मैं अपना यह हक़ छोड़ती हूँ।






जब सर्वोच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने की इजाज़त दे दी है तो ये कौन ताकतें हैं जो ख़ुद को संविधान से ऊपर मानने लगी हैं। तकलीफ़  तो कुछ लोगों को तब भी हुई  होगी  जब    सती प्रथा के ख़िलाफ़ क़ानून बना होगा। कुछ देर के लिए मंदिर में स्त्री के प्रवेश को निषेध मानने वालों को सही भी मान लिया जाए तो क्या ये भी मान लिया जाए कि पूजा स्थल भी स्त्री को देह रूप में ही देखते हैं। देह भी वह जो दस से पचास के बीच होती है। पवित्र स्थल के  संचालकों को इनसे  डर लगता है। चलिए आप एक देह हैं आपको भय लग  सकता है लेकिन भगवान अयप्पा को भी आपने उसी श्रेणी में रख दिया? वे ईश्वर हैं। देह उम्र के भेद से परे लेकिन भक्तों ने उन्हें अपने भय से मिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सृष्टि के चक्र को चलाने वाले मासिक चक्र से भय। आख़िर क्यों डरना चाहिए रजस्वला स्त्री से किसी को भी? वे डरते हैं ,उन्हें दूर रखते हैं ,ये भी मान लेते हैं कि इश्वर को भी वे मंज़ूर नहीं होंगी लेकिन जीवन के धरातल पर इसी उम्र की स्त्री देह ही सर्वाधिक शोषण की भी शिकार है। यौन शोषण की भी। यहां दूरी,परहेज़,अस्पृश्यता सब विलीन हो जाती है।  मंदिर में बतौर देवदासी उसका स्वागत है लेकिन दर्शन के लिए नहीं। ये दोहरे मानदंड नहीं  हैं क्या ? 
     एेसा ही एक प्रतिबंध मुंबई की हाजी अली दरगाह पर भी चस्पा था।  वहां भी मजार के एक हिस्से में महिलाओं के प्रवेश पर रोक थी। मामला मुंबई हाई कोर्ट में सुना गया । यहाँ भी तर्क यही कि स्त्रियां पुरुष पीर हाजी अली शाह बुखारी की मजार के करीब नहीं हो सकती। प्रवेश की यह जंग भी महिलाओं ने जीती। सुविधा के  लिए यह ज़रूर किया गया  है कि भीतर जाने के लिए उनके प्रवेश का रास्ता अलग है। हर तबके हर उम्र और मज़हब की महिलाएं यहाँ अब अपनी उम्मीद का धागा भी बांध रही हैं और चादर भी चढ़ा रही हैं। शायद यही भेद का अंत होना भी है। 
          
नए साल की उस ठंडी सांझ में चंडीगढ़ की सड़क पर जब एक गुरुद्वारा दिखा तो हम सब सर ढककर भीतर हो लिए। गुरुग्रंथ  साहब को प्रणाम कर जब पैसे निकाल कर दानपेटी ढूंढऩी चाही तो एक सेवादारनी ने धीमे लेकिन साफ शब्दों में कहा कि यहां पैसे नहीं चढ़ते। हमने चुपचाप पैसे अंदर रख लिए। यह निषेध था लेकिन मन को बहुत अच्छा लगा। अगर इन्होंने गुरुद्वारे के बाहर ही यह कहकर रोक लिया होता कि आप स्त्री हैं और भीतर नहीं जा सकती तब जाहिर है यह रोक या बैन हमें भीतर तक आहत कर जाता। 

    केरल स्थित विश्व के बड़े तीर्थस्थल सबरीमाला अयप्पा मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के लिए  सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने महिलाओं के हक़ में फैसला दिया जबकि जस्टिस इंदु मल्होत्रा का कहना था कि धार्मिक मामलों को तय करना कोर्ट  का काम नहीं है जब तक कि यह सति प्रथा जैसी सामाजिक बुराई न हो। वे मानती हैं कि सबरीमाला मंदिर को अपना निज़ाम कायम रखने की व्यवस्था भारत का संविधान (आर्टिकल 25 ) देता है और इसे आर्टिकल 14 की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। उनका यह भी मानना था कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे। 

    जो हालात सबरीमाला में  बने हैं क्या वे भी इसी मतभेद का नतीजा हैं ? राजनीतिक दलों ने भावनाओं को भुनाने के लिए कमर कस ली है और इसमें महिलाओं को भी अपने साथ कर लिया है। इतने प्राचीन मंदिर के आस-पास ऐसी परिस्थितियों का निर्माण सही नहीं कहा जा सकता। प्रवेश की इच्छुक महिलाओं को खुद ही पीछे हट जाना चाहिए। यह उनकी हार नहीं है। बल्कि राजनीतिक रोटियां सेंक रहे दलों की आग पर ठंडा पानी है। संविधान आपके हक़ में है। समाज भी होगा लेकिन इन दलों को यह हक़ नहीं होना चाहिए कि वे मंदिर और देश की फ़िज़ा बिगाड़ें । मैं अपना यह निजी हक़ छोड़ती हूँ। 13 नवंबर को खुली अदालत में रिव्यु पिटीशंस का फ़ैसला जो भी हो। 







टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25.10.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3135 में दिया जाएगा

    हार्दिक धन्यवाद

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