ग़ैर ज़िम्मेदार मॉम -डैड ने ली गोरिल्ला की जान !


माता-पिता होना दुनिया की सबसे बड़ी खुशनसीबी हैं तो उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है। किसी कंपनी के सीईओ होने से भी बड़ी जिम्मेदारी। दिल दहल गया था जब पिछले सप्ताह सिनसिनाती जू में तीन साल के बच्चे को बचाने के लिए सत्रह साल के गोरिल्ला हरांबे को गोली मारने पड़ी थी। यहां इस बात में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि एक बच्चे की जान बचाने के लिए गोरिल्ला की जान ली गई। इंसानी जान बचाना पहला फर्ज होना चाहिए लेकिन लापरवाह माता-पिता को भी बेशक तलब किया जाना चाहिए। हरांबे के समर्थन में बड़ा जनसमूह आ गया है। उनका मानना है कि उस बेजुबां कि खामखा जान गई। फेसबुक पर जस्टिस फॉर हरंबे  नाम से एक पेज बन चुका है जिससे तीन लाख से भी ज्यादा वन्यजीव प्रेमी जुड़ चुके हैं, उनका कहना है हरंबे  बच्चे को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा था। जबर्दस्त विरोध के बीच बच्चे की मां मिशेल ग्रेग का कहना है कि हमें दोषी ठहराना आसान है। मैं हमेशा अपने बच्चों को कड़ी निगरानी में रखती हूं। यह एक दुर्घटना थी।
   
       बच्चों की परवरिश के दौरान माता-पिता गंभीर होते हैं लेकिन यह भी सच्चाई है कि कई बार बच्चे उन्हीं की लापरवाही का शिकार होते हैं। खेलते -खेलते पानी की टंकी में गिर जाना, गैस या माचिस से खुद को जला लेना, दिवाली पर पटाखों से जल जाना, संक्रांति पर छत से गिर जाना, गाडिय़ों में बंद हो जाना जैसे बेशुमार उदाहरण हैं जहां जाहिर होता है कि दुर्घटना हम बड़ों की असावधानी से घटती है। उस वक्त बहुत हैरानी और दिक्कत हुई थी जब मेरे घर में पलंग के आस-पास गद्दे बिछ गए थे, नीचे के पॉवर प्लग्ज मोटे लाल टेप से बंद कर दिए गए थे और टूटे कांच की किरचों को पोछे के बाद आटे की लोई से उठाया जाता कि कोई बारिक कांच भी घुटने चलते बच्चे को चुभ ना जाए। ये बच्चे के पिता के मां को दिए कोई सख्त आदेश नहीं थे बल्कि वे स्वयं इन कामों को किया करते। अभिभावक होना इतनी ही रुचि और जिम्मेदारी का काम है। यदि आपके सामने कुछ और सपने नहीं तैर रहे हैं, तभी आप इस बड़े सपने को हकीकत में बदलने की जिम्मेदारी लीजिए।
हमारे पुरखों ने जो संयुक्त परिवार प्रणाली समाज के लिए विकसित की थी वह बच्चों के विकास के लिए बहुत जरूरी थी। वे बड़ों की  आंखों के सामने बड़े होते। किसी समझदार ने कहा भी है कि बड़ों की बात इसलिए नहीं मानी जानी चाहिए क्योंकि वे बड़े हैं बल्कि इसलिए क्योंकि उनके पास अनुभवों का खजाना है। बड़े बुजुर्ग इसी अनुभव का लाभ अपने बच्चों को हर पल देते हैं। एकल परिवार छोटी-छोटी बातों से भयभीत होकर डॉक्टर के पास दौड़ जाते हैं। बच्चा चल नहीं रहा या इसके सर के नीचे इतना गीला क्यों रहता है या इसे छह महीने की उम्र में इतने दस्त क्यों लगे हैं इन सबके जवाब अनुभवी दादी-नानियों के पास होते हैं। झूलाघर में पल रहे बच्चों की आयाओं के पास नहीं। 
         
दरअसल हमें उस स्त्री के योगदान को बिल्कुल भी नहीं भूलना चाहिए जो पूरे समय अपने बच्चों की देखभाल में लगी है। उसने अपनी जॉब, ट्रेनिंग सबको दूसरे दर्जे पर  रखा है। ऐसे में यदि पिता लंबा अवकाश अपने बच्चे के लिए लेता है तो वह भी उतना ही सराहनीय है। बच्चों को अकेला छोड़कर काम पर निकल जानेवाले माता-पिता को बेहद  गैर जिम्मेदार की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
अपने देश की बात करें तो हम बच्चों के लिहाज से एक क्रूर समाज हैं। गरीबी इस क्रूरता में कई गुना ज्यादा इजाफा कर देती है। बच्चों की जिम्मेदारी लेनी है या नहीं उसकी बात तो तब होगी जब जोड़े को परिवार नियोजन की समझ हो। बच्चे अब भी हमारे यहां ऊपरवाले की मर्जी के नाम पर ही आते हैं और कई बार पाले भी जाते हैं। सड़क किनारे बच्चों को छोड़ देश के विकास कार्यों के निर्माण में लगा परिवार कहां चाहकर भी जिम्मेदारी निभा सकता है। उसके बच्चे तो कई बार खेलते-खेलते बोरवेल में गिर जाते हैं और कई बार किसी वाहन के नीचे आ जाते हैं। कभी कोई बंदर, कुत्ता या सांड ही उनकी जान का दुश्मन बन जाता है। हम बच्चों के लिए सहिष्णु समाज होते तो क्या जमवारामगढ़ के विमंदित बालगृह में इतने बच्चों की जान जाती? वैसे जन्मदाताओं की लापरवाही किसी माफी की हकदार नहीं है और जो ये ज्यादा कमाई के लालच में होती है तब तो और भी नहीं। आपके बच्चे हैं हमेशा आपकी निगरानी में होने चाहिए।

टिप्पणियाँ

  1. मैं तो आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ। जागरूक करती एक वेहतरीन रचना।

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  2. जागरूकता ही बचाव है
    सादर

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  3. माँ हो बाप बच्चों की निगरानी में कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिए
    अच्छी प्रेरक प्रस्तुति

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  4. आदरणीय वर्षा जी
    आपके ब्लाॅग पर आकर ढ़ेर सारी ज्ञानवर्द्धक और रोचक सामग्री पढ़ने को मिली। जिसके लिए आपका धन्यवाद। साथ ही आपको सूचित करना चाहेंगे कि हमने आपके ब्लाॅग मंच को Best Hindi Blogs पर लिस्टेड किया है।
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    टीम - iBlogger.in

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