मनु ने क्या लिखा बापू के बारे में

 कल बापू की 147वीं सालगिरह मनाई जाएगी। बापू हमारे जीवन में इस कदर रचे-बसे हैं कि यूं तो हमारा हर काम उन्हीं पर जाकर खत्म और शुरू होता है। वे हमारी मुद्रा यानी नोटो पर हैं। हमारे अस्पताल के नाम उन्हीं पर हैं। चौराहे, चौराहों की मूर्तियां, रास्ते, सब गांधीमय हैं।हैं फिर भी नहीं हैं । जीवन में भी दो तरह के लोग मिलते हैं। समर्पित गांधीवादी और दूसरे घोर गांधी विरोधी। इस कदर विरोधी कि लगता है गोड़से को फांसी जरूर दे दी गई लेकिन गोड़सेवाद पूरी ताकत से जिंदा है। बापू के जाने के 67 साल बाद भी लगता है कि हम उन्हें समझ ही नहीं पाए। कोई उनके नाम पर झाड़ू उठा लेता है तो कोई खादी का हवाला देने लगता है। बापू को हमने अपनी सुविधानुसार टुकड़ों में बांट दिया है। कुछ बातें जो बापू के व्यक्तित्व को रेखांकित करती हैं वह मनु गांधी की डायरी में मिलती हैं। मनु और आभा ये दोनों अंतिम समय में भी बापू के साथ थीं जब उन्हें गोली मारी गई। मनु लिखती हैं एक दिन रात साढ़े दस बजे बापू ने मुझे जगाया और कहा, 'मेरा वह पेंसिल का टुकड़ा ले आओ तो'। मैं घबरा गई और सोचा कि इस समय बापू पेंसिल के टुकड़े का क्या करेंगे। चूंकि बापू की पेंसिल बहुत छोटी हो गई थी कल रात ही मैंने उसे नई पेंसिल से बदल दिया था। अब मैंने याद रखकर तो टुकड़ा रखा नहीं था। सवा बज गए ढूंढ़ते हुए। वह नहीं मिला। बापू भीतर आए और पूछा- 'क्यों नहीं मिली'? मैंने कहा बापू कहीं रखकर भूल गई हूं। 'ठीक है सो जाओ सवेरे ढूंढ लेना'। बापू ने कहा। लेकिन मनु की आंखों में नींद कहां। एक ही चीज रह गई थी बापू का बगल झोला। उसी मेंं से वह टपक पड़ी। तड़के सुबह प्रार्थना के वक्त तीन बजे जब यह पेंसिल बापू को दी तो उन्होंने कहा ठीक है, मिल गई तो अब रख दो। अभी जरूरत नहीं है। मनु को बहुत गुस्सा आया। रातभर खुद भी नहीं सोए मुझे भी परेशान किया। अब नहीं चाहिए का क्या मतलब लेकिन इस बार संभालकर रख ली।
मनु एक ओर वाकया लिखती हैं। प्रार्थना के बाद इलाहाबाद से पति-पत्नी बापू के पास रहने आए। तुम दोनों को हरिजन बस्ती में जाकर बच्चों की पढ़ाई-सफाई का काम हाथ में लेना चाहिए। मनुष्य को काम ढूंढ ही लेना चाहिए। ऐसे समय काम के बिना एक मिनट भी बैठना पाप है। काम की कमी नहीं यहां तो आदमी की कमी है। कहते हुए बापू ने दोनों को जरूरी काम से जोड़ दिया। तीसरा वाकया सामूहिक सूत कताई दौरान हुआ। सूत कातकर जब बापू अंदर गए दो भाई अंग्रेजी में बात कर रहे थे। वे बोले, हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है दो सगे भाई अंग्रेजी में बोलते हैं। एक तो कहते हैं कि मुझे विचार अंग्रेजी में ही सूझते हैं। हम अंग्रेजी के गुलाम हो गए हैं और यह गुलामी हमने खुद मोल ली है। अंग्रेजी बोलना हमारी महत्वाकांक्षा रहती है हम कितना समय बिगाड़ते हैं इस भाषा के लिए। हम बिना भूल किए अंग्रेजी बोलते हैं और कोई अंग्रेज इस पर हमारी पीठ ठोक दे तो हम फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। हिसाब लगाएं कि जो समय हमने अंग्रेजी सीखने में लगाया, उतना यदि देश सेवा को दें तो कितना बदलाव आएगा।
एक और बात जो बापू ने अपने भाषण में कही थी। अपनी भलाई न छोड़ें। आप सबने रामायण,महाभारत पढ़ी है। ना पढ़ी हो तो इसे पढऩे की मैं सिफारिश करता हूं। इन्हें धार्मिक पुस्तकें तो इसलिए बनाया है कि हम सब उन्हें पढ़ें। हमारे पूर्वज यह मानते थे कि धर्म के नाम पर हम कुछ भी कर सकते हैं। उस समय उन्हें यह कल्पना भी नहीं रही होगी कि इसी धर्म के नाम पर हम भाईयों के गले भी काट सकते हैं। महाभारत में जो बातें हैं केवल हिंदुओं के लिए नहीं है। युद्ध करने से किसी का भला नहीं हुआ। ना कौरवों को शांति मिली ना पांडवों को। ये छोटी-छोटी बातें बापू के बड़े व्यक्तित्व की झलक देती हैं। ये कहती हैं कि वे भी एक साधारण इंसान ही थे। ये और बात है कि आइंस्टीन ने कहा था कि आने वाली पीढिय़ों को यकीन करना मुश्किल होगा कि हाड़-मांस का ऐसा इंसान भी धरती पर हुआ था। उस पेंसिल को बापू नहीं भूले थे। करीब महीने भर बाद उन्होंने रात को मनु को याद दिलाया कि मुझे वह छोटी सी पेंसिल दो जो मैंने तुम्हें पटना में दी थी। मनु को पता था, झट से ला दी।
ऐसे ही थे बापू। उन्होंने मनु से कहा अब तुम परीक्षा में पास हुई हो। जानती हो हमारा देश कितना गरीब है। हजारों गरीब बालकों को पेंसिल का एक टुकड़ा भी लिखने को नहीं मिलता। हमें क्या अधिकार है कि इसे बेकार समझकर फेंक दें। सवाल बहुत ही साधारण से हैं-  क्या इतने बरसों बाद हर भारतवासी को शिक्षा नसीब हुई है? क्या उसका पेट भरा हुआ है? क्या पेट भरने वाला अन्नदाता सुखी है? इंडिया को डिजिटल होना चाहिए लेकिन इंडियावासी का पेट भी भरा होना चाहिए और हाथ में छोटी पेंसिल होनी ही चाहिए। बड़े लोगों को इसके लिए भी दुनिया के बड़े मंचों पर माथा जोडऩा चाहिए।

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