :-) 


इन दिनों गधों की हज़ार सालों  की  सहनशीलता दाव पर है। सब उन्हीं  पर जुमले  बोल रहे हैं।  गधा पचीसी , धोबी का गधा न घर का ना घाट का , गधे की पहलवानी और दुलत्ती तो याद आई ही मुल्ला नसरुद्दीन ,चचा ग़ालिब और चाचा नेहरू भी जीवंत हो  गए  हैं। भला हो रेंकने वाले उस प्राणी से जुड़ी  चहचहाहट का बोले तो  उस ट्वीट का जिसने गधे पर जुमलों और किस्सों -कहानियों का पिटारा खोल कर रख दिया है।  मामला  बहुत जल्दी गधे के  सींग-सा होने वाला भी नहीं लग रहा है। 
              मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे को खूब इज़्ज़त देते थे।  चचा ग़ालिब को आम के स्वाद से बेइंतहा मोहब्बत थी। वे अपने मुग़लिया बर्तनों में उन्हें भिगो-भिगो कर उनका रस लेते थे। एक दिन इसी रसपान  के दौरान उनके दोस्त  आ पहुंचे। चचा ने आम के लिए  आग्रह किया तो उन्होंने अरुचि ज़ाहिर कर दी।  इतने में  आम की कुछ सौग़ात गधों को  भी परोसी गई, उन्होंने भी मुँह फेर लिया। चचा के मित्र ने इठलाकर कहा देखा -" गधे भी नहीं खाते। " चचा कब चूकने वाले थे तुरंत कहा-'' गधे ही नहीं खाते।"
          बहरहाल यादों के तूफ़ान में चाचा नेहरू भी शामिल कर लिए गए  हैं। पंडित नेहरू को डॉ लोहिया ने क्या-क्या नही कहा , लेकिन कोई दूरी या दरार दोनों  के बीच नही आई । शंकर कार्टूनिस्ट ने पंडित नेहरू को गधा बनाया पंडित जी ने  फोन किया - शंकर जी, गधे के साथ एक चाय पीना पसंद करेंगे ? यह आप पर है कि आप गधे को किस तरह लेते हैं। शोर तो मच ही सकता था।  तब शायद व्यंग्य  के लिए जगह थी।  हास्यबोध होता था।  इधर अब हास्य को पचा पाना  इतना मुश्किल हो गया है कि युवाओं को  यू ट्यूब में घुसना पड़ रहा है क्योंकि खुले में तो उनकी कॉमेडी किसी को पचती नहीं। वे कहते हैं यहाँ तो रोज़ पकी-पकाई स्क्रिप्ट मिल रही है। हर तरफ हास्य बिखरा पड़ा है।  बाहर से ला  और यू ट्यूब में डाल। ये युवा मसखरे कहते हैं सियाचिन में हमारे जवान लड़ रहे हैं के नाम पर आम आदमी के जीवन को ही युद्ध बना दिया गया है। अब ऐसा अगर बाहर बोले तो ज़ुबां ही  ज़िबह हो जए। नर्म आवाज़  वाली पत्रकार के साथ भी यही हो रहा है। किसको गधा कहा , क्यों कहा ? एक satire है भाई क्यों तुम्हारी समझ में नहीं आता। अब क्या इजाज़त ली जाए इसके लिए भी। वैसे अश्व प्रजाति का गधा बड़ा ही समझदार प्राणी है। कोई तो यहाँ तक कह रहा है जो गधे पर नहीं बैठा वह जन्म्या ही नहीं। 

भक्तजनों के निशाने पर रहनेवाले एक पत्रकार ने कहा कि आज के दिन इस तरह से नहीं चहचहाना था। सालगिरह का लिहाज़ किया जाना चाहिये था। 364  दिन पड़े हैं न, गरियाओ।  ये क्या बात हुई 364 दिन गरियाओ और लतियाओ और एक दिन जिस पर भी दो दिन की दुविधा है उस दिन माला पहनाओ, बत्तीसी दिखाओ। गधे की तस्वीर मत लगाओ ये क्या तर्क हुआ भला ? मैं पिछले महीने सालगिरह के बोझ से गुज़री हूँ। सोच रही हूँ उस दिन मुझे लोग केवल अच्छी अच्छी बातें बोलें और  साल भर मेरी डेश डेश करते रहें तो? ना भई आप 364 दिन मोहब्बत बरसाइये। दे लीजिये एक दिन डेश डेश मैं सह लूंगी। किसने बनाया ये कायदा कि जन्मदिन और मौत का दिन केवल तारीफ के लिए मुक़र्रर है। क्यों नहीं इस दिन भी कोई वही कहे जो वह था या थी। उसके मित्र सगे -सम्बन्धी क्यों झूठ बोलने पर मजबूर हों ?  कोई मेरी मौत पर कहे कि  बड़ी -------- थी तो कहो यार।  मैं कहाँ हूँ सुनने के लिए।  कम अज़ कम जो ज़िंदा हैं वे तो सबक लेंगे। 

         तो अभी  गधा पुराण समाप्तम नहीं है। गधों के तो दिन आए  हैं। आनंदित और रोमांचित होने के। जुमला जयंती आपको लगती होगी उन्हें वादे लगते हैं।  आपकी तकलीफ है। खामखां दूसरों पर इलज़ाम लगाते हो। उनके आनंद और रोमांच से जलते हो। छोटे दिल के। अपना आनंद रचते नहीं। सैडिस्ट कहीं के। खबरदार जो आगे ऐसी बात कही। बंद करो अपनी ज़ुबां या फिर ज़िबह होने के लिए तैयार रहो।  इस नए ट्रेंड को नहीं जानते क्या।  वैशाख नंदन की बात करने वाले। 

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