भाषा की समझ

पिछले दिनों एक कविता पढ़ी...अच्छी लगी...आप भी देखें.


भाषा की समझ

 अजितकुमार

फर्क था बहुत
मेरी और उनकी बोली में।
जब वे मांगते थे पानी
उठा लाता था मैं  कपड़े।
जब मैं चाहता था एकांत
सुलगा देते थे वे अंगीठी।
एक पुस्तक थी हमारे पास
जाने किस भाष में लिखी,
मैं कहता था ज फ ग ट ह
वे  न म ल व र
उच्चारण ही क्यों,
अर्थग्रहण में भी
अंतर था।
बावजूद इसके,
 जब तक प्रेम था हमारे बीच
वह समझ में आता रहा।
फिर विरक्ति को भी हम
धीर-धीरे
समझने लगे।

टिप्पणियाँ

  1. किसी की विरक्ति में आसक्ति हो जाती है हमें।

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  2. जब तक प्रेम था हमारे बीचवह समझ में आता रहा।फिर विरक्ति को भी हम
    धीर-धीरे
    समझने लगे...

    बहुत करीब होने पर कुछ भी अनजाना नहीं रहता , ना प्रेम ,ना विरक्ति !

    जवाब देंहटाएं
  3. समायोजन कि इच्छा हो तो भाषा की दीवार कब तक टिकेगी।

    जवाब देंहटाएं
  4. ठक से अंदर उतर गयी ये कविता !

    जवाब देंहटाएं
  5. कमाल की कविता है!!
    बहुत सुंदर भाव प्रेषित हो रहे हैं।

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  6. बहुत बेहतरीन ......विरक्ति में आसक्ति

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह...क्या कह डाला ....

    अर्थ गाम्भीर्य और काव्य सौन्दर्य ने अभिभूत कर लिया...

    जवाब देंहटाएं

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