बिहार: 'सर' पर क्यों है संदेह
जैसे–जैसे कृष्ण पक्ष का पखवाड़ा अमावस की काली रात की ओर बढ़ता जाता है ठीक वैसे ही बिहार चुनाव में सर(स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न )के काम में भी हर रोज़ कोई न कोई खामी जुड़ जाती है। पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने तो कह भी दिया कि यह प्रक्रिया पूरी तरह से अनुचित, आक्रामक और जल्दबाज़ी में की गई ऐसी क़वायद है जिसका इस समय किया जाना कतई ज़रूरी नहीं था। सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में भी जारी है क्योंकि पहचान के जो ज़रूरी दस्तावेज़ हैं जैसे वोटर आईडी ,राशन कार्ड, यहां तक की आधार कार्ड भी इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किए गए हैं। अब जो नई मतदाता सूची बनेगी उसके लिए 2003 के बाद शामिल मतदाताओं की गहन जांच होगी। यही रिविज़न है। प्रशासन पर 30 सितंबर तक इसे पूरा करने का ऐसा दबाव है कि कहीं कहीं बीएलओ ख़ुद ही मतदाता के फॉर्म भर रहे हैं और फ़र्ज़ी हस्ताक्षर भी कर रहे हैं। अब सवाल यही है कि क्या चुनाव आयोग नया गृह मंत्रालय है जो नागरिकता के प्रमाण-पत्र भी बांटेगा। संवैधानिक स्तर पर ही चुनाव आयोग की भूमिका जोड़ने की रही है ,हटाने की नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि आयोग इन पहचान पत्रों को शामिल करे। भारतीय जनता पार्टी सरकार की दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी तेलुगुदेशम ने भी चुनाव आयोग से मांग कर दी है कि चुनाव प्रक्रिया के इस सर (स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न ) को स्पष्ट किया जाए और साबित किया जाए कि इसका नागरिकता से कोई लिंक नहीं है। आंध्र प्रदेश के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भी सामने आ गए हैं क्योंकि चुनाव आयोग बिहार की ही तरह पूरे देश में जनवरी 2026 तक सर की क़वायद पूरी करा देना चाहता है।
बिहार के सात ज़िले नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगते हैं और यह एक खुली सीमा है। नागरिक बिना किसी रोक-टोक के आ-जा सकते हैं। इन ज़िलों से नेपाल का रोटी -बेटी का रिश्ता है। तब क्या अब बांग्लादेश, म्यांमार की तरह नेपाल के नागरिकों से भी दिक़्क़त होने लगी। संभव है कि इस खुली सीमा की वजह से सरकार को आशंका हो कि विदेशी नागरिक यहां बसे हो लेकिन फिर तकलीफ़ आम आदमी को क्यों दी जाए ? इन दिनों तो पश्चिम बंगाल से बिहार आकर बसे और बंगाली बोलने वाले नागरिक भी बांग्लादेशी मुसलमान मानकर हिकारत से देखे जाते हैं। कई राज्यों और विविधता वाला भारत महीन धागों से एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। इससे छेड़छाड़ ख़राब सियासी माहौल को जन्म देती है। कोलकाता में एक बड़ी रैली कर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी हुंकार भर दी है कि देश भर में बंगालियों को सताया जा रहा है। सरकार का यही तरीका है कि पहले बंगालियों की बुद्धि और अनुभव का लाभ लो और फिर उन्हें डिटेंशन सेंटर में डाल दो। अब की बार बंगाल भारतीय जनता पार्टी की सियासत को ही डिटेंशन सेंटर में डाल देगा। एक और गंभीर पहलू सामने आया है कि जो पत्रकार सीधे बिहार जाकर मतदाताओं की परेशानी दिखा रहे हैं उन पर एफआईआर दर्ज़ की जा रही है।
