मुद्दा बनाओ और घेर लो

आज की राजनीति में जनहित और नएपन के नाम पर केवल इतना ही है,  रोज़ मुद्दे पैदा करो और घेर लो। फिर इसी पर बहस होगी,इसे ही चलाया जाएगा। बंद समाज या ऐसे भीतरी इलाके जहां जनजागृति अब भी पहुंची नहीं है वहां भी कुछ ऐसा ही होता है, खासतौर पर महिलाओं के साथ। बेड़ियों में बंद  समाज को यह स्वीकारना बड़ा मुश्किल होता था कि स्त्री भी बोले या अपने हक़ की बात करे। समाज के ठेकेदार उस ढांचे को बिलकुल भी क्षति नहीं पहुंचाना चाहते  जिसमें स्त्रियां चुप हैं। कभी-कभार एक दो महिलाएं अचानक अपने हक के लिए लड़ती हुई नज़र भी आती हैं  तो कह दिया जाता है कि इस पर प्रेत का साया है। उसे भोपे,तांत्रिक और बाबाओं कर हवाले कर दिया जाता है । इस पर भी जो बात न बने तब  'नेरेटिव’ सेट किया जाता कि यह स्त्री तो डायन है ,चुड़ेल है बच्चों को खा जाती है। यह नेरेटिव स्थापित होते ही कुछ तेज तर्रार तत्व सक्रिय हो जाते और गांव में उस स्त्री का निकलना मुश्किल हो जाता और डायन-डायन कह कर उसे घेर लिया जाता है । भारत में आज भी महिलाओं से जुड़ी यह दर्दनाक हकीकत सामने आती रहती है और राज्य विशेष को इस शब्द डायन पर प्रतिबंध लगाना पड़ा है ताकि स्त्री का सम्मान सुरक्षित रहे।

भारतीय राजनीति में भी सत्ता के मायने कुछ ऐसे ही ही गए हैं। नेरेटिव बनाओ और घेर लो। सवाल- जवाब, बहस में किसी का यकीन नहीं रहा। शोर और केवल शोर लोकतंत्र के उस मंदिर की हकीकत बना दी गई है  जिसके सदस्यों को लंबी कवायद के बाद हम और आप चुनते हैं। ठीक है कि सत्तापक्ष की असहमति हो कि संसद के एक सदस्य ने अपनी तकलीफ़ ब्रिटैन जाकर ज़ाहिर की  लेकिन सत्ता पक्ष बजाय उसे बोलने के मौका देने के उसकी सदस्यता ख़ारिज करने की मांग करे और इस तरह  प्रचार करे कि देश को अपमानित किया गया जैसा कि केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा भी  _" राहुल गांधी ने एक ऐसे देश में जाकर विदेशी ताकतों का आह्वान किया,जिसका इतिहास भारत को गुलाम बनाने का रहा है। आज हर भारतीय नागरिक संसद से माफ़ी मांगने की बात कर रहा है। संसद केवल सांसदों का जमावड़ा नहीं है बल्कि भारतीय जनता का सामूहिक स्वर है और भारतीयों की इच्छाशक्ति की संवैधानिक प्रतिच्छाया है।" तब ये  सांसद किसकी प्रतिच्छाया हैं जो पिछले डेढ़  महीने से हिंडनबर्ग रिपोर्ट की जांच की मांग कर रहे हैं । क्या ये देश की जनता की आवाज़ नहीं? क्या सरकारों को कभी ये खयाल आता है कि वे जो बोल रहे हैं वह किस कदर एकतरफा है। यहाँ भाषा का अलंकार तो है लेकिन आत्मा सिरे से गायब है। 

