मंच पर ये रंग दृष्टिहीन बच्चों ने खिलाए थे

बीते रविवार की शाम जो देखा वह ना देख पानेवालों का ऐसा प्रयास था जो आने वाले कई-कई रविवारों में रवि (सूर्य) जैसी ऊर्जा भरता रहेगा। यह एक नाटक था और मंच पर मौजूद बच्चे दृष्टिहीन थे। मंच पर ऐसे रंग खिले  कि लगा हम आंखवालों ने कभी मन की आंखें तो खोली ही नहीं बस केवल स्थूल आंखों से सबकुछ देखते रहे हैं। इनके पास तो अनंत की आंखें हैं और वो सब महसूस कर लेती हैं आंख वाले नहीं कर पाते। ये अनंत की आंखें रंग आकार से परे इतना गहरे झांक लेती हैं कि वे बेहतर मालूम होती हैं। शायद लेखक-निर्देशक भारत रत्न भार्गव  उनकी इसी शक्ति से दर्शक को रू-ब-रू कराना चाहते थे।
एक ज्योतिहीन बच्चे का मन चित्रकारी करने का हो और वह कुछ चित्रित करना चाहे तो आप कैसे उसका परिचय आकार, रंग और दुनिया में बिखरे सौंदर्य से कराएंगे। एक बालक की यही चाह है और इस चाह को पूरा करते हैं उसके गुरु जिन्हें वह हर दृष्य में चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करता है। वे उसका  आकार और रंग से तो परिचय कराते ही साथ ही यह भी बताते हैं कि चित्रकार स्थूल से परे देखता है। वे बताते हैं कि जिस पोदीने की खुशबू को तुम जानते हो उसकी पत्तियों का रंग हरा है, हल्दी की गंध है पीली सौंधी-सी माटी की रंगत है भूरी,  नील का रंग है नीला, जामुन है जामूनी रंगत का। इन तमाम रंगों को जानने के बाद बालक जो चित्र रचता है वह एक उल्टा पेड़ है जिसकी जड़ें अनंत में फली हैं और जो सूरज से ऊर्जा लेकर फल-पत्तों को रचती है और फिर जमीन को ही लौटा देती है। कमाल है एक बालक ने कैसे कुछ न देखकर भी जीवन चक्र को समझा दिया।
अचरज होता है कि कैसे ये बच्चे मंच पर एक बार भी ना टकराए, न घबराए और न ही गलत जगह तूलिका चलाई। इन्हें ध्वनि का पूरा आभास था। वे जरा फ्रे म से बाहर होते कि एक सुरीला संकेत उन्हें मिल जाता। संगीत इस पूरे नाट्य में कमाल का सेतु बंध बना। आवाज की मधुरता और गीतों के दार्शनिक बोल इस प्ले को नई ऊंचाई देते हैं। इस काम को डॉ. प्रेम भंडारी और गुरमिंदर सिंह पुरी अनंत तक ले जाते हैं। जानकर खुशी होती है कि जयपुर शहर में ऐसे इन्सान हैं जो अपनी जमीन अंधे बच्चों को उपलब्ध कराते हैं और वहां नाट्यकुलम जैसी संस्था का जन्म होता है।
बाल कलाकारों के बारे में बात करते हुए वरिष्ठ स्तंभकार जयप्रकाश चौकसे का कहना था कि अंग्रेजी के कवि जॉन मिल्टन की जब आंखें रही तब उन्होंने पेराडाइज लॉस्ट लिखा, लेकिन जब उनकी आंखों की रोशनी चली गई तब उन्होंने पेराडाइज रीगेन लिखा। यकीन करना मुश्किल है कि स्वर्ग तब खोया जब आंखें थीं और वापस तब मिला जब आंखें जा चुकी थीं। शायद यही वे अनंत की आंखें हैं जिनके नाम पर लेखक ने नाटक का नाम लिखा है। चौकसे ने बच्चों की मेहनत को झुक कर प्रणाम किया।
एक बात जो थोड़ी खलती है वह बच्चों की ओर से नहीं बल्कि बड़ों की और से है।  बड़ों की समस्याएं जैसे भ्रष्टाचार और आतंकवाद को बच्चों से बुलवाने की कोशिश में नाटक की स्वाभाविक बालसुलभता में थोड़ी कमी आती है। खलती एक और बात है कि जो शहर में यो यो हनी सिंह आते हैं तो टिकटों की मारा-मारी होती है और इतने खूबसूरत नाटक में टिकट खिड़कियां सूनी-सूनी रहती हैं

। अखबार छापते हैं, माता-पिता पढ़ते हैं, लेकिन उनके पास अपने बच्चों को रंगमंच तक लाने का समय नहीं होता। सुल्तान और हनी सिंह के बीच नाटक भी हमारे देखने-सुनने की फेहरिस्त में शामिल होने चाहिए। अगर हम इंतजार करेंगे कि कोई हीरो इसकी तारीफ करे फिर हम इसे देखेंगे तो यह  बच्चों के प्रति हमारी क्रूरता ही होगी।

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