दर्द की रात अब ढल चली है

 लोकपर्व होली के आते ही व्यवस्था भी लोक की परवाह करने लगेगी ,यह सुनना ही बड़ा नया और ऐतिहासिक है । सरकार में हों या सरकार के बाहर खेलने के लिए सबको एक ही पिच मिलेगी तो बेशक नतीजों के भी सही और  निष्पक्ष होने के आसार बढ़ेंगे। यह तो ज़ाहिर बात है कि अगर किसी की नियुक्ति और मुक्ति सरकार के इशारे पर होगी है तो यह बहुत मुश्किल होगा कि वह अपने पद से स्वतंत्र फ़ैसले ले पाए। वह जानता है कि प्रतिकूल फ़ैसले लेते ही उसकी छुट्टी होगी या फिर वह किसी ठंडी पोस्टिंग पर धकेल दिया जाएगा। राज्यों की पुलिस ऐसे ही तबादलों और आकाओं की ख़ुश करने की  प्रवृत्ति के चलते कभी जनता की सुनवाई नहीं कर पाती। व्यवस्था केवल चुनिंदा अफसरों के दम पर टिकी होती है जो अभी भ्रष्ट नहीं हुए हैं। लोकतंत्र की अवधारणा में सबसे सशक्त किसी को होना चाहिए तो वह लोक को यानी जनता को। जनता निडर होकर मतदान कर सके और जिस संस्था पर यह जिम्मा है वह उसे यह मौका दे। उसे ऐसा ना लगे कि कोई तो समूची सरकारी मशीनरी के साथ मैदान में है और दूसरा बिलकुल खाली हाथ। गुरूवार को पांच जजों की खंडपीठ ने लोकतंत्र को मज़बूत करते हुए फ़ैसला दिया है कि अब मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री ,लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और भारत के प्रधान न्यायाधीश मिल कर करेंगे। नामों की सिफ़ारिश बेशक सरकार करेगी लेकिन चयन का अधिकार इन तीनों के चयन के बाद राष्ट्रपति का होगा। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला सर्वसम्मति से हुआ है। इससे पहले नोटबंदी पर आए फैसले में  पांच जजों की पीठ में से एक, जस्टिस बी. वी.नागरत्ना असहमत थीं। 

  इस फैसले की आलोचना करने वाले भी हैं जो इसे 'जुडिशल एक्टिविज्म' का नाम दे रहे हैं लेकिन अगर यह एक्टिविज्म भी है तो  मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की दिशा में आया महत्त्वपूर्ण और स्वागत योग्य कदम है। याद करें तो आज भी मुख्य चुनाव आयुक्तों की फेहरिस्त  में से  टी एन शेषन ( 1990 -1996 )और जेम्स माइकल लिंगदोह(2001 -2004 ) के आलावा किसी और का नाम याद नहीं आता है। पिछली सदी के अंतिम दशक में टी एन शेषन के नेताओं से टकराव के स्वर सामने आते थे क्योंकि वे नेताओं की अपेक्षाओं को दरकिनार कर जनता का पक्ष चुनते थे। मतदाता पहचान पत्र उन्हीं की पहल का नतीजा है। निष्पक्ष चुनाव के लिए तब नियमों का कड़ाई से पालन होता था। अब तो ऐसी कई शिकायतें सामने आई हैं जहाँ चुनाव की तारिख से लेकर चुनाव प्रचार तक के नियमों की धज्जियाँ उड़ा दी जाती हैं। एक अधिकारी रातों -रात अपने पद से इस्तीफ़ा देते हैं और अगले ही दिन चुनावआयुक्त बना दिए जाते हैं।   शिवसेना उद्धव ठाकरे की  होगी या शिंदे की इसका फ़ैसला भी शिंदे के हक़ में हो जाता है । सब जानते हैं कि महाराष्ट्र में शिवसेना के भारतीय जनता पार्टी को समर्थन ना दिए जाने पर कौन नाख़ुश था। एकतरफा फैसलों की आशंका  हमेशा बढ़ेगी अगर जो नियुक्ति का अधिकार पूरी तरह सत्तापक्ष के पास ही रहा। चुनी हुई सरकार की ताकत सर्वोच्च है लेकिन जनता के हित में फैसले लेने के लिए ,जनता किस तरह अपनी सरकार चुनेगी यह व्यवस्था स्वतन्त्र ही होनी चाहिए। 

