लड़कियों के लिए सामाजिक व्यवस्था अब भी क्रूर और जजमेंटल


चंडीगढ़ की वामिका हो या जयपुर की स्वप्निल समाज और व्यवस्था अब भी इनके लिए बेहद क्रूर हैं । समाज इन्हें अपनी निगाहों  से तौलता -परखता रहता है और क़ानून व्यवस्था वह मंच नहीं दे पाती जहां वे निडर होकर अपनी पीड़ा कह सकें। कई बार दोनों युति बनाकर पीड़िताओं के हक़ में होने से इंकार करती हैं। नतीजतन एक के बाद एक कई लड़कियां और महिलाएं जुर्म का शिकार होती चली जाती हैं। आधी आबादी की तरक़्क़ी के रास्ते रुक जाते हैं। परिवार उन्हें कैद रखने में ही अपना हित समझने लगता हैं। उनकी पूरी कोशिश केवल इतनी होती है कि लड़की मायके में सुरक्षित रह कर सीधे ससुराल सुरक्षित पहुंच जाए। आंख फिर केवल तब खुलती है जब ससुराल से बेटी की असमय संदिग्ध मौत की ख़बर मिलती है।अब भी कई परिवार इसी सोच पर यकीन रखते हैं कि हमने डोली सजा दी , अब अर्थी भी वहीं से सज-धज कर  निकले। यह सोच घरेलू हिंसा को बढ़ावा देती है। कुछ माता-पिता विवाहित बेटी को घर में रखना भी चाहते हैं तो समाज दबाव बनाता है। अफ़सोस कि  इस इतवार को जयपुर की स्वप्निल संदिग्ध हालात में मौत की नींद सो गई और चंडीगढ़ की वामिका के आरोपी को बीच सुनवाई में सरकार ने ज़िम्मेदार पद पर बैठा दिया। अपराधी को दंड तो दूर उलटे नवाज़ने के लिए ये बढ़ते जतन समाज के भीतर इन्हें 'सुपर इम्युनिटी' दे देते हैं। स्त्री का आज़ाद चेहरा अव्वल तो भ्रम है और जो है भी तो बहुत छोटे हिस्से का सच है। 


स्वप्निल से पहले चंडीगढ़ की वामिका कुंडू की बात, जिसके आरोपी विकास बराला को हरियाणा सरकार ने हाल ही में असिस्टेंट एडवोकेट जनरल बना दिया है। विकास फ़िलहाल  ज़मानत पर बाहर है। यह अगस्त, 2017 की घटना है जब आरोपी ने चंडीगढ़ की सड़कों पर वामिका का पीछा किया। अपने एक साथी के साथ उसकी कार में घुसकर उसे अगुआ करने की कोशिश की लेकिन साहसी वामिका ने हिम्मत नहीं हारी। किसी तरह वह बचती-बचाती रही। चंडीगढ़ की सड़कों के सीसी टीवी फुटेज इस घटना के गवाह बने। ख़ुद को बचाने के इस संघर्षपूर्ण साहस के लिए उन दिनों के स्थानीय और राष्ट्रीय अख़बार वामिका की तारीफों से अटे हुए थे। अगस्त, 2017 में आरोपी को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया था। वह क़ानून का विद्यार्थी था, उसे परीक्षा देने की अनुमति भी मिली लेकिन जनवरी, 2018 से वह ज़मानत पर बाहर आ गया जबकि उस पर चंडीगढ़ पुलिस ने धारा  354 डी (घूरने), 341 (ग़लत आचरण ), 365 (अपहरण की कोशिश) और धारा 511 के तहत अपराध दर्ज़ किए हैं। यानी आरोपी अपराध तो करना चाहता था लेकिन किसी कारण से वह सफल न हो सका। विकास पर नशे में गाड़ी चलाने का भी इलज़ाम था। 

