पाकिस्तान में मलाला अफगानिस्तान में सुष्मिता


अफगानिस्तान में अमेरिकी दखल
हो जाने के बावजूद लेखिका और
स्त्री सेहत से जुड़ी सक्रिय
कार्यकर्ता सुष्मिता बैनर्जी की हत्या
हो जाती है। इन दिनों यह
ताकतवर देश जाने किस हक से
सीरिया पर हमला करने की मंशा
रखता है। दुनिया के बड़े हिस्से में
जब स्त्री को जीने लायक
परिस्थिति दे पाना ही नामुमकिन
हो रहा है ये देश युद्ध के जरिए
शांति प्रयासों में लगा है? 

स्त्रियों की
सेहत के लिए काम कर रहीं
सुष्मिता बैनर्जी अफगानिस्तान में
गोलियों से भून दी जाती हैं, तो स्त्री
शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही
किशोरी मलाला यूसुफजई को
तालिबानी पाकिस्तान में मौत देने
की कोशिश करते हैं।
मलाला सौभाग्यशाली रहीं कि वे
आज जिंदा हैं, लेकिन सुष्मिता के
साथ ऐसा   न हो सका। वे
अफगानिस्तान के पूर्वी पक्तिका
प्रांत में अपने घर पर मार दी गईं।
उनके पति जांबाज खान को बांध
दिया गया और आतंकी उन्हें यह
कहते हुए मारने लगे कि तुमने
हमारे खिलाफ लिखना नहीं छोड़ा।
उनचास साल की सुष्मिता को प्रेम
और सौहार्द की कीमत जान से
चुकानी पड़ी। काबुलीवाले की
बंगाली बहू के स्नेह संदेश में
कट्टरपंथियों को अपने इरादों की
मौत का पैग़ाम नजर आया। यही
उनकी लिखी किताब का शीर्षक
था। संभवत: यह गुरु रवींद्रनाथ
टैगोर की लिखी कहानी
काबुलीवाला के आगे की कथा थी।
इस बार काबुलीवाला यानी
अफगानी पठान का नाम जांबाज
खान था। असल में वह
अफगानिस्तान से कोलकाता
व्यवसाय के सिलसिले में आया था,
जहां सुष्मिता से उसकी मुलाकात
हुई। तब पच्चीस बरस की सुष्मिता
को इस काबुलीवाले से प्रेम हो
गया और वह उसके साथ उसके
देश चली गयीं । जमीन उस वक्त
सुष्मिता के पैरों तले पूरी ही निकल
गई, जब उन्हें पता चला कि
जांबाज पहले ही विवाहित है और
उसके बच्चा भी है। हालांकि, पहली
पत्नी के हालात पर उन्हें दया आ
गई। स्त्री वहां आधी-अधूरी
नागरिक ही थी।
सक्रिय और संवेदनशील सुष्मिता
उनके हक के लिए संघर्ष में
व्यस्त हो गईं। सुष्मिता ने सुरक्षा
के लिए इस्लाम कुबूल किया। वह
सईदा हो गईं। हालात तब बिगडे़,
जब १९९४ के आसपास किसी
तरह बचते-बचाते वहां से भाग
निकलीं। तालिबान ने उनकी
डिस्पेंसरी बंद कर दी थी और
उन्हें दुष्चरित्र स्त्री बतौर प्रचारित
किया। कोलकाता पहुंचकर किताब
'काबुलीवालार बंगाली बोऊ' 
लिखी।
किताब में तालिबानियों के चंगुल से
निकलकर जिंदा रहने का .यौरा
था। इस पर २००३ में बॉलीवुड में
एस्केप फ्रॉम तालिबान नामक
फिल्म भी बनी। किताब ने सुष्मिता
को बंगाल में स्थापित कर दिया।
           
       हाल ही सुष्मिता का दोबारा पति के
पास लौटना शायद सही नहीं था।
 तसलीमा नसरीन के लिए भी बंगलादेश के  
कट्टरपंथी ताक में बैठे  हैं लेकिन वे वहां नहीं लौटतीं। 
 सुष्मिता अफगान औरतों पर एक और किताब लिखना चाहती
थीं कि किस तरह वे जीने के अधिकारों से
महरूम हैं। वे वहां एक डिस्पेंसरी
चला रही थीं ताकि इन महिलाओं
को अच्छी सेहत का पाठ पढ़ा
सकें। उधर, कोलकाता में सुष्मिता
के भाई गोपाल बैनर्जी का कहना
है कि जांबाज से उनकी बात हुई
थी और वे काफी परेशान नजर आ
रहे थे। मौत के अगले दिन ही
इस्लामिक कायदों से सुष्मिता का
अंतिम संस्कार कर दिया गया।
सुष्मिता की यह मौत उस इंसान
की मौत है, जो व्यापक दृष्टिकोण
के साथ जीता है। सरहदें उसकी
सोच को दायरों में नहीं बांध पातीं।
वह जहां होता है, समाज की भलाई
की दिशा में लग जाता है। वे
आजाद खयाल अमन पसंद
भारतीय थीं। जाहिर है उस मुल्क
में कुछ भी नहीं बदला है और वहां
रह रहे भारतीयों की जान मुश्किल में ही है . 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" में शामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 12/09/2013 को क्या बतलाऊँ अपना परिचय - हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल - अंकः004 पर लिंक की गयी है ,
    ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें. कृपया आप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा

    जवाब देंहटाएं
  2. यह घटना अफ़ग़ानिस्तान के भयावह स्थितियाँ बताती हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुष्मिता की हत्या इंसानियत के ज़ज़्बे की हत्या है।

    जवाब देंहटाएं

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