बिहार :आख़िर क्यों है संदेह 'सर' पर
और क्यों बिहार में चुनाव आयोग को अपने ही पहचान पत्र वोटर आईडी पर शक़ है
बीते कुछ समय से देश के नागरिकों पर ही यह साबित करने का दारोमदार डाल दिया गया है कि वे इस देश के नागरिक हैं। ऐसा लगभग धमकाने की मुद्रा में है कि जो ऐसा नहीं कर पाए तो व्यवस्था आपको बाहर कर देगी। कागज़ दिखाने की ऐसी ज़ोर-ज़बरदस्ती पहले कभी नहीं देखी गई। अब नया यह कि जो काग़ज़ हैं भी तो ये पहचान के लिए काफ़ी नहीं हैं। वोटर आईडी, राशन कार्ड, यहां तक कि आधार कार्ड भी कोई मायने नहीं रखता। अब नई मतदाता सूची बनेगी और उसमें आप हो तब ही वोट डाल सकोगे। जो आवाज़ ऊंची की तो फिर घुसपैठिये का तमगा पक्का है।बिहार में बीते तीन सप्ताह से ऐसी ही क़वायद चल रही है और 'सर' जी इस बड़े अभियान में लगे हुए हैं। अब सवाल यही है कि क्या चुनाव आयोग नया गृह मंत्रालय है जो नागरिकता के प्रमाणपत्र भी बांटेगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि आयोग इन पहचान पत्रों को शामिल करे, अब यह आयोग की ज़िम्मेदारी है कि वह नागरिकों को विश्वास में ले कि यह उन्हें शामिल करने के लिए हो रहा है दूर करने के लिए नहीं। विपक्ष तो कुछ दिनों से लगातार चीख़ ही रहा है लेकिन बड़ा अपडेट यह है कि भारतीय जनता पार्टी सरकार की दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी तेलुगु देशम ने ही चुनाव आयोग से मांग कर दी है कि चुनाव प्रक्रिया के इस 'सर'- स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न को स्पष्ट किया जाए कि इसका नागरिकता साबित करने से कोई संबंध नहीं है। टीडीपी के बाद डीएमके ने भी आधार को पहचान पत्र बतौर ना लेने का विरोध किया है।
सर यानी बिहार चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूची के लिए हो रही इस विशेष गहन पुनरिक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय में भी सुनवाई जारी है। बिहार के सात ज़िले नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगते हैं और यह एक खुली सीमा है। नागरिक बिना किसी रोक-टोक के आ-जा सकते हैं। इन ज़िलों से नेपाल का रोटी-बेटी का रिश्ता है। तो क्या अब पाकिस्तान,बांग्लादेश, म्यांमार की तरह नेपाल के नागरिकों से भी हमें दिक़्क़त होने लगी। संभव है कि इस खुली सीमा की वजह से सरकार को आशंका हो कि विदेशी नागरिक इसका लाभ ले यहां बसे भी हों लेकिन फिर इसकी तकलीफ़ आम आदमी को क्यों दी जाए? आख़िर अंतर्राष्टीय सीमा की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी किसकी है। जो माहौल बनाया गया है उसमें तो पश्चिम बंगाल से बिहार आकर बसे बंगाली बोलने वाले नागरिक भी बांग्लादेशी मुसलमान कहकर हिकारत से देखे जाते हैं। कई राज्यों और विविधता वाला भारत महीन धागे से एक दूसरे से जुड़ा है, इसका ताना -बाना भी सरकार को समझना है क्योंकि कोलकाता में एक बड़ी रैली कर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी हुंकार भर दी है। रैली में उन्होंने कहा- "देश भर में बंगालियों को सताया जा रहा है। सरकार का यही तरीका है कि पहले बंगालियों की बुद्धि और अनुभव का लाभ लो और फिर उन्हें डिटेंशन सेंटर में डाल दो। अब की बार बंगाल भारतीय जनता पार्टी की सियासत को ही डिटेंशन सेंटर में डाल देगा।" एक और गंभीर पहलू सामने आया है कि जो पत्रकार सीधे बिहार जाकर मतदाताओं की परेशानी दिखा रहे हैं उन पर एफआईआर दर्ज़ की जा रही है।