वामिका के पिता वीएस कुंडू आईएएस अफ़सर हैं और आरोपी के यूं सरकारी सिस्टम का हिस्सा बनने के बाद उन्होंने कहा कि इस पर मेरी या वामिका की टिप्पणी की क्या ज़रूरत है? यह सरकार को देखना चाहिए कि वह ज़िम्मेदार पदों पर कैसे लोगों को नियुक्त कर रही है जबकि केस अब भी चल रहा है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। एक अंग्रेज़ी अख़बार से बातचीत में उन्होंने कहा कि हमने न्याय व्यवस्था में गहरी आस्था के साथ इस केस को रखा था लेकिन सात साल हो गए, कुछ नहीं हुआ। गौर करना चाहिए कि आरोपी के पिता सुभाष बराला उस समय भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष (2014-2020) थे और अब इसी पार्टी से राज्यसभा के सांसद हैं। क्या यह समझना मुश्किल है कि हाई प्रोफाइल मामलों में देर क्यों होती है जबकि ऐसे पदों से मिसाल पेश की जानी चाहिए ताकि लड़कियां बेख़ौफ़ होकर अपनी ज़िन्दगी और केरियर की राह चुन सकें। संकेत साफ़ हैं श कि एक आईएएस की बेटी के लिए भी न्याय का रास्ता काफ़ी टेढ़ी डगर से ही गुज़रता है। बरसों-बरस मामला खिंचता है और अपराधी सरकारी पद भी पा जाता है। 
ऐसे में कहा जा सकता है कि उत्तराखंड की अंकिता भंडारी को ज़रूर न्याय मिला लेकिन वह अब दुनिया में नहीं है। अंकिता भी केवल 19 साल की थी और देहरादून के रिसोर्ट में रिसेप्शनिस्ट थी। उसकी हत्या रिसोर्ट के मालिक पुलकित आर्य ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर कर दी थी। अंकिता का शव छह दिन बाद ऋषिकेश की नहर से बरामद हुआ था। वह 18 सितंबर, 2022 से गायब थी। अंकिता के पिता सुरक्षा गार्ड थे और वह दस हज़ार रूपए की नौकरी से पिता की आर्थिक मदद करना चाहती थी। केवल उत्तराखंड में नहीं समूचे उत्तर भारत की निम्न  मध्य और मध्यम आयवर्गीय बेटियों की राह में काम करने की राह में कई चुनौतियां हैं। मेहनत कर के मुक़ाम पाने की राह में ये लड़कियां अपराधियों के हत्थे चढ़ जाती हैं। नतीजतन देश की आधी आबादी अब भी घर की चार दीवारी में ही सुरक्षा देखती है लेकिन स्वप्निल के मामले में तो उसका घर ही उसकी जान ले गया। 
इस घटना के लिखने को एक 'कन्फेशन नोट' कहना ज़्यादा सही होगा क्योंकि अगर जो भीतर जाया जाता तो बहुत कुछ बचाया जा सकता था। इन दिनों हर कोई इस कदर सभ्य हो गया है कि कोई  किसी के मामले में न दाख़िल होना चाहता है और न दखल देना। लगभग दो साल पहले ही स्वप्निल हमारी बिल्डिंग के एक फ्लैट में आकर रहने लगी थी। पति और बच्चे के साथ परिवार को देखकर सभी आश्वस्त हो जाते हैं कि परिवार है, सब कुछ सही ही होगा। अकेले लड़के-लड़कियों को ज़रूर शक़ की निगाह से देखा जाता है। इस परिवार को  रहते हुए कुछ ही समय  बीता होगा कि एक दिन स्वप्निल रात के समय ज़ोर-ज़ोर से पड़ोसी का दरवाज़ा पीटते हुए चीख़ रही थी कि उसे बचा लो, उसका पति उसे मार डालेगा। परिवार का मामला मानकर सभी ने उसे समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। शायद इसी समय पीड़िता समाज से उम्मीद करती  है कि उसकी रक्षा की जाए, उसकी तकलीफ़ सुनी जाए। पुलिस के पास जाने की हिम्मत बहुत कम महिलाएं जुटा पाती हैं।