सवाल यह भी है कि क्या सरकार इस फ़ैसले को चुनौती देगी? निर्णय पांच जजों की सर्वसम्मत पीठ का है इसलिए संभावना कम है। सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था तब तक के लिए दी है जब तक सरकार संसद में नया क़ानून बनाकर पास नहीं करती। नया  क़ानून बनने तक यही क़ानून रहेगा। कोर्ट सरकार को निर्देशित कर सकता है कि आयोग के वित्त की व्यवस्था अलग सचिवालय बनाकर की जाए।  जस्टिस के. एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाली इस पीठ  ने फ़ैसले के साथ जो टिप्पणियां आई हैं वे भी काफी महत्पूर्ण हैं -" लोकतंत्र की रक्षा के लिए चुनाव प्रक्रिया का पाक साफ होना जरूरी है अन्यथा इसके विनाशकारी नतीजे मिलेंगे। व्यक्ति जो इस पद पर चुना गया है वह उसके दबाव में रहेगा जिसे उसने चुना है तब वह लोकतंत्र के मज़बूती के लिए काम नहीं कर पाएगा। लोकतंत्र उस आम आदमी को मिला महत्वपूर्ण अधिकार है जिसके जरिये वह शांतिपूर्ण तरीके से क्रन्तिकारी बदलाव ला सकता है।" बेशक निष्पक्ष चुनाव किसी भी लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है लेकिन क्या इस फ़ैसले को सरकार और सर्वोच्च न्यायालय की उस खींचतान की रौशनी में भी देखा जाना चाहिए जो पिछले दिनों देश ने देखी?

  खींचतान की शुरुआत तब हुई  थी जब नए बने उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने अपने भाषण में जजों की नियुक्ति के संबंध में सदन में संदेह व्यक्त किया था। उन्होंने पूछा था कि आख़िर किस हैसियत से सर्वोच्च न्यायालय ने जजों की नियुक्ति वाले विधेयक को ख़ारिज किया था। क़ानून मंत्री के बयान तो पहले से ही लक्ष्मण रेखा से जुड़कर आ ही रहे थे। बेशक जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम में कोई कमीबेशी  हो सकती थी  लेकिन उसे यूं चौराहे पर लाकर चर्चित कर लोकतंत्र के मजबूत पाए  को डिगाने की कोशिश क्योंकर हो रही थी ? कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर शीतकालीन सत्र के बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ जयपुर के पीठासीन अधिकारियों के सम्मलेन में भी मुखर रहे थे । सदन में लगभग चेतावनी देने वाले अंदाज़ में उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) विधेयक को रद्द करने के लिए न्यायपालिका को  लक्ष्मण रेखा की याद दिलाई थी। दरअसल NJAC बिल संसद के दोनों सदनों से पास हुआ था, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने खारिज कर दिया था। अब जो हुआ है वह यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्त के लिए भी कॉलेजियम जैसी ही स्वतन्त्र व्यवस्था का प्रावधान कर दिया है। अगर जो सर्वोच्च न्यायालय के जज भी पूरी तरह से सरकार की कृपा पर होते तो लोकतंत्र के हित में ऐसा फ़ैसला आना मुश्किल होता। यह अभूतपूर्व है क्योंकि सरकार कोई  भी हो वह अपनी प्रवृत्ति से ही संवैधानिक  संस्थाओं को भी आज़ादी नहीं देना चाहतीं।  सभी  ने यही चाहा कि चुनाव आयोग उनके इशारों पर काम करे और मुख्य चुनाव आयुक्त उनकी पसंद का हो। 

  विरोध की आवाज़ों में एक रोचक आवाज़ वकील शशांक शेखर झा की है जिन्होंने कहा है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश खुद समिति में शामिल हो गए हैं ,अब केवल भारत के राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री, सेनाध्यक्ष और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर को चुनने के लिए उन्हें खुद को शामिल करना शेष है । दरअसल कुछ लोग यहाँ इस द्वन्द को भी देख रहे हैं कि लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तम्भों में कौन शक्तिशाली है। वे मानते हैं जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का निर्णय सबसे ऊपर होना चाहिए। ठीक है लेकिन जब इन प्रतिनिधियों के चुनने की प्रक्रिया में ही सुधार अपेक्षित हो तब  कौन निर्णय लेगा ? फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय लिया है और यह भी कहा है कि नया  कानून बनने तक ही यह लागू रहेगा। 

बात जुडिशल एक्टिविज्म की की जाए तो इसी हफ्ते दो जजों की टिप्पणी भी बेहद महत्वपूर्ण रही है। जस्टिस बी. वी.नागरत्ना और जस्टिस के. एम. जोसेफ की पीठ ने भाजपा नेता और वकील की याचिका  को ख़ारिज करने से पहले टिप्पणी की कि वे  इन मुद्दों को जीवित रख ,देश को उबाल पर लाना चाहते हैं। किसी भी देश के अतीत ,वर्तमान और भविष्य को  इस हद तक परेशान नहीं करना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियां अतीत की बंदी बन जाएं। याचिका देश के एक हज़ार जगहों के नाम बदलने के लिए लगाई  गई थी।

इस मौसम में जब फूल खिलकर मुस्कराने लगे हैं ,उनके रंग माहौल में दिखने लगे हैं। उम्मीद की एक नज़्म  इंकलाबी शायर फैज़ अहमद फैज़ की क़लम से भी चली है। उसी की चंद पंक्तियां 

लाख पैग़ाम हो गए हैं 

जब सबा एक पल चली है 

जाओ अब सो रहो सितारो

 दर्द की रात अब ढल चली है। 





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