अडाणी समूह के कामकाज के संदिग्ध तरीकों का खुलासा अब देश के अख़बार भी कर रहे हैं। हिंडनबर्ग की इस रिपोर्ट 'अडानी ग्रुप : हाउ वर्ल्ड्स थर्ड रिचेस्ट मैन इज़ पुलिंग द लार्जेस्ट कॉन इन कॉर्पोरेट हिस्ट्री' में मॉरीशस स्थित एक कंपनी को संदिग्ध माना था। अब एक बड़े अखबार ने अपनी खोजी रपट में लिखा है कि  कंपनी का नाम इलारा कैपिटल है और इसने इलारा इंडिया ओपोर्चुनिटीज़ फंड (इलारा आईओएफ )के ज़रिये अपने कुल कैपिटल का 96 प्रतिशत निवेश अडानी समूह में किया है। यह राशि जो कि नौ हज़ार करोड़ के करीब है इसने अडानी की तीन कंपनियों में निवेश किया है। इस कंपनी ने अडानी समूह की रक्षा से जुड़ी बंगलौर स्थित कंपनी अल्फ़ा डिज़ाइन टेक्नोलॉजी प्राइवेट(एडीटीपीएल ) लिमिटेड के तहत देश की रक्षा में शामिल मिसाइल और रडार के काम का ज़िम्मा लिया है। यह कंपनी इसरो और डीआरडीओ के साथ मिलकर काम करती है। ज़ाहिर है देश के रक्षा संबंधी काम में विदेशी कंपनी इलारा आईओ एफ का निवेश है। निवेश कानूनन हो सकता है लेकिन 96 प्रतिशत निवेश केवल अडाणी समूह में सवाल खड़े करता है। इस कंपनी को हिंडननबर्ग ने भी फर्जी श्रेणी में रखा है और सुप्रीम कोर्ट की जांच में भी पड़ताल के लिए यह कंपनी आधार बनी है। हिंडनबर्ग को दिए अपने चार सौ पेज के   के जवाब  में एक जगह अडानी समूह वसाका प्रमोटर्स नाम की एक कंपनी का जिक्र करते हैं जो इलारा की मालिक है और उसका एडीटीपीएल में लगभग 57 फ़ीसदी हिस्सा है। अख़बार का कहना है कि इस मामले रक्षा मंत्रालय ने टिप्पणी करने से इंकार किया। 

सत्तापक्ष  माफ़ी और निष्कासन की मांग कर रहा है तो विपक्ष हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद अडानी समूह के मामले में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की। संसद के दोनों सदनों में तूफ़ान मचा है।  देशहित में  कोई  कार्यवाही नहीं  केवल शोर और व्यवधान। इस पूरे हफ्ते संसद ठप रही। सत्ता पक्ष भी  विपक्ष की भूमिका में उतर आया है। उसने वही चोला पहन लिया है जो 2014 से पहले पहन रखा था।पक्ष और विपक्ष की बजाय देश को दो-दो विपक्ष दिखाई दे रहे हैं। अब ये दो विपक्ष मिलकर देशहित में कौन से निर्णय लेंगे यही जनता चाहती है। संसद जहां चुने हुए नुमाइंदे विचार विमर्श करते हैं , सवाल-जवाब करते हैं, वहां सिर्फ शोरगुल है।  देश मजबूर है इन दोनों का  तमाशा देखने के लिए और दुनिया शायद यह भी समझने की कोशिश कर रही है कि जिस राहुल गांधी पर लोकतंत्र के कमजोर होने वाली बात कहने के लिए माफी मांगने का दबाव है वहां भला बोलने कीआज़ादी है तो कहां है ।सत्तापक्ष को अगर राहुल गाँधी का वक्तव्य निराश करनेवाला लगता भी हो तब भी उनके सदन से निष्कासन की मांग लोकतंत्र को मजबूत नहीं करेगी उस परंपरा को सशक्त नहीं करेगी जिसका आधार तर्क और सवाल -जवाब का रहा है। पुलिस में शिकायत भी मामले को बढ़ा-चढ़ा कर देखने की ही कवायद मालूम होती है। 


हंगामे और शोरशराबे के बीच संसद की कार्यवाही का सोमवार तक के लिए स्थगित हो जाना बताता है कि सत्ता भी सदन को चलाने में रुचि नहीं ले रही। शनिवार को राहुल गाँधी सदन में जवाब देना चाहते थे। उन्होंने एक पत्रकार वार्ता में कहा था कि मुझ पर चार मंत्रियों ने इलज़ाम लगाए हैं जिसका जवाब  सदन में ही देना चाहता हूँ। उन्हें यह मौका नहीं दिया गया। तब क्या सरकार राहुल गांधी की आवाज़ को दबाना चाहती है ? क्या इससे राहुल गांधी का लोकतंत्र को कमज़ोर करने का आरोप सिद्ध नहीं होता। यहाँ यह बताना भी दिलचस्प होगा कि यूके की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से एक न्योता भाजपा के सांसद और राहुल के चचेरे भाई वरुण गाँधी को भी मिला है। वहां उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों पर पक्ष या विपक्ष में अपनी राय रखनी थी। वरुण गाँधी ने न्योते को अस्वीकार कर दिया। वरुण गांधी ने जवाब में लिखा कि भारत पिछले सात दशकों से प्रगति की दिशा में अग्रसर है और मेरे जैसे नागरिकों को तमाम मुद्दों पर बात करने की  आजादी है।  इस जवाब से  ज़ाहिर है कि यही लोकतंत्र है, जहां दो दल, दो पार्टियां या दो भाईयों के भी अलग -अलग मत हो सकते हैं। 






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