अब तक खामोश रहने वाली चन्द्रबाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी ने किसी दूरदर्शी पार्टी की तरह बिहार का मुद्दा उठा दिया है जबकि फ़िलहाल वहां कोई चुनाव नहीं होने हैं । पार्टी ने मंगलवार को दिल्ली में चुनाव आयोग के अध्यक्ष ज्ञानेश कुमार के साथ हुई बैठक में चार पन्ने का पत्र दिया है जिसमें छह महीने में नई सूची के तैयार होने के वक़्त को बहुत कम बताया है और चुनाव आयोग की इस सारी क़वायद की जांच एक निष्पक्ष संवैधानिक संस्था कैग, नियंत्रक, महालेखा परीक्षक से कराए जाने की मांग भी कर दी है। ज़ाहिर है कि एक ऐसे राज्य में जहां साक्षरता बेहद कम और प्रशासकीय सेवाओं में अब भी पिछड़ापन पसरा हो वहां तकनीकी दक्षता से काम होने में समय लग सकता है। तमाम बीएलओ ख़ुद पर्चे भर रहे हैं और चुनाव आयोग रोज़ सूची पूरी करने के आंकड़े पेश करने में लगा है। कई जगह बीएलओ की तनख़्वाह भी रोकी गई है। नई सूची पूरी करने की (25 जुलाई तक) जो तलवार चुनाव आयोग ने लटका रखी है, उससे कई तरह की ग़फ़लत सामने आ रही है। पत्रकार अजित अंजुम के वीडिओ में जो कैद हुआ, वह हैरान कर देने वाला है। यह वीडिओ पटना से पंद्रह किलोमीटर दूर फुलवारी शरीफ़ का है जहां तमाम बीएलओ इकट्ठे होकर फॉर्म के गट्ठर लेकर बैठे हैं। उनके सामने एक मतदाता सूची है और वे खुद ही इस सूची के आधार पर नाम दर्ज़ कर रहे हैं और फॉर्म पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। ये मतदाता कौन हैं? हैं भी या नहीं, इसकी जवाबदेही किसकी होगी? यह कैसे फॉर्म भरे जा रहे हैं जिन पर न तो मतदाता की तस्वीर है और न ही हस्ताक्षर? अजित अंजुम वही पत्रकार हैं जिन पर सोमवार को बेगूसराय में यह कहकर एफआईआर दर्ज़ की गई कि वे सरकारी कामकाज में बाधा डाल रहे थे और सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ रहे थे। इस एफआईआर का कई पत्रकार संगठन और पत्रकारों ने जबरदस्त विरोध किया है। एक वरिष्ठ पत्रकार लिखते हैं- "ग्राउंड ज़ीरो से सच्चाई की रिपोर्टिंग अब अपराध है। देश के बहुचर्चित पत्रकार अजित अंजुम के ख़िलाफ़ एफ़आईआर होना सिर्फ़ एक व्यक्ति पर हमला नहीं, पत्रकारिता की आत्मा पर आघात है। यह एक चेतावनी नहीं, उस भयावह दिशा की ओर इशारा है, जहां सच्चाई दिखाना और बोलना गुनाह बनता जा रहा है। 25 जून को जिन लोगों ने आपातकाल के नाम पर लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया, वही लोग आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने की कोशिश कर रहे हैं। यह विरोधाभास नहीं, पाखंड है। पत्रकारों की ज़िम्मेदारी है कि वे ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्ट करें, लोगों की आवाज़ बनें, सत्ता से सवाल पूछें। अगर सच्चाई को सामने लाना अपराध बना दिया जाए तो फिर क्या बचेगा लोकतंत्र में? अजित अंजुम जैसे पत्रकार अपनी मांद के शेर नहीं हैं। वे न सिर्फ़ हमारी पीढ़ी के ज़िम्मेदार प्रोफ़ेशनल जर्नलिस्ट हैं, वे उन चंद आवाज़ों में हैं, जो आज भी कैमरे और क़लम के ज़रिए ज़मीनी सच्चाई को सामने लाते हैं; भले ही वह सत्ता के लिए असहज क्यों न हो।"