बेशक ममता बैनर्जी विपक्ष में हैं लेकिन चन्द्रबाबाबू नायडू की तेलगुदेशम पार्टी ने भी बिहार का मुद्दा उठा दिया है। पार्टी ने मंगलवार को दिल्ली में चुनाव आयोग के अध्यक्ष ज्ञानेश कुमार के साथ हुई बैठक में चार पन्ने का पत्र दिया है जिसमें नई सूची के तैयार होने में छह महीने के वक्त को बहुत कम बताया है और चुनाव आयोग की इस सारी क़वायद की जांच एक निष्पक्ष संवैधानिक संस्था कैग, नियंत्रक,महालेखापरीक्षक से कराए जाने की मांग भी कर दी है। ज़ाहिर है कि एक ऐसे राज्य में जहां साक्षरता बेहद कम और प्रशासकीय सेवाओं में अब भी पिछड़ापन पसरा हो वहां तकनिकी दक्षता से काम नहीं हो पा रहा है। तमाम बीएलओ ख़ुद पर्चे भर रहे हैं और चुनाव आयोग रोज़ सूची पूरी करने के आंकड़े पेश करने में लगा है। कई जगह बीएलओ की तनख़्वाह भी रोकी गई है। नई सूची पूरी करने की (25 जुलाई तक ) जो तलवार चुनाव आयोग ने लटका रखी है, उससे कई तरह की ग़फ़लत सामने आ रही है। पत्रकार अजित अंजुम के वीडिओ मैं जो कैद हुआ है, वह हैरान कर देने वाला है। यह वीडिओ पटना से पंद्रह किलोमीटर दूर पटना शरीफ का है जहां तमाम बीएलओ इकट्ठे होकर फॉर्म के गट्ठर लिए बैठे हैं। उनके सामने एक मतदाता सूची है और वे खुद ही इस सूची के आधार पर नाम दर्ज़ कर रहे हैं और फॉर्म पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। ये मतदाता कौन हैं ,हैं भी या नहीं इसकी जवाबदेही किसकी होगी ? यह कैसी सरकारी लिस्ट बन रही है जिसमें न मतदाता की तस्वीर है और ना हस्ताक्षर ? अजित अंजुम वही पत्रकार हैं जिन पर सोमवार को बेगूसराय में एफआईआर यह कह कर दर्ज़ की गई कि वे सरकारी कामकाज में बाधा डाल रहे थे और सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ रहे थे। इस एफआईआर का कई पत्रकार संगठनों और पत्रकारों ने जबरदस्त विरोध किया है। एक वरिष्ठ पत्रकार लिखते हैं -ग्राउंड ज़ीरो से सच्चाई की रिपोर्टिंग अब अपराध है। देश के एक बहुचर्चित, जुझारू और ज़मीनी पत्रकार अजीत अंजुम के ख़िलाफ़ एफ़आईआर होना सिर्फ़ एक व्यक्ति पर हमला नहीं, पत्रकारिता की आत्मा पर आघात है। यह एक चेतावनी नहीं, उस भयावह दिशा की ओर इशारा है, जहां सच्चाई दिखाना और बोलना गुनाह बनता जा रहा है। 25 जून को जिन लोगों ने आपातकाल के नाम पर लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया, वही लोग आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने की कोशिश कर रहे हैं।
फ़िलहाल ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग को ही अपनी भूमिका की समीक्षा करना ज़रूरी हो गया है। इस संवैधानिक संस्था ने अपनी साख दशकों की तपस्या से अर्जित की है। केवल इस लक्ष्य के साथ कि कोई देशवासी चुनाव के महायज्ञ में आहुति देने से छूट ना जाए और चुनाव निर्बाध संपन्न कराए जा सकें। पानी में तैरकर ,घने जंगलों में, नक्सलियों के साए तले उस अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने के जटिल काम में आयोग बरसों से लगा रहा है। लोकतंत्र में ऐसी ही आस्था के चलते ही आज भारत और उसका लोकतंत्र पूरी दुनिया में सम्मान और अचरज के मिले-जुले भाव से देखा जाता है। भारत की भौगोलिक विविधता के साथ यह कतई आसान नहीं है। आज वैश्विक पटल पर भारत के नेताओं की कोई साख है तो उसकी बड़ी वजह हमारा लोकतंत्र है और लोकतंत्र को मज़बूती देने वाला चुनाव आयोग।आयोग की साख पर संदेह के बादल नहीं छाने चाहिए। इसकी विश्वसनीयता बनी रहनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 28 जुलाई को होनी है। 30 सितंबर बिहार में नई चुनावी सूची तैयार हो जाने की डेड लाइन है। हो सकता है कि तब तक चुनाव आयोग नागरिकों पर मतदाता होने का प्रमाण देने का दबाव डालने की बजाय उन्हें शामिल करने की खुद की मूल भूमिका पर लौट आए। अभी हाल ही में घाना की संसद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हमारे लिए लोकतंत्र सिस्टम नहीं संस्कार हैं। लगता है कि चुनाव आयोग इस संस्कार पर सिस्टम को हावी करने पर तुला है। इससे पहले 75 वर्षों की उपलब्धि को एक असाधारण उपलब्धि बताते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि "भारत का लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक अतीत हमेशा समृद्ध और दुनिया के लिए प्रेरणादायक रहा और इसीलिए, भारत को लोकतंत्र की जननी के रूप में जाना जाता है”। क्या सच में ?
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