ये दोज़ख़नामा नहीं जन्नत के रास्ते हैं


कल्पना कीजिए उन्नीसवीं सदी अगर बीसवीं सदी को आकर गले लगाए तो? दो सदियों के एक समय में हुए मिलन के जो हम गवाह बने तो? अंकों के हिसाब से यह अवसर सोलह साल पहले आया था जब दो सदियां 31 दिसंबर 1999 को रात बारह बजे एक लम्हे के लिए एक हुई थी लेकिन यहां बांग्ला लेखक रविशंकर बल ने तो पूरी दो सदियों को एक किताब की शक्ल में कैद कर लिया है। दो सदियों की दो नामचीन हस्तियों की मुलाकात का दस्तावेज है बल का उपन्यास दोज़खनामा। उन्नीसवीं सदी के महान शायर मिर्जा असदउल्ला बेग खां गालिब(1797-1869) और बीसवीं सदी के अफसानानिगार सआदत हसन मंटो (1912-1955 )की कब्र में हुई मुलाकात से जो अपने-अपने समय का खाका पेश होता है वही दो
ख़नामा है। गालिब अपने किस्से कहते हैं कि कैसे मैं आगरा से शाहजहानाबाद यानी दिल्ली में दाखिल हुआ जो खुद अपने अंत का मातम मनाने के करीब होती जा रही थी। बहादुरशााह जफर तख्त संभाल चुके थे और अंग्रेज आवाम का खून चूसने पर आमादा थे। 1857 की विफल क्रांति ने गालिब को तोड़ दिया था और उनके इश्क की अकाल मौत ने उन्हें तन्हाई के साथ-साथ कर्ज के भी महासागर में धकेल दिया था। सरकार जो पेंशन उनके वालिद (जो अलवर राजा की तरफ से लड़ते हुए शहीद हो गए थे) के नाम पर पेंशन दिया करती थी वह भी मिलनी बंद हो गई। ये सब सिलसिलावार किस्से मंटो के साथ जब गालिब साझा करते हैं तो मंटो भी हिंदुस्तान में जिए हुए किस्सों और पाकिस्तान से मिली निराशा को बखूबी शब्दों में ढालते हैं। दोनों की जीवनगाथा के साथ किताब कई और किस्सों के साथ भी आगे बढ़ती है जिन्हें वक्त की आपाधापी में हमने भुला दिया है।
  उपन्यास में दर्ज मंटो के अफसाने वही हैं जो हमने उनकी कहानियों में पढे़ हैं लेकिन वे इस तरह गढ़े गए हैं कि लगता है मंटो आत्मकथा सुना रहे होंं क्योंकि मंटो ने वही लिखा जो उनके आसपास का सच था। जहां-जहां मंटो की किस्सागोई है वहां दिल की धड़कनें थमती मालूम होती हंै क्योंकि उन शब्दों की रफ्तार ही इस कदर तेज है कि दिल धक से रह जाता है। उनके एक साल के बच्चे का इंतकाल हो या उनके जिंदा गोश्त (देहमंडी को वे यही कहते थे) के बाजार से आए किस्से या फिर बंटवारे का दर्द। वहीं गालिब से जुडे़ किस्से काफी ठहरे और गहरे मालूम होते हैं। एक किस्सा  किताब से...
 मंटो भाई, मैं राममोहन राय की बात बता रहा था न? उनको मैंने नहीं देखा था, पर उनके बारे में बहुत बातें सुनी थीं। सतीदाह के विरुद्ध उनकी लड़ाई की बात सुन कर मैंने उनके बारे में कही और बातों को याद नहीं रखा। नीमतला घाट के श्मशान पर मैंने सतीदाह देखा था। और गंगायात्रियों को भी देखा था। मृतप्राय: लोगों को गंगा के किनारे ले जाया जाता था, वहां उन्हें एक घर में रख दिया जाता था, रोज ज्वार के समय नाते-रिश्तेदार उनके शरीर को बहुत आगे तक गंगा के पानी में डुबोकर रख देते थे। इसका नाम अन्तर्जली यात्रा थी, मंटोभाई। वे दिनों-दिन धूप में जलकर, बारिश में भीगकर, ठंड से तकलीफ पाकर मरते थे। जब जरा सी मुखाग्नि देकर उन्हें पानी में बहा दिया जाता था।
   उसी तरह  बनारस के समीप पहुंचकर गालिब जो कहते हैं- सोचता था इस्लाम का खोल उतार फेंकू, माथे पर तिलक लगा, हाथ में जपमाला लेकर गंगा किनारे बैठकर पूरी जिंदगी बिता दूं, जिससे मेरा अस्तित्व बिलकुल मिट जाए। गंगा नदी की बहती धारा में एक बूंद पानी की तरह खो जा सकूं। अपने लेखन के हवाले से मंटो कहते हैं न मैं उन्हें और न प्रगतिशील मुझे बर्दाश्त कर पाते थे क्योंकि उनके हाथ में जो गज फीता होता है न उसके हिसाब से मैं कहानी नहीं लिख पाता। उन्हें कैसे बताता कि एक टूटी हुई दीवार का पलस्तर झड़ रहा है और फर्श पर अनजाने नक्शे बनते जा रहे हैं मैं उसी तरह की एक दीवार हूं।
  बहरहाल, एेसे बेहिसाब किस्सों से दोखनामा आबाद है। दो जिंदगियां पूरे संताप और शबाब के साथ खुलती और खिलती हैं। इक्कीसवीं सदी का पाठक सीधे तौर पर दो सदियों से और यूं कई सदियों का दौरा कर आता है। मूल बांग्ला से अनुवाद अमृता बेरा का है जो इस संताप और शबाब को महसूस करने में कहीं बाधा नहींं बनता।   आखिर में गालिब के दो शेर
थी खबर गर्म के गालिब के उडे़ंगे पुर्जे
देखते हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ

जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

जो भी हो आने वाली कई पीढि़यां इस राख को कुरेदती रहेंगी क्योंकि यहीं से मानवता की खुशबू आती है। इन किस्सों में विभाजन, फिरकों की वीभत्सता भी है तो मानवता का मरहम भी।


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