मेरी पहली श्मशान यात्रा

स्त्रियों को कहाँ इजाज़त होती है मसान जाने की।  गुजरात के इस गांव में नदी किनारे बने श्मशान घाट पर जब पहली बार भाइयों के साथ मामाजी के फूल चुनने गई तो लगा कि मामाजी जाते-जाते भी दुनिया का अलग रंग नुमाया कर गए। इससे
पहले मामाजी  की बेटियों  ने भाई के साथ मिलकर मुखाग्नि दी थी।

 बेहद निजी अनुभव है। गुजरात के वलसाड़ जिले के नवसारी तहसील के एक गांव गणदेवी में मामाजी ने अंतिम सांस ली। बचपन से ही मधुमेह   (डायबिटीज) से पीड़ित मामाजी (58 )को पहले उनके माता-पिता और भाई-बहनों ने इस तरह बड़ा किया जैसे वे राजकुमार हैं और वक्त की पाबंदी में कोई भी कमी उनके जीवन पर संकट के बादल ला सकती है। उनका आना-जाना भी वहीं होता जहां मेजबान उनके मुताबिक बनी घड़ी का सम्मान कर पाता था। जीवन के पांच दशक उन्होंने इन्सुलिन के सुई (एक हार्मोन जो रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता है) और घड़ी की सुई के साथ सटीक तालमेल बना कर बिताए। ब्याह हुआ। मामीजी के लिए कुछ भी आसान नहीं रहा होगा लेकिन उन्होंने इस रिश्ते को एेसा सींचा कि कुछ सालों में तो वे उनके चेहरे के भाव देखकर ही समझ जाती थीं कि उनके शरीर में शुगर का लेवल क्या है। वे वाकई मामाजी के साथ घड़ी बनकर जीवन गति बनाए हुए थीं। हर चीज़ वक़्त पर।  तभी दुख की इस भीषण घड़ी में उनके शब्द थे  'अब मैं घर की सारी घडि़यां उतार फेकूंगी। ' कर्मठ और विनयशील की तरह जाने जानेवाले मामाजी की अंतिम यात्रा में समूचा गणदेवी अश्रुधारा के साथ शामिल था। आंसुओं के साथ उन्हें हैरानी भी थी कि यात्रा में महिलाएं और मामाजी की दोनों बेटियां भी शामिल हैं। मामाजी का पुत्र तो आगे था ही। श्मशान घाट के दरवाजे पर पंडित ने समझाया कि बेटियो अब तुम यहींं से अंतिम दर्शन कर लौट जाओ। जाने किस घड़ी में कौनसा दृढ़ निश्चय उन्हें इतना दृढ़ बना गया था कि वे नहीं लौटीं। पंडित जी ने फिर कहा बच्चों मैं एेसा इसलिए नहीं कह रहा कि तुम लड़कियां हो बल्कि यह सब तुम्हारे लिए कष्टकारक होगा। अपना फैसला बदल लो। बेटियां नहीं मानी। उन्होंने हिम्मत बटोर कर भाई के साथ पिता को अग्नि के सुपुर्द किया। बड़ी बेटी की तो रुलाई ही तब फूटी जब वह इस जिम्मेदारी का निर्वाह कर चुकी। छोटी बेटी का कहना था कि दीदी अंतिम क्रिया के बाद मुझे इस सच्चाई को स्वीकारने की ताकत मिली कि पापा इस दुनिया में नहीं हैं। दुख का पहाड़ हल्का मालूम पड़ता है।
ये सचमुच नया वक्त है। नया दौर जिसे बेटियां गढ़ रही हैं। सदियों के निजाम को वे अब अपने मुताबिक ढाल रही हैं। बिल्कुल जरूरी नहीं है कि हर कोई एेसा ही करे लेकिन जो चाहे उस पर पाबंदी भी नहीं होनी चाहिए। महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में जब तेल चढ़ाने की अनुमति मिल सकती है तो तमाम अन्य स्थितियों पर भी पुनर्विचार हो सकता है। अब तक अनिष्ट की आशंका से डराकर ही उन्हें दूर रखा गया था। अधिकार कर्तव्य सब समान होने चाहिए।
बेटियों को और उनकी बेटियों को दान देने की परंपरा भी है, लेकिन सब बहनों की बेटियों ने इस दान को स्वीकार कर पुन: लौटा दिया। मौजूद सभी बुजुर्गों को यह ठीक नहीं लगा कि तुम कन्याएं हो और तुम्हें दिया दान सबसे बड़ा होता है। इसे मत लौटाओ, लेकिन बेटियों का कहना था कि एेसे कई दान बेटियों को कमतर भी बना देते हैं। जन्म देने वाले के मन में भी यही भाव होता है कि अब तो हर कदम पर बस इन्हें देना ही देना है। वह लगातार जोडऩे की जुगत में लग जाते है। इस देने की परंपरा पर जहां भी जैसे भी रोक लगे, वह स्त्री अस्मिता में वृद्धि ही करेगी। उसे हक मिले दान नहीं। वे सारे हक जो बेटे के पास हैं।
शरीर के ब्लड में शुगर का बहुत बढ़ जाना मृत्यु का कारण बनता है। उसका सामान्य होना जीवन के लिए बहुत जरूरी है। शायद वैसे ही समाज में स्त्री-पुरुष के बीच समानता का होना बहुत जरूरी है। इस हार्मनी का संतुलन कई परेशानियों से मुक्त कर सकता है। संभव है मामीजी चांदला (गुजराती में बिंदी को चांदला कहते हैं) भी लगाएं और सफेद वस्त्र भी ना धारण करें । सचमुच जब गांव इन बातों के साक्षी होंगे तो देश बदलेगा।

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2312 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से दिवंगत को सादर नमन और विनम्र श्रद्धांजलि |


    ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के ९७ वीं बरसी - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. blog bulletin aur dilbagji aapka shukriya.

    divangat ko shradhhanjali dene ka yah silsila bhi yahan prachlan mein nahin.

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  4. नया दौर जिसे बेटियां गढ़ रही हैं....बि‍ल्‍कुल सही कहा आपने..अब बदलेगा सब..जल्‍द ही

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