फ़िलहाल ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग को मतदाता की नहीं ख़ुद अपनी भूमिका की समीक्षा करना ज़रूरी हो गया है। इस संवैधानिक संस्था ने अपनी साख दशकों की तपस्या से अर्जित की है। केवल यही उद्देश्य कि कोई देशवासी चुनाव के महायज्ञ में आहुति देने से छूट न जाए। पानी में तैरकर, घने जंगलों में, आतंक के साए में, नक्सलियों के डर के हालात में भी आयोग उस अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने के जटिल काम में बरसों-बरस लगा रहा। साल 2017 में राजकुमार राव की एक फिल्म 'न्यूटन' आई थी जो भारत की ऑस्कर के लिए ऑफिशियल एंट्री भी थी। बंदूकों के साए में राजकुमार राव (न्यूटन) के साथ एक टीम हेलीकॉप्टर से नक्सली प्रभावी एरिया में उतार दी जाती हैं। टीम में रघुवीर यादव के साथ पंकज त्रिवेदी जो एक पुलिस ऑफिसर के रोल में हैं, न्यूटन से कहते हैं कि आप पूरा आराम करो, वोट हम करा देंगे लेकिन चुनाव आयोग का यह नुमाइंदा नहीं मानता। बंदा सख्त सुरक्षा के बीच चल देता है मतदान केंद्र की ओर। वहां एक टीचर उन्हें स्थानीय मददगार के तौर पर मिलती हैं पुलिस अफसर उन्हें भी साथ नहीं लेना चाहते क्योंकि उनका मकसद कैसे भी कर के इस ज़िम्मेदारी को निपटा भर देना है। उन्हें डर है कि यह स्थानीय आदिवासी लड़की उनकी मुश्किलें बढ़ा सकती है। रास्ते में जले हुए घर हैं जो पुलिस ने जलाए हैं ताकि आदिवासियों को यहां से खदेड़ा जा सके। वे कैम्पों में शरणार्थी बनाकर छोड़ दिए गए हैं जहां पुलिस उन पर अत्याचार करती है और नक्सलियों का हमला भी वे झेलते हैं। दरअसल, ये आदिवासी दोनों तरफ से मार झेल रहे हैं। देश में ही कई तरह के शरणार्थी हैं लेकिन बात केवल पाकिस्तानी, रोहिंग्या और बांग्लादेशियों की होती है। बहरहाल न्यूटन तमाम गोलीबारी के बीच चुनाव कराने में कामयाब होता है।
लोकतंत्र में ऐसी ही आस्था के चलते आज भारत और उसका लोकतंत्र पूरी दुनिया में सम्मान और अचरज के मिले-जुले भाव से देखा जाता है। भारत की भौगोलिक विविधता के साथ यह कतई आसान नहीं है। आज वैश्विक पटल पर भारत के नेताओं की कोई साख है तो उसकी बड़ी वजह हमारा लोकतंत्र है और लोकतंत्र को मज़बूती देने वाला चुनाव आयोग। इस सदी के अंत में नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन भले ही कांग्रेस के ख़ास रहे थे लेकिन पद पर आने के बाद उन्होंने उसकी गरिमा और शक्ति का ऐसा प्रयोग किया कि कांग्रेस कई बार संकट में आ गई थी। अब जो झोल है वह यह है कि तीन सदस्यों वाले चुनाव आयोग में से अगर दो भी अलग राय रखते हैं तो फ़ैसला बदल सकता है। मुख्य चुनाव आयुक्त को छोड़कर शेष दो को सरकार कभी भी बदल सकने की शक्ति रखती है। बेशक आयोग की साख पर संदेह के बादल नहीं छाने चाहिए। आखिर क्यों सरकार की मज़बूत सहयोगी पार्टी को ही सामने आना पड़ा और एक संवैधानिक संस्था की जांच दूसरी से कराने की बात कहनी पड़ी? सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 28 जुलाई को होनी है। 30 सितंबर बिहार में नई चुनावी सूची पूरी करने की डेडलाइन है। हो सकता है कि तब तक चुनाव आयोग नागरिकों पर मतदाता होने का प्रमाण का दबाव डालने
की बजाय उन्हें शामिल करने की मूल भूमिका पर लौट आए । यह ख़राब होगा कि नागरिक अपना नाम शामिल करवाने और खुद के असली नागरिक होने की अर्जी लेकर दर-दर के धक्के खाएं। अभी हाल ही में घाना की संसद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि 'हमारे लिए लोकतंत्र सिस्टम नहीं संस्कार हैं।' लगता है चुनाव आयोग इस संस्कार पर सिस्टम को हावी करने पर तुला है। 75 वर्षों की उपलब्धि को एक असाधारण उपलब्धि बताते हुए भी उन्होंने कहा था कि "भारत का लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक अतीत हमेशा समृद्ध और दुनिया के लिए प्रेरणादायक रहा और इसीलिए भारत को 'लोकतंत्र की जननी' के रूप में जाना जाता है”। क्या सच में?
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