 वामिका ज़रूर अपने पिता के सहयोग से ऐसा कर पाती है लेकिन न्याय तब भी नसीब नहीं हो पाता। स्वप्निल भी पुलिस के पास नहीं गई। उसका ससुराल पक्ष जो क़रीब ही रहता था, बिल्डिंगवासियों को बहू के अजीबो-गरीब किस्से सुना कर चला गया कि इसके ही लक्षण ठीक नहीं हैं और यह अच्छी बहू होने के काबिल नहीं है। बिल्डिंगवासी दोबारा अपनी ज़िन्दगी में शामिल हो गए। बाद में पता चला कि स्वप्निल को कैंसर हो गया है और वह अब ठीक भी हो रही है। इस बीच कुछ महीनों तक फ्लैट खाली रहा। फिर यह परिवार लौट आया। लगा जैसे इनकी ज़िन्दगी अब सामान्य है और पति -पत्नी में सुलह हो चुकी है। यह सच नहीं था। बमुश्किल एक महीना भी नहीं बीता था कि स्वप्निल के फ्लैट के आगे शोर था और पड़ोसी घबराए हुए एम्बुलेंस और पुलिस को फ़ोन कर रहे थे। बेसुध स्वप्निल ज़मीन पर पड़ी थी और चुन्नी पंखे से लटक रही थी। बच्चा घबराहट में कांप रहा था, रो रहा था और उसका पति कभी दौड़ता तो कभी उसे पानी पिलाता। पुलिस एम्बुलेंस से पहले आ गई। वह वीडियो बनाते हुए घर में दाखिल हुई, जब हाथ जोड़कर प्रार्थना की गई कि पहले अस्पताल ले जाया जाए तो वे उसे जयपुर के ही सवाई मान सिंह अस्पताल ले गए लेकिन स्वप्निल ज़िंदा नहीं थी। बाद में स्वप्निल के पिता ने अपनी बेटी को दहेज़ के लिए  प्रताड़ित करने की बात पुलिस से कही और कहा कि पति समेत पूरे परिवार ने मेरी बेटी की जान ले ली। नशे का आदी उसका पति उसे पीटता था इसलिए वह कुछ समय मेरे पास आकर रही थी। शायद यह सब कहने में देर हो चुकी थी। स्वप्निल की मौत आत्महत्या है या हत्या, क़ानूनी पड़ताल का विषय है लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में वह समाज से कई सवाल करती है। आत्महत्या एक व्यक्ति की नहीं समाज के कमज़ोर ताने-बाने की असफलता है। बिना मदद के स्वप्निल जैसी अनगिनत महिलाएं घुटती ही चली जाती हैं। कभी वे खुद अपना गला घोंट लेती हैं तो कभी घर की हिंसा उन्हें मार देती है। मदद के अभाव में वे अलग होने का फ़ैसला भी नहीं कर पाती।  अनामिका सिंह की कविता बहुत कुछ कहती है-

चिमनियां, तीलियां, डोरियां चाहिए
दाहने, टांगने बीवियां  चाहिए।
सेंकने रोटियां अपने घर की उन्हें
सिर्फ़ औरों के घर बेटियां चाहिए।
जो सितम सह के भी बोलती कुछ न हों
बज़्म में वो हसीं तितलियां चाहिए।
हुक्म जो रात-दिन उनका माना करे
उनको साथी नहीं दासियां चाहिए।
रोकने को दमन जिस्म और रूह पर
खेलनी फाइनल पारियां चाहिए।
आप इंसान तो हम भी इंसान हैं
आत्मसम्मान संग झप्पियां चाहिए। 
वक़्त रहते ज़ुबां खोल दो लड़कियो!
ज़िन्दगी की हमें चाबियां चाहिए।


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