ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के नाम पर ....



twitter ceo jack dorsey with women journalists and activists 
 brahmanical patriarchy शब्द चर्चा में है। क्यों और क्या सन्दर्भ हैं इसके और कैसे किसी भी किस्म की पितृसत्ता समाज को कमज़ोर करती है। सबरीमाला के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का विरोध और तीन तलाक का समर्थन क्या महिला महिला में फर्क की बयानी  करते है  ?  ट्वीटर सीईओ से क्या वाकई गलती हो गई ? ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के नाम पर समाज की चिंता है या मकसद राजनीतिक रिश्ता जोड़ना है क्योंकि उन्होंने तो  तख्ती हाथ में ली है हमारे नेता तो रोज़ ही जातिवादी बयान दे रहे हैं। 

स्मैश ब्राह्मणीकल पेट्रिआर्की यानी  ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को तोड़ दो।  इस प्लेकार्ड  को ट्वीटर सीईओ जैक डोर्सी  ने क्या थामा भारत में आलोचना का तूफान आ  गया और जवाब देने से बचने के लिए उन्हें विपश्यना शिविर जाना पड़ा। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के बारे में हम भारतवासी आपस में बात कर लेते लेकिन ट्वीटर सीईओ जो खुद एक अमरीकी हैं, को इसमें कूदने की शायद ज़रुरत नहीं थी। वे खुद भले हे परिदृश्य से गायब  गए हों लेकिन भारतीय कूद-कूद कर इस परिदृश्य में दाखिल हो रहे हैं। कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी को लगता है कि ब्राह्मण इस दौर के नए यहूदी हैं। दलित चिंतक कांचा इलैया  कहते हैं कि पितृसत्ता समाज की हकीकत है लेकिन आप तालिबानी पितृसत्ता को गलत और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को सही नहीं ठहरा सकते। दूसरा पक्ष कह  रहा है कि ट्वीटर पर इस तूफ़ान की कोई ज़रुरत नहीं थी   ब्राह्मणीकल पेट्रिआर्की एक शब्द है जिसका इस्तेमाल वर्चस्व या आधिपत्य जमाने वाले के लिए किया जाता है।

दरअसल , ट्वीटर सीईओ जैक डॉर्सी  बीते  पाखवाड़े  भारत की यात्रा पर थे। वे प्रधानमंत्री मोदी,राहुल गाँधी शाहरुख़ खान सभी से मिले लेकिन विवाद से उनकी मुलाकात भारतीय महिला पत्रकारों,लेखिकाओं  और कार्यकर्ताओं से बंद कमरे में हुई बैठक के बाद हुई।  एक दलित एक्टिविस्ट संघपाली अरुणा ने उन्हें यह प्लेकार्ड दिया और फिर  इसे पोस्ट कर दिया गया । ट्वीटर  पर घमासान मचना ही था। कहा गया कि हिन्दुओं की भावनाओं को आहत किया गया है और यह ब्राह्मणों  प्रति नफरत और पूर्वाग्रह से ग्रस्त  है।  ब्राह्मण संगठन ने उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा भी दायर किया है । आखिर क्या है ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के मायने ? मशहूर फ़ेमिनिस्ट लेखिका उमा चक्रवर्ती ढाई दशक पहले लिखे अपने लेख' में ऊंची जातियों में मौजूद तमाम मान्यताओं और परंपराओं के ज़रिए महिलाओं पर काबू करने की प्रथा को 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' बताती हैं। लड़की को संपत्ति में कोई अधिकार नहीं है और उसे पहले पिता और फिर पति की छत्रछाया में रहना होता है। यहां तक की प्राचीन भारतीय साहित्य में भी जाति की शुद्धता को जारी रखने के लिए महिलाओं को हर तरह से नियंत्रित किया गया। यही व्यवस्था हर जाती की स्त्रियों के लिए गुथी हुई है। 


