इश्क़ करूँ या करूँ इबादत इक्कोइ गल है


 मिल्खा सिंह ने चोरी-चकारी के जीवन को तज कर दौड़ जीतने के लिए जिस मेहनत  से  इश्क़  किया वही जज़्बा  और जूनून राकेश ओम  प्रकाश मेहरा की टीम ने भी रचा  है 

"जब से देश आजाद हुआ है, तब से
केवल पांच एथलीट ओलंपिक्स
 
के
फाइनल मुकाबलों में पहुंचे हैं लेकिन
मेडल कोई नहीं जीत पाया। मैं,
गुरुजीत सिंह रंधावा, पीटी उषा, राम
सिंह और अंजू बॉबी जॉर्ज। मैं जब तक
जिंदा हूं मेरी आंखों में एक ही सपना
रहेगा कि भारत का तिरंगा वहां
लहराता देखूं" - मिल्खा सिंह

 

 अठहत्तर  साल के मिल्खा सिंह यानी
भारत के वो एथलीट, जिन्होंने जान
की बाजी लगाकर पसीना बहाया।
कई बार तो इतना कि मुंह से खून
बनकर निकला। सारी दुनिया को
लगता था कि चार सौ मीटर का
गोल्ड मेडल तो मिल्खा ही
जीतेंगे , क्योंकि उन्होंने ८० में से ७७
दौड़ें अपने नाम की थीं, लेकिन सेकंड
के सौंवे हिस्से से मिल्खा चूक गए।
ओलंपिक का पदक उनके हाथ से
निकल गया और एक अफसोस
उनके भीतर हमेशा के लिए पैबस्त हो
गया।
मिल्खा के पास जब निर्देशक
राकेश ओमप्रकाश मेहरा आए, तो
उनके गोल्फर बेटे जीव मिल्खा सिंह
ने कहा कि पापा अगर आप पर कोई
फिल्म बनाए, तो ये ही बनाएं,
मैंने इनकी रंग दे बसंती देखी है।
गौरतलब है कि स्वयं मिल्खा सिंह ने
१९६० से कोई फिल्म नहीं देखी।
उन्हें नहीं मालूम कि कौनसे एक्टर
इन दिनों अच्छा और खराब काम कर
रहे हैं। मिल्खा सिंह के शब्दों 
में- इस
बच्चे 'फरहान अख्तर' ने बहुत
मेहनत की है। मैं चाहता था कि
फिल्म ऐसी 
बने कि लोग उठ खड़े हों
और भारत की झोली में मेडल आएं।
दरअसल, भाग मिल्खा भाग फिल्म
महज तीन घंटे का प्रवाह भर नहीं,
बल्कि ऐसा
तूफान है, जो आपके साथ
लंबे समय तक रहता है। दर्शकों को लगता है कि
वह सिनेमा हॉल में
नहीं स्टेडियम में हैं, क्योंकि  वैसी ही
सांसें रुकती हैं और तालियों की गडग़ड़ाहट वहां गूंजती है। फिल्म
से पहले फरहान को लगता था कि वे दौड़ लेंगे लेकिन जब उनके ट्रैक
एंड फील्ड कोच मैल्विन ने उन्हें दौड़ते हुए देखा, तो कहा कि कोई
भी धावक ऐसे 
  नहीं दौड़ता। यह
ट्रेड 
मिल की दौड़ है। भाग मिल्खा भाग जिंदगी का ऐसा चित्र है, जिसे
देखकर पता चलता है कि एक एथलीट किस कदर हार्डवर्क और समर्पण की
मिसाल होता है। पसीना उसका गौरव रचता है। मिल्खा सिंह कहते हैं, जब
मैं पाकिस्तान में दौड़ा, तो स्टेडियम में मौजूद दस हजार बुर्कानशीनों ने बुर्का
उतारकर मुझे देखा। यही नायकत्व है कि दुश्मन देश को आप बंदूक के
जोर पर नहीं, बल्कि अपने कौशल पर आत्म समर्पण करने को मजबूर कर
दें। खिलाड़ी के जोश-ओ-जुनून के साथ भाग मिल्खा भाग इसीलिए न्याय कर पाती है, क्योंकि 
इसके निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा भी खेलों की
दुनिया से आते हैं। नई दिल्ली, १९८२ के एशियन गेम्स
में वे तैराकी टीम के सदस्य रहे थे। मिल्खा अगर कहते हैं  कि मैं मौत को तली में ले के आगे बढ़ा हूं, तो राकेश ओमप्रकाश मेहरा की टीम ने भी एक ऐसी  फिल्म रची है, जो यकीनन नए खिलाडि़यों को प्रेरित करेगी। अभिनव बिंद्रा ने जब ओलंपिक्स में स्वर्ण पदक पहना था, हर भारतवासी का सीना चौड़ा और दिल भर आया था।
ब्ले
जर पर लिखा इंडिया खिलाड़ी को किस कदर
रोमांचित करता है यह फिल्म बताती है। बाल्टीभर पसीना, आय एम नॉट रिलेक्सिंग 
आय एम मिल्खा सिंह। टूटी गेंद में लिखे प्रेम पत्र, एथलीट फरहान का भुजाएं फड़काने वाला डांस, बचपन के दोस्त का पाकिस्तान में रहते हुए मौलवी के यहां बड़ा होना, बड़ी बहन का प्यार शंकर-एहसान-लॉय के संगीत पर प्रसून जोशी के थिरकते बोल फिल्म को अलहदा बनाते हैं। मिल्खा सिंह की नजरों के सामने ऐसे  बायोपिक का बन जाना मायने रखता है।  क्या उडऩपरी पीटी उषा के साथ भी ऐसा  होगा? वे भी सेकंड के सौवें हिस्से से मेडल चूक गई थीं।
अंत में जिस बात को मिल्खा सिंह कोट करते हैं, वही आपके
  लिए
मत घबरा तू तूफानों से 

ये तो चलते हैं तुझे ऊपर उठाने के लिए

टिप्पणियाँ

  1. मेहनत को पर्दे पर लाकर बहुत अच्छा कार्य किया है..

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती ,आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. हाँ ये वो टिप्पणी है जो मेरे जैसे आलसियों को इस फिल्म को देखने को प्रेरित करती है।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    http://saxenamadanmohan.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं

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