हे कलेक्टर! ये अपमान और एहसान क्यों


 हम सब अनजाने ही एक महामारी की चपेट में धकेल दिए गए हैं। ऐसी महामारी जिसके बारे  में किसी को भी सही-सही कुछ नहीं पता। सारे विशेषज्ञ इस कोरोना महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस पर टकटकी लगाए बैठे हैं लेकिन हर रोज़ लगता है जैसे शिकार उनके हाथ आया है फिर अचानक किसी चंचल पंछी की तरह हाथ से छूट भागता है। विशेषज्ञ हाथ मलते रह जाते हैं और हाथ आए पंख या फिर पंछी की ऊष्मा के आधार पर अपनी समझ का गणित बैठाते रहते हैं। ठीक है माना कि इसके अलावा कोई और रास्ता भी नहीं लेकिन आधी-अधूरी जानकारी और शोध के आधार पर यह सख्ती का माद्दा अपनाने का हुनर भला कहां से आता है। शहरों की तालाबंदी ,वैक्सीन को लेकर जोर जबरदस्ती क्यों ? लॉकडाउन ज़िन्दगियों के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं। यह धीमा ज़हर है जो उन्हें मौत के करीब ले जा रहा है और जो मरेंगे उन्हें यह यकीन बिलकुल भी नहीं है कि कोरोना उन्हें मारेगा ही मारेगा। ये तम्बाकू चबाते और नशा पीती  ये बेरोज़गार आबादी जब बीमार होगी  तो उनके लिए अस्पताल होंगे आपके पास ?
खबर राजस्थान के धौलपुर से है।  यहाँ के कलेक्टर ने आदेश दिया है कि जब तक यहां के लोग टीका नहीं लगवा लेते तब तक उन्हें सरकारी सुविधाओं मसलन मनरेगा ,राशन और प्रधानमंत्री आवास योजना के लाभ से वंचित रखा जाए। आपका सारा ज़ोर और जबर पावर बस गरीब पर ही चलता है। उसने तो आपको इतने मरीज़ भी नहीं दिए हैं जितने शहरों के अमीरों ने। जिन छह ज़िलों के आंकड़े आपने सौ मरीज़ों के पार दिए हैं उसमें धौलपुर कहीं नहीं। शहरों में कोरोना मापने का एक ही मापक है एक बिस्तर पर दो मरीज़। अब आपके अस्पताल ही कम हों और उनमें बिस्तर तो और भी कम तो इस मापक के कोई मायने नहीं रह जाते। एक अनार सौ बीमार के इन हालत में वैक्सीन का आंकड़ा बढ़ाने के लिए सरकारी नुमाइंदे ये जुगत लगा रहे हैं तो फिर संजय गांधी का जनसंख्या नियंत्रण क्या बुरा था।  वह भी तो जबरदस्ती थी।  हो ही जाती तो बेहतर था आज विस्फोटक आबादी यूं महामारी और फिर तालाबंदी की धीमी मौत से तो न रूबरू  हो रही होती। टीके अतीत में भी लगे हैं।  सरकारों ने पोलियो की बूंदे घर-घर जाकर पिलाई हैं लताड़ नहीं पिलाई। बच्चों को स्कूल स्टेशन सब जगह कई-कई बार पोलियो की बूंदे दी गई। अब भारत पोलियो मुक्त है और ये नामुराद वैक्सीन के बारे में तो यहां तक कहा जा रहा है कि हर साल नया टीका आ सकता है। अनिश्चिता। अंतहीन अनिश्चिता। इस बीमारी से ज़्यादा दखल तो सरकारों का जीवन में हो गया है। छोड़ दो यार हमको हमारे हाल पर। मोटा पहनकर और खा कर हमारे पूर्वज जीते ही आए हैं अपने बूते पर। धमकी क्यों देते हो कि यह नहीं देंगे वो नहीं देंगे। इतना अहसान जताना उफ़। अफ़सोस। 









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