अभिजीत के नोबेल के साथ कुछ और भी आया है



अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी एस्थर डफ्लो को अर्थशास्त्र का नोबेल मिलना बेशक़ भारतवासियों के लिए बड़ी ख़ुशख़बर है और यह ऐसे समय आई है जब एक पक्ष पूरी तरह से यह स्थापित करने में क़ामयाब हो रहा था कि एक अच्छा इवेंट कर लेना ही  दुनिया में  भारत  का  डंका बजने का प्रमाण है । लोगों की भीड़ अगर किसी की हर अदा पर  जो फ़िदा हो तो वही सही है, वही सिद्ध है। टीवी चैनलों की बहस में रात को चार-छः लोगों को बैठाकर जो मुद्दा चीख़ चीख़ कर बना दिया जाए, वही मुद्दा है बाक़ी सब ज़रूरतें बेकार हैं ,खामखां हैं। ऐसे में जब कोई सर खुजाते हुए कहीं अफ़सोस या तकलीफ़ भी ज़ाहिर करना चाह रहा होता तो उसे कोई तवज्जो नहीं, महत्व  नहीं । आजू-बाजू के लोग भी उसे गरिया देते तो वह  तकलीफ़ से और घुटने लगता।  उसके  मन की बात के लिए कोई मंच नहीं था । उसे यह भी अहसास होने लगा था कि एक वही इस तरह से क्यों सोच रहा है। लोग तो नोटेबंदी से भी ख़ुश हैं, पकोड़े तलने की बात से भी और प्रतिष्ठित JNU को टुकड़े-टुकड़े गैंग बता कर भी। मॉब लिंचिंग ,दुष्कर्म , NRC जो कि नागरिकता का राष्ट्रिय रजिस्टर है उस पर गंभीर चिंतन की बजाय  दो फाड़ कर देने के मक़सद पर भी।  
        ऐसे में अभिजीत बनर्जी के नोबेल ने हर उस शख़्स को ताक़त दी है जिसे लगता है कि अध्ययन-चिंतन-मनन के मूल में ही मानव मात्र का कल्याण है। सीमाओं से परे मानव मात्र  का कल्याण। यही तो हिंदुस्तान की सोच रही, प्राणी मात्र पर दया। फिर हम कब और कैसे इस मूल भाव से भटक कर दिखावे की दुनिया में रमने लगे, यकीन करने लगे  ? बुद्ध, महावीर और बापू के देश में सादगी से इस क़दर परहेज़। शुक्र है इस नोबेल ने जैसे श्लथ काया  को ऑक्सीजन मुहैया कराई है। बताया है कि ग़रीब के बारे में सोचना ही हर विकसित समाज और देश का पहला कर्त्तव्य  है। जब तक आख़िरी व्यक्ति तक सुविधा के साथ जीने का हक़ नहीं पहुँचता किसी को भी  चैन से नहीं बैठना चाहिए। सुखद है कि इस नोबेल ने वक्त के पहिये को सही दिशा में मोड़ा है। आज कई मुल्क अभिजीत बनर्जी के आर्थिक सिद्धांतों पर चलकर ग़रीबी कम करने में सफ़ल रहे हैं। हम ही हैं जो  ग़रीब और हाशिये पर खड़े व्यक्ति की  ओर देखने की बजाय आँख मूंदे पड़े हैं।  कभी तो यूं भी लगता है कि हम ख़ुद ग़रीब को  लगातार कमज़ोर कर रहे हैं ताकि विपदा आए तो सबसे पहले वही ख़त्म हो । लेकिन इस पुरस्कार ने हमारा खोया भरोसा लौटाया है। यूं अमर्त्य सेन भी 1998 में यह सम्मान हासिल कर चुके हैं लेकिन इस वक़्त हमें कुछ और भी मिला है। अभिजीत के नोबेल के साथ कुछ और भी आया है। हाँ हम भारतीय ख़ुश हैं कि हमारा असली डंका दुनिया में बज रहा है। 


फोटो क्रेडिट - https://www.ndtv.com/india-news/abhijeet-banerjee-economics-nobel-prize-2019-winner-went-to-bed-after-he-won-nobel-2019-for-economic-2116749

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