बिज्जी का जाना वाल्मिकी और वेदव्यास का जाना है
विजय दान देथा 'बिज्जी' का जाना हमारे बीच से वाल्मिकी और
वेदव्यास के चले जाने से कम नहीं। रचना में जितनी गहराई व्यक्तित्व में
उतनी ही सादगी। वे कतई अपने कद का बोझ लिए नहीं चलते। बातचीत से कभी कोई
आभास नहीं कि उन्होंने कुछ एेसा रचा है जिसके लिए बड़े-बडे़ फिल्मकार
उनकी ड्योढ़ी चढ़ते हैं। जोधपुर में बिताए बीसवीं सदी के अंतिम तीन बरसों
में जब कभी वे सड़कों पर भी टकराए तो सादगी और विनयशीलता उनके कंधे से
लटके झोले की तरह ही मिलती ।
एक बार वे लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी के घर से निकले ही थे कि सामने मैं पड़ गई। गौरतलब है कि कोमल कोठारी के साथ मिलकर बिज्जी ने रूपायन संस्था बनाई, जो राजस्थान की लोक संस्कृति को सहेजने का बड़ा काम कर रही थी। पूछने पर कि चलिए मैं छोड़ देती हूं थोड़ी ना-नुकुर के बाद वे मोपेड की पिछली सीट पर बैठ गए और मैंने उनकी बताई जगह पर छोड़ दिया जो ज्यादा दूर नहीं थी। जिंदगी एेसे मौके कहां रोज मुहैया कराती है। बहरहाल, लोक साहित्य को लोकभाषा में कलमबद्ध करनेवाले बिज्जी इस लिहाज से भी अनूठे थे, क्योंकि अक्सर साहित्यकारों के आसपास उनका आभामंडल बनाए रखने वाला समूह होता है और वे उनके बीच बैठकर ही बौद्धिकता के गंभीर बयान जारी करते हैं। ऐसा कभी भी बिज्जी के साथ नजर नहीं आया। बिज्जी की एक कहानी पर गौर कीजिए। दोहरी जिंदगी नामक कथा संग्रह को पेंग्विन ने 2007 में प्रकाशित किया। शीर्षक कहानी ही लेस्बियन यानी दो स्त्रियों के रिश्ते को इतनी सहजता से बयां क रती है कि यकीन नहीं होता, वह भी ग्रामीण परिवेश में।
जोधपुर के बाद बिज्जी साल 2001 में विदेशी पाहुणों को आकर्षित करने वाले सम्मेलन राजस्थानी कॉनक्लेव, जयपुर में मिले। वहां भी बेहद सादगी के साथ एक हॉल से दूसरे हॉल में वक्ताओं को सुनते और चल पड़ते। सहज सवाल उभरता है कि एेसी कौनसी पृष्ठभूमि है जो अर्श पर पहुंच चुकी लेखनी के कदमों को इतनी मजबूती के साथ फर्श पर थामे रही। कथाकार उदयप्रकाश के शब्दों में महान कथाकार जिसका समूचा जीवन कठिनाइयों, संघर्ष, शोक और वियोगों से भरा रहा। जिसने चार वर्ष की आयु में सामंती हिंसा के शिकार बने अपने पिता का टुकड़ों में कटा शरीर देखा। फिर, भयावह आर्थिक संकटों के बीच अपने परिवार का संपोषण कि या। एक के बाद एक पुत्र, प्रपौत्र, पत्नी और परिजनों के वियोग के आकस्मिक आघात सहे। वह अपूर्व साहित्यकार जिसका जीना, सांस लेना, चलना-फिरना सब कु छ शब्दों और वाक्यों की अनंत अबूझ पगडंडियों से यात्रा करते हुए बीता। सच है कि एेसा इंसान जब कलम थाम लेतो बिज्जी बन के ही उभरता है।
हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि हम किताबों की ओर फिल्मों से जाते हैं। बरसों पहले जब मणि कौल की दुविधा फिल्म देखी तो यकी न नहीं हुआ था कि वे वही बिज्जी हैं, जिनकी क़था पर बनी फिल्म देखकर चकित रहने के सिवा कोई चारा नहीं था। फिर, जब बिज्जी से मुलाकात हुई तो हैरान रह गई कि ये व्यक्ति किस कदर सादा तबीयत हैं । वरना आज के दौर के क़थाकार एक दो किताब छपवाकर ही अपने अहंकार को संतुलित करने में नाकाम हो जाते हैं। यह बौद्धिक आतंक बिज्जी के पास कभी नहीं फटका । एक कहानी डायरी का पृष्ठ सांप्रदायिक पन्नालाल की पोल खोल कर रख देती है . उसे तब तक चैन नहीं आता जब तक एक पन्ना वह अपनी हरकतों से न रंग ले।
जोधपुर के विनोद विट्ठल के शब्दों पर गौर कीजिए 'बीज जितने पुराने और बादल जितने नए थे बिज्जी। बिज्जी से मिलना हजार साल की उम्र वाले एक एेसे जवान किस्सागो से मिलना था, जिसने कई-कई युग देखे और जो पखेरुओं और रूखड़ों (पेड़ ) से लेकर अंधेरे और चांदनी तक की बोलियां जानता था। अबोला वहां सुन सकता था और अदेखे का आख्यान बना सकता था। रसूल हमजातोव और चेखोव से लेकर दोस्तोवस्की तक उसकी बातों में हुंकार भरते थे। विक्टर ह्यूगो से लेक र लियो तॉलस्तॉय तक उसके बुलावे पर आते थे।' एेसे किस्सागो को नमन और उस माटी को भी जिसने एेसी कहानियां दी। जो देहात, शहर, प्रदेश, देश की सरहद लांघ दुनियाभर में फैल गई। तभी तो पद्मश्री बिज्जी दो साल पहले नोबल की श्रेणी में नामित थे। मिट्टी की बात कहने वाले बिज्जी ने बोरुंदा को ही घरोंदा बनाए रखा। वे क भी नहीं उडे़, लेकिन किस्से गुनने की उनकी ताकत ने उनके कदमों में ही दुनिया को ला खड़ा किया उस भाषा की ओर, जिसे देश मान्यता ही नहीं दे सका है।
ps:स्मृति शेष - विजय दान देथा 'बिज्जी' अनूठे रचनाधर्मी होने के साथ अनोखे इंसान भी थे। जोधपुर में कभी-कभार मैं और मेरे पति शाहिद मिर्ज़ाजी उनसे टकरा जाते तो वे चुटकी लेने से बाज़ नहीं आते और हमें वर्षा का बादल कहते हुए ज़ोर से हंस पड़ते। कथाकार को कुछ ज़यादा पढ़ने की क़ुव्वत हासिल होती है। उन्हें सादर नमन।
एक बार वे लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी के घर से निकले ही थे कि सामने मैं पड़ गई। गौरतलब है कि कोमल कोठारी के साथ मिलकर बिज्जी ने रूपायन संस्था बनाई, जो राजस्थान की लोक संस्कृति को सहेजने का बड़ा काम कर रही थी। पूछने पर कि चलिए मैं छोड़ देती हूं थोड़ी ना-नुकुर के बाद वे मोपेड की पिछली सीट पर बैठ गए और मैंने उनकी बताई जगह पर छोड़ दिया जो ज्यादा दूर नहीं थी। जिंदगी एेसे मौके कहां रोज मुहैया कराती है। बहरहाल, लोक साहित्य को लोकभाषा में कलमबद्ध करनेवाले बिज्जी इस लिहाज से भी अनूठे थे, क्योंकि अक्सर साहित्यकारों के आसपास उनका आभामंडल बनाए रखने वाला समूह होता है और वे उनके बीच बैठकर ही बौद्धिकता के गंभीर बयान जारी करते हैं। ऐसा कभी भी बिज्जी के साथ नजर नहीं आया। बिज्जी की एक कहानी पर गौर कीजिए। दोहरी जिंदगी नामक कथा संग्रह को पेंग्विन ने 2007 में प्रकाशित किया। शीर्षक कहानी ही लेस्बियन यानी दो स्त्रियों के रिश्ते को इतनी सहजता से बयां क रती है कि यकीन नहीं होता, वह भी ग्रामीण परिवेश में।
