भाषा की समझ
पिछले दिनों एक कविता पढ़ी...अच्छी लगी...आप भी देखें.
अजितकुमार
फर्क था बहुत
मेरी और उनकी बोली में।
जब वे मांगते थे पानी
उठा लाता था मैं कपड़े।
जब मैं चाहता था एकांत
सुलगा देते थे वे अंगीठी।
एक पुस्तक थी हमारे पास
जाने किस भाष में लिखी,
मैं कहता था ज फ ग ट ह
वे न म ल व र
उच्चारण ही क्यों,
अर्थग्रहण में भी
अंतर था।
बावजूद इसके,
धीर-धीरे
समझने लगे।
भाषा की समझ

फर्क था बहुत
मेरी और उनकी बोली में।
जब वे मांगते थे पानी
उठा लाता था मैं कपड़े।
जब मैं चाहता था एकांत
सुलगा देते थे वे अंगीठी।
एक पुस्तक थी हमारे पास
जाने किस भाष में लिखी,
मैं कहता था ज फ ग ट ह
वे न म ल व र
उच्चारण ही क्यों,
अर्थग्रहण में भी
अंतर था।
बावजूद इसके,
जब तक प्रेम था हमारे बीच
वह समझ में आता रहा।
फिर विरक्ति को भी हमधीर-धीरे
समझने लगे।
किसी की विरक्ति में आसक्ति हो जाती है हमें।
जवाब देंहटाएंजब तक प्रेम था हमारे बीचवह समझ में आता रहा।फिर विरक्ति को भी हम
जवाब देंहटाएंधीर-धीरे
समझने लगे...
बहुत करीब होने पर कुछ भी अनजाना नहीं रहता , ना प्रेम ,ना विरक्ति !
वाह !
जवाब देंहटाएंसमायोजन कि इच्छा हो तो भाषा की दीवार कब तक टिकेगी।
जवाब देंहटाएंठक से अंदर उतर गयी ये कविता !
जवाब देंहटाएंअच्छा है !
जवाब देंहटाएंकमाल की कविता है!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव प्रेषित हो रहे हैं।
अच्छी कविता.
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन ......विरक्ति में आसक्ति
जवाब देंहटाएंso simple yet so powerful..
जवाब देंहटाएंamazing
वाह...क्या कह डाला ....
जवाब देंहटाएंअर्थ गाम्भीर्य और काव्य सौन्दर्य ने अभिभूत कर लिया...
aap sabka shukriya.
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