कहां है भारतीयता ?

image : savita pareek

 

  गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर बस एक ही ख्याल मन में विचरता दिख रहा है कि आख़िर यह भारतीयता है क्या कहाँ बस्ती है ये? किसी को दर्शन करना हो तो कहाँ जाए? क्या वह भारतीयता थी जब कबीर अपनी वाणी से ऐसा महीन दोहा रचते थे जो मानवता को पहली पंक्ति में ला खड़ा करता था।  झीणी चदरिया बुनते-बुनते कबीर मानवीय गरिमा को जो ऊंचाई दे गए वह हम जैसों पर  आज भी किसी छत्र-छाया सी सजी हुई है। 
पाथर पूजे हरी मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ 
घर की चाकी कोई ना पूजे जाको पीस खाए संसार

या फिर भारतीयता  कबीर नाम के उस  बालक में है जो मिशनरी स्कूल के समारोह में फ़ादर के पैर छू लेता है और ऐसा वहां कोई दूसरा नहीं करता। कबीर की बुनी चदरिया की छाया से आगे जो चलें तो देखिये बापू क्या कहते हैं-"मुझे सब जगह चरखा ही चरखा दिखाई देता है क्योंकि मुझे सब जगह ग़रीबी ही दिखाई देती है। मैंने चरखा चलाना सांप्रदायिक  धर्मों से कहीं श्रेष्ठ  माना है। यदि मुझे माला और चरखा में से किसी एक को चुनना हो तो जब तक देश ग़रीबी और फ़ाकाकशी से पीड़ित है तब तक मैं चरखा रूपी माला फेरना ही पसंद करूँगा। 

भारतीयता फिर क्या वहां है जब  बनारस के समीप पहुंचकर चचा  ग़ालिब  कहते हैं- सोचता था इस्लाम का खोल उतार फेंकू, माथे पर तिलक लगा, हाथ में जपमाला लेकर गंगा किनारे बैठकर पूरी जिंदगी बिता दूं, जिससे मेरा अस्तित्व बिलकुल मिट जाए। गंगा नदी की बहती धारा में एक बूंद पानी की तरह खो जा सकूं। बांग्ला लेखक रविशंकर बल जब दोज़ख़नामा में मिर्ज़ा ग़ालिब और मंटो को मिलवाते हैं तो भारतीयता वहीं झंडा थामे दिखती है। या फिर बिस्मिल्लाह खां साहब की शहनाई में जिसके सुर इसी बनारस के घाट की प्रतिध्वनि बन गूंजते हैं।  शायद भारतीयता  किसी भी खास धर्म जाति या नस्ल में नहीं है । ना ही किसी खान-पान, वेशभूषा, बोली के दायरे में बंधी है। शायद भारतीयता एक विशाल समुद्र में है जो कई सदियों की गहराई और मनवीयता खुद में समेटे हुए है।  भारतीयता हमारी नैतिकता में है ,सबके काम आने में है ,सबके दुःख-दर्द में शामिल होने में है, विरोधियों को जीने में है। बुद्ध और महावीर के ज्ञान और त्याग में है। सावित्री के प्रेम में है ,सीता की गरिमा में है ,द्रोपदी के साहस में है। 

यहाँ सदियों से लोग आते-जाते रहे हैं। इस धरा पर उनका आवागमन फिर अन्ततः  एक भारतीयता में ही बदलकर रह जाता है। हवाओं में भीनी ख़ुशबू की तरह। अविभाज्य। हमारी ख़ुशकिस्मती की यही अविभाज्य एक संविधान बनाकर हमारे पुरखों ने हमें दे दिया है। इसके मूल में यही भारतीयता है। जो हम आज इस अविभाज्य को समझ रहे हैं तो हम भारतीय गर्व के साथ सबसे ऊंचे खड़े हैं और जो संविधान को शक की निगाह से देख रहे हैं तो हम खुद की  ही  ज़मीन खींच रहे हैं। 

गणतंत्र दिवस मुबारक दोस्तो। यह बहुत बड़ा दिन है।  

टिप्पणियाँ

  1. ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को ७० वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|


    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 26/01/2019 की बुलेटिन, " ७० वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं“ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बेहतरीन लेख भारतीयता में मानवता की तलाश ...
    सादर

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