जोधपुर के बाद बिज्जी साल 2001 में विदेशी पाहुणों को आकर्षित करने वाले सम्मेलन राजस्थानी कॉनक्लेव, जयपुर में मिले। वहां भी बेहद सादगी के साथ एक हॉल से दूसरे हॉल में वक्ताओं को सुनते और चल पड़ते। सहज सवाल उभरता है कि एेसी कौनसी पृष्ठभूमि है जो अर्श पर पहुंच चुकी लेखनी के कदमों को इतनी मजबूती के साथ फर्श पर थामे रही। कथाकार उदयप्रकाश के शब्दों में महान कथाकार जिसका समूचा जीवन कठिनाइयों, संघर्ष, शोक और वियोगों से भरा रहा। जिसने चार वर्ष की आयु में सामंती हिंसा के शिकार बने अपने पिता का टुकड़ों में कटा शरीर देखा। फिर, भयावह आर्थिक संकटों के बीच अपने परिवार का संपोषण कि या। एक के बाद एक पुत्र, प्रपौत्र, पत्नी और परिजनों के वियोग के आकस्मिक आघात सहे। वह अपूर्व साहित्यकार जिसका जीना, सांस लेना, चलना-फिरना सब कु छ शब्दों और वाक्यों की अनंत अबूझ पगडंडियों से यात्रा करते हुए बीता। सच है कि एेसा इंसान जब कलम थाम लेतो बिज्जी बन के ही उभरता है।
हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि हम किताबों की ओर फिल्मों से जाते हैं। बरसों पहले जब मणि कौल की दुविधा फिल्म देखी तो यकी न नहीं हुआ था कि वे वही बिज्जी हैं, जिनकी क़था पर बनी फिल्म देखकर चकित रहने के सिवा कोई चारा नहीं था। फिर, जब बिज्जी से मुलाकात हुई तो हैरान रह गई कि ये व्यक्ति किस कदर सादा तबीयत हैं । वरना आज के दौर के क़थाकार एक दो किताब छपवाकर ही अपने अहंकार को संतुलित करने में नाकाम हो जाते हैं। यह बौद्धिक आतंक बिज्जी के पास कभी नहीं फटका । एक कहानी डायरी का पृष्ठ सांप्रदायिक पन्नालाल की पोल खोल कर रख देती है . उसे तब तक चैन नहीं आता जब तक एक पन्ना वह अपनी हरकतों से न रंग ले।
जोधपुर के विनोद विट्ठल के शब्दों पर गौर कीजिए 'बीज जितने पुराने और बादल जितने नए थे बिज्जी। बिज्जी से मिलना हजार साल की उम्र वाले एक एेसे जवान किस्सागो से मिलना था, जिसने कई-कई युग देखे और जो पखेरुओं और रूखड़ों (पेड़ ) से लेकर अंधेरे और चांदनी तक की बोलियां जानता था। अबोला वहां सुन सकता था और अदेखे का आख्यान बना सकता था। रसूल हमजातोव और चेखोव से लेकर दोस्तोवस्की तक उसकी बातों में हुंकार भरते थे। विक्टर ह्यूगो से लेक र लियो तॉलस्तॉय तक उसके बुलावे पर आते थे।' एेसे किस्सागो को नमन और उस माटी को भी जिसने एेसी कहानियां दी। जो देहात, शहर, प्रदेश, देश की सरहद लांघ दुनियाभर में फैल गई। तभी तो पद्मश्री बिज्जी दो साल पहले नोबल की श्रेणी में नामित थे। मिट्टी की बात कहने वाले बिज्जी ने बोरुंदा को ही घरोंदा बनाए रखा। वे क भी नहीं उडे़, लेकिन किस्से गुनने की उनकी ताकत ने उनके कदमों में ही दुनिया को ला खड़ा किया उस भाषा की ओर, जिसे देश मान्यता ही नहीं दे सका है।
ps:स्मृति शेष - विजय दान देथा 'बिज्जी' अनूठे रचनाधर्मी होने के साथ अनोखे इंसान भी थे। जोधपुर में कभी-कभार मैं और मेरे पति शाहिद मिर्ज़ाजी उनसे टकरा जाते तो वे चुटकी लेने से बाज़ नहीं आते और हमें वर्षा का बादल कहते हुए ज़ोर से हंस पड़ते। कथाकार को कुछ ज़यादा पढ़ने की क़ुव्वत हासिल होती है। उन्हें सादर नमन।
श्रद्धांजलि
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