  दलित चिंतक और राजनीतिक विचारक कांचा इलैया इस घटनाक्रम को सबरीमाला से जोड़ते हुए कहते हैं कि दुनिया देख रही है कि कैसे भाजपा और आरएसएस दस से पचास साल की महिलाओं के  मंदिर में प्रवेश के खिलाफ ब्राह्मण महिलाओं को प्रेरित कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद ऐसा किया जा रहा है। जबकि यही समूह तीन तलाक के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं के साथ खड़ा है। क्या नज़रिये के इस फर्क को दुनिया नहीं समझ रही ? यही तालिबानी पितृसत्ता भी करती आई है कि महिलाओं की देह को नज़र ही ना आने दो। महिलाओं को मंदिर में इसलिए न जाने देना क्योंकि वे रजस्वला हैं तो क्या  पुरुष अपने भीतर किसी भी किस्म के द्रव को ना रख पाने का दावा कर सकता है ? लेकिन महिलाओं के प्रवेश के अधिकार  छीन लिए जाते हैं । दुनिया इस भेदभाव को देख रही है और हैरत में है।  क्या डोर्सी का प्लेकार्ड थामना इस नज़रिये से सही नहीं हो सकता ? इसमें गलत क्या है, क्या हम सबरीमाला पर इस दोहरे नज़रिये को दुनिया से छिपा सकते हैं।


ख्यात पत्रकार चित्रा सुब्रमणियम चकित हैं कि कैसे एक सौ तीस करोड़ के देश में आकर डोर्सी इस प्लेकार्ड को उठा लेते हैं, बिना इसके बारे में जाने और एक भी लफ्ज़ कहे। क्या वे चीन में जाकर राष्ट्रपति जिनपिंग से यह कह सकते हैं कि आप वहां निष्पक्ष चुनाव कराएं या लंदन में जाकर पोस्टर उठाकर  थेरेसा मे से  यह कहें  कि ब्रेक्सिट के कारण पूरा देश आप पर हंस रहा है। क्या आप अपने देश अमरीका में ही यह कह सकते हैं कि दुनिया के उन देशों से व्यापार पूरी तरह बंद किया जाए जहाँ मानव अधिकारों को कोई तवज्जो नहीं है और आप ही के यहां  लोग बरसों से जेलों में सड़ रहे हैं और बच्चे कपड़ों के कारखानों में लम्बे समय तक काम करते हैं ताकि अमरीकी चैन की ज़िंदगी जी सकें। वैसे जैक डोर्सी हर देश के पास अपनी कोइ ना कोई समस्या है , किसी का भी खात्मा करने से पहले आपने खुद के पास बहुत कम जानकारियां रखी हैं।


      पत्रकार ने बड़े ही तरीके से तंज़ करते हुए यह कह दिया है कि ये हमारे ज़ख्म  हैं और हम ही इनकी मरहम-पट्टी भी करेंगे। क्या वाकई मरहम-पट्टी होती है जब कांग्रेस के नेता-प्रवक्ता  मनीष तिवारी कह देते हैं कि ब्राह्मणवाद का विरोध भारतीय राजनीति की हकीकत है। हम भारत के नए यहूदी हैं और हमें इसके साथ ही जीना सीखना होगा। इंफोसिस के पूर्व सीईओ टीवी मोहनदास पाई भी इस प्लेकार्ड से निराश हुए हैं। पटकथा लेखक अद्वैता काला ने भी इसे 'हेट स्पीच' करार दिया है। बहरहाल खुद को यहूदी करार देते हुए असुरक्षित बताना यह बताता है कि इन दिनों हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां सशक्त भी खुद को कमज़ोर मान डरा हुआ है। हरेक के भीतर यह भाव घर कर रहा है। कोई है जो हमारे सुरक्षा के किलों और उसके इत्मीनान को भेदने में कामयाब हो गया है। बिलकुल एक-सा असुरक्षा भाव । खुद को यहूदी बताकर इसे नाज़ियों की बर्बरता से जोड़ लेना इसी बात की ओर इशारा करता है।

