गुजरात उड़ता है दमन तक


गुजरात में नशे पर रोक है, लेकिन ज्यों ही गुजरात सीमा खत्म होकर समुद्र से सटे केंद्र शासित शहर  दमन की सीमा शुरू होती है, शराब की दुकानें साथ चलने लगती है। पहले दो-तीन किलोमीटर तक आपको सिर्फ यही दुकानें मिलती हैं, क्योंकि जिन गुजरातियों को नशे की लत है वे बिंदास रफ्तार से दमन तक आते हैं, समंदर किनारे देर रात तक रहते हैं और लौट जाते हैं। ये गुजरात उड़ता है दमन तक। जाहिर है बैन इसका इलाज नहीं। इसका उपलब्ध होना ही समस्या है। तेजाब से लड़कियां जलाई जा रही हैं, तेजाब फेंकना अपराध है, लेकिन तेजाब का मिलना उससे भी बड़ा अपराध है। जब एसिड ही नहीं होगा तो एसिड अटैक कैसे होंगे? 
हाल ही नशाखोरी से जुड़ी उड़ता पंजाब बड़े संघर्ष के बाद सिनेमाघरों की सूरत देख सकी। कुछ लोगों का मानना है कि अगर कें द्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड ने इतना हल्ला न मचाया होता तो फिल्म आती और चली जाती, लेकिन क्या वाकई देश की गंभीर समस्याएं भी यूं  ही आकर चली जाती हैं? ये तो पूरी पौध को बरबाद कर रही हैं। कम अज कम फिल्म ने बताया है कि पंजाब नशे की लत में डूब चुका है। ये खरीफ या रबी की फसल के बरबाद होने की कथा नहीं है, बल्कि एक सम्पन्न प्रांत के तबाह होने का सच है। गेहूं और सरसों की लहलहाती फसलों के बीच किसी ने यह महसूस ही नहीं किया कि इनके खलिहानों में जहर असर कर गया है। हमें भी पंजाब से चार बोतल वोदका और पटियाला पैग लगा के.. सुनने की आदत पड़ गई है। बुल्ले शाह और बाबा फरीद के सूफी कलाम पर कब यह नशा हावी हो गया पता ही नहीं चला।  जिस पंजाब से नशे का इतना महिमामंडन हो रहा हो, फिल्मकारों को हरे-भरे खेत दिखाने से फुरसत ही ना मिले, वहां के बारे में  उड़ता पंजाब जैसी स्याह हकीकत का सामने आना मायने रखता है। मायने रखता है निर्माता-निर्देशक का फिल्म बनाना और सेंसर की कैंची के खिलाफ उच्च न्यायालय जाना और वहां से उड़ता पंजाब का केवल एक कट के साथ रिलीज होना। यह अभिव्यक्ति की आजादी की बहाली है। दरअसल, प्रतिबंध तो उन फिल्मों पर लगना चाहिए जो खराब हालात के बावजूद खुशनमा दृष्यों की अफीम बेचते हैं। विकास के नकली दृश्य दिखाते जाओ, नशे के असली दृश्य उड़ाते जाओ। उड़ता पंजाब से पंजाब उड़ाओ। 
उड़ता पंजाब एक अच्छी फिल्म है। चिट्टा वे एक रूपक है जो सफेद नशा है जिसके नशे में पूरा पंजाब स्याह हो चुका है। रॉक स्टार शाहिद प्रतीक है कि ये नशे की पैरवी करने वाले गीत आखिर आते कहां से आते हैं। आलिया का किरदार कमाल है जो हकीकत में स्त्री को भेडिय़ों के निगाह से दिखाता है। हुक्मरान इस कारोबार में लिप्त हैं, यह सच किसे बरदाश्त होता। नशा करने के अपराध में बंद कैदियों को जेल में ही नशा मिल जाता है, यह व्यवस्था का कौनसा निजाम है? फिल्म पर तो बैन लगना ही था। बोर्ड के कायदे ही आदिम हैं। ये वही बोर्ड है जिसने अगस्त 2015 में 28 शब्दों की सूचि जारी कर दी थी कि ये फिल्मों में नहीं होने चाहिए। किसी ने सही कहा है कि बोर्ड को दादी-नानी की तरह व्यवहार करना बंद करना चाहिए। आजादी के लगभग सात दशक बाद भी हम बंधक हैं। न्याय व्यवस्था, सरकारें इन बहसों में उलझी रहती हैं कि ये फिल्म, ये किताब, ये कलाकृति बैन लगाने लायक है या नहीं? 
आलिया भट्ट उड़ता पंजाब में 
मकबूल फिदा हुसैन की पैंटिग बैन, सलमान रश्दी की सैटनिक वर्सेज बैन, तस्लीमा की लज्जा बैन, सोनिया गांधी पर लिखी रेड साड़ी बैन ,लेसली उडविन की इंडियाज डॉटर बैन। लेसली ने निर्भया पर फिल्म बनाकर हमें आईना दिखाया था। समझ में नहीं आता कि यह बैन संस्कृति हम क्यों चलाते आ रहे हैं। अपने देशवासियों से डरते हैं इसलिये या उन्हें अंधेरे में रखना चाहते हैं इसलिए? कालीन के नीचे सच्चाई को पटक देने से बड़ा खतरा कोई नहीं।  समस्याएं छिपाते जाएंगे तो वह कैंसर के रूप में ही यकायक सामने आएंगी फिर हमारे पास कुछ नहीं बचेगा।

ps : नागेश कुकनूर की फिल्म धनक में बच्चों की मासूमियत और राजस्थान के रंग हैं, लेकिन ऐसी फिल्मों को कौन पूछता है। बच्चों की दुनिया से यूं भी किसी को कहां लेना-देना है। विवाद और इंद्रधनुषी रंग दोनों साथ हो तो सब  विवाद की तरफ दौड़तें हैं। रंगों से हमारी मैत्री तो कभी की खत्म हो गई है।

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