परम्पराओं की पगथलियों पर

दुनिया में शायद ही कोई देश हो जहाँ हज़ारों साल बाद भी जनमानस परम्पराओं की पगथलियों पर यूं चल रहा हो। जाने क्यों कुछ लोग  परम्पराओं को बिसरा देने का ढोल ही पीटा करते हैं  

इन दिनों हरेक जुनून में जीता हुआ दिखाई देता है। लगातार अथक प्रयास करता हुआ। जैसे उसने प्रयास नहीं किए तो उसके हिस्से की रोशनी और उत्साह  मद्धम पड़ जाएंगे। त्योहार ऐसी ही प्रेरणा के जनक हैं। वर्षा और शरद ऋतु के संधिकाल में मनाया जानेवाला दीपावली बेहिसाब खुशियों को समेटने वाला पर्व है। अपने ही बहाव में ले जाने की असीमित ताकत है इस त्योहार में। आप साचते रहिए कि इस बार साफ-सफाई को वैसा पिटारा नहीं खोलेंगे जैसा पिछली बार खोला था या फिर क्या जरूरत है नई शॉपिंग की, सबकुछ तो रखा है घर में, मिठाइयां भी कम ही बनाएंगे कौन खाता है इतना मीठा अब? आप एक के बाद एक संकल्प दोहराते जाइये दीपावली आते-आते सब ध्वस्त होते जाएंगे। यह त्योहार आपसे आपके सौ फीसदी प्रयास करवाकर ही विदा लेता है। कौनसा शिक्षक ऐसा है जो आपसे आपका 100 फीसदी ले पाता है। यह दीपावली है जो पूरा योगदान लेती है और बदले में आपको इतना ताजादम कर देती है कि आप पूरे साल प्रफुल्लित महसूस करते हैं।
भगवान राम का लंका से आगमन तो हर भारतवासी के दिलो-दिमाग पर अंकित है। यह विजयगाथा त्रेता-युग से इसी तरह गाई जा रही है। उनके आने से जो जन-मन उत्साहित होता है उसका असर आज हजारों साल बाद भी जस का तस  है। यह बताता है कि हम बहुत परंपरावादी तो हैं ही दिल के एक कौने में आदर्श के लिए भी जीते हैं। सीता केवल कथा  नहीं है। भारतीय स्त्रियों में उनकी मौजूदगी को आज भी महसूस किया जा सकता है। उस दौर में राम-सा आदर्श कि वे आजीवन एकनिष्ठ रहेंगे कितने महान मूल्यों की स्थापना है जबकि उनके पिता दशरथ की तीन पटरानियां थीं । उनके बाद द्वापर  के कृ ष्ण भी ऐसा कोई प्रण लेते नहीं दिखे। राम का प्रजा से प्रेम किसी राजा की तरह ना होकर ऐसा था जैसे एक व्यक्ति शाही खजाने का संरक्षक हो और उसे केवल इतना अधिकार है कि वह इस खजाने का इस्तेमाल केवल जनता के हित में करे। राम जब अयोध्या लौटे तो अमावस की काली रात, रोशन रात में बदल चुकी थी।
कुछ लोगों की यह पारंपरिक शिकायत है कि यह त्योहार भी अपने असली स्वरूप को खो चुका है। क्या खोया है हमने। मिट्टी के दीयों के बगैर दीवाली नहीं मनती है। पूजा में गन्ने हैं, रंगोली-मांडने हैं। पारंपरिक पकवान हैं, खील-पताशे हैं। धूप-दीप, अगरबत्ती, कपूर, दीया-बाती सब है फिर काहे की फिक्र है उन्हें। बस बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद और दान-पुण्य को बढ़ा दीजिए। रामा-श्यामा में कुछ जोश और भर दीजिए। त्योहार भी पूरेपन से भर जाएगा। याद नहीं आता कि दुनिया का कोई और त्योहार इतने सालों बाद भी इतने मूल रूप में मौजूद हो।
चीनी सामान के लिए तो यूं  भी आक्रोश अब फूट ही पड़ा है। सोच का यह पटाखा सबसे ज्यादा चमकदार और प्रकाशवाला हो, फुस्स ना हो यही सबसे अच्छा होगा। काश यह सोच पहले ही बदली होती तो हमारे घरेलू उद्योग यूं तबाह नहीं होते। स्वदेशी थोड़ा महंगा है लेकिन बेहतर है। आज की यह राष्ट्रवादी सोच छोटे-छोटे उद्योगों के लिए पहले पनपी होती तो इतना नुकसान नहीं होता।
शुभ-दीपावली। 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

मेरी प्यारी नानी और उनका गांव गणदेवी

मिसेज़ ही क्यों रसोई की रानी Mr. क्यों नहीं?