कुछ देर के लिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से ब्राह्मणवादी  शब्द हटा दीजिये। पितृसत्ता अपने आप में ही स्त्रियों का सच उजागर करने के लिए काफी है। बीते 2 नवंबर को राजकोट में एक महिला कुंए पर पानी भरने  गई तो ऊंची जाति के एक शख्स ने उसे पीट दिया। वह अपनी जीप धोना चाहता था और महिला ने उसे अपनी बारी का इंतज़ार करने के लिए कहा था। यहां  कोई फर्क नहीं कि जीप धोनेवाला  किस बिरादरी का था लेकिन जो भी  था उसे खुद के उच्च वर्ण के होने का बोध था और महिला को पीटना उसके पितृसत्तात्मक व्यवहार का नतीजा था। तीन  दशक पहले भटेरी की भंवरी देवी  (जिला जयपुर)  के साथ दुष्कर्म हुआ था। उन्होंने ऊंची जाति का एक बालविवाह रुकवाया था। वह साथिन थीं और सरकारी दायित्व पूरा कर रही थी। उन्हें सबक सिखाने के लिए सामूहिक बलात्कार किया गया। उन्हें आज तक न्याय नहीं मिला है। नेता से न्यायालय तक सबने उन्हें ही दोषी माना। न्यायलय कि तो टिपण्णी थी कि कोई ऊंची जातवाला नीची जातवाली के साथ बलात्कार कैसे कर सकता है ?  अक्सर हम खबरों के शीर्षक पढ़ते हैं दलित महिला की दुष्कर्म के बाद हत्या। इस शीर्षक से ऐसा क्यों लगता है जैसे कोई अपनी नियति को प्राप्त हुआ हो। यह दंभ क्योंकर नहीं टूटना चाहिए। पितृसत्ता दुनिया का सच है।पाकिस्तान की शायरा सारा शगुफ्ता की नज़्म औरत और नमक की चंद पंक्तियाँ देखिये

इज़्ज़त की बहुत-सी किस्में हैं 

घूंघट, थप्पड़, गंदुम 
इज़्ज़त के ताबूत में कैद की मेखें ठोकी गई हैं 
घर से लेकर फुटपाथ तक हमारा नहीं 
इज़्ज़त हमारे गुज़ारे की बात है 
इज़्ज़त के नेज़े से हमें दागा जाता है 
इज़्ज़त की कनी हमारी ज़ुबान से शुरू होती है 
कोई रात हमारा नमक चख ले 
तो एक ज़िन्दगी  हमें बेजायका रोटी कहा जाता है 

 बाबा साहब अंबेडकर ने भी ब्राह्मणवादी पितृसत्ता शब्द का इस्तेमाल किया था। अपनी किताबअगेंस्ट  द मैडनेस ऑफ़ मनु  में  इसका ज़िक्र  भी किया है। उन्होंने इसका तोड़ भी दिया था। अंतर्जातीय विवाह। जब यह होने लगेगा तो सगोत्रीय  जाती व्यवस्था टूटेगी। जातियों को बनाए रखने के लिए यही ज़रूरी होता है। आज के दौर में जब युवा जोड़े इस व्यवस्था को चुनौती देते हैं तो सबसे बड़े अपराधी करार दिए जाते हैं। ऑनर के नाम पर उनकी हत्या होती है या फिर लड़के को जेल में डाल दिया जाता है। जाती के नाम पर बच्चों को कुर्बान करने से भी परिवार नहीं हिचकते। रेडिकल इन अंबेडकर के लेखक आनंद तेलतुंबड़े कहते हैं ब्राह्मणीकल शब्द का इस्तेमाल प्रभुत्व,वर्चस्व को बताने के लिए किया जाता है। यह शब्द न ब्राह्मण विरोधी है और न हिन्दू। रहा सवाल पितृसत्ता का तो यह पूरी दुनिया में है। भारत में इसकी जड़ें गहरी हैं। बाबा साहब दिल की गहराइयों से लोकतान्त्रिक थे। वे चाहते थे कि लोग अपने फैसले अपने हिसाब से करें। वर्तमान सत्ता उनके करीब होने का दावा ज़रूर करती है लेकिन अगर वे आज ज़िन्दा होते  तो उनके कई विचारों के कारण यह निज़ाम उन पर देशद्रोही होने  का इलज़ाम लगा देता। 

      डोर्सी के तख्ती थमने की एक और वजह भी हो सकती है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पांच राज्यों के चुनाव में जब बड़े बड़े नेता खुद को जाति गोत्र के दायरे से बाहर नहीं निकाल पा रहे हैं फिर यह तो ट्विटर है। विवाद इसकी गोद में फड़फड़ाते हैं ,यह चहचहाने वाला ट्विटर नहीं रह गया है। राजस्थान की ही बात करें तो यहाँ दिल्ली और आस-पास से आने वाले बड़े नेता राजस्थान का र भी नहीं जानते। प्रधानमंत्री अलवर में खुद को छोटी जाति का बताकर सहानुभूति अर्जित करना चाहते हैं क्योंकि भाजपा के बारे में आम धारणा  है कि यह वोट उसकी पहुँच से बाहर है। मोदी कहते हैं मेरी जाति मेरे माँ-बाप कांग्रेस का चुनावी मुद्दा है। इससे पहले सी पी जोशी जाति यह  सवाल उठा चुके हैं। राहुल गांधी पुष्कर में अपने जाति-गोत्र का खुलासा कर जाते हैं, वे मंच से नहीं कहते तो उनके नेता ट्वीट कर डालते हैं। यह भी धारणा है कि अगड़ों के वोट कांग्रेस की बजाय भाजपा की झोली में पड़ते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री इंसानों से ऊपर उठकर अंजनी पुत्र हनुमान तक पहुँच जाते हैं। .वे अलवर ज़िले के मालाखेड़ा  में कहते हैं बजरंगबली ऐसे लोक देवता है जो स्वयं वनवासी हैं, गिरवासी हैं ,दलित हैं, वंचित हैं। वहां मौजूद सुननेवालों के लिए पवन-पुत्र हनुमान का नया परिचय था। जाति मज़हब के शिकंजे में कसे यह नेता जब खुद मुक्त नहीं हैं तो हम केवल ट्विटर को कटघरे में लाकर कैसे बरी हो सकते हैं ?
  
हालाँकि ट्वीटर ने इस पूरे मामले पर माफी की मुद्रा ही रखी है लेकिन यह भी सामने आ रहा है कि डोर्सी ऐसे मोर्चों का हिस्सा बनते हैं जहाँ सामाजिक बदलाव की गुंजाईश हो। जैसे रंग  भेद और अरब में महिलाओं की आज़ादी की जो नई बयार चली है उसमें वे दिलचस्पी लेते हैं और ट्वविटर की कोशिश होती है कि दुनिया में सकारात्मक बदलाव का हिस्सा बने लेकिन यह किसी भी तबके का दिल दुखाकर नहीं हो सकता  है। स्त्री पीड़ित है तो वह हर समुदाय की कहानी है। किसी भी जातिसूचक शब्द के इस्तेमाल से तूफान ही पैदा होगा सकारात्मक बदलाव नहीं आएगा।  विचार इस बात पर भी ज़रूर होना चाहिए कि कुछ बरसों में ऐसा क्या हुआ है कि हर कोई एक-दूजे से डरा हुआ है।  वजूद छोटी-छोटी बातों से खतरे में आ जाता है जबकि कमज़ोर को उसके हक़ की याद दिलानेवाला भी हमेशा  सशक्त ही रहा है। उन्हीं की अगुआई में आंदोलन आकार लेते रहे हैं लेकिन आज वह भरोसा गायब है ,तभी तो एक शब्द भर नफरत और ज़हर उगलने का बायस बन जाता है
। 
(इंदौर से प्रकाशित दैनिक प्रजातंत्र में मेरा लेख) 

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