और रा ज करेगी ख़ल्क़ ए ख़ुदा
शायर या कवि की क़द्र कीजिये , उन्हें प्रेम कीजिये। फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' बड़े शायर हैं इसलिए नहीं कि उनका लिखा मक़बूल हुआ बल्कि इसलिए कि उन्होंने जो लिखा वह इंसानियत का गीत बन गया। ऐसा कोई चाहकर भी नहीं कर सकता जो कर सकता होता तो आज तंगदिल हुक्मरानों के गीत हरेक की ज़ुबां पर होते। ये शायर अपने वतन से बाहर नहीं फैंके जाते या वतन के भीतर उनका दूसरा घर हर वक़्त जेल नहीं होता।
मनोहर श्याम जोशी का धारावाहिक हमलोग देखकर जो पीढ़ी बड़ी हुई यह उस शीर्षक गीत को कैसे भूल सकती है। ये फ़ैज़ की ही नज़्म है।
आइये हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़ ए मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
एक शायर जो सिर्फ़ मोहब्बत का पैग़ाम देता है वह किसी व्यवस्था में यूं अपमानित किया जाए यह किसी भी संस्थान के लिए फ़ख़्र की बात कैसे हो सकती है। फ़ैज़ साहब के इस शेर को देखिये
थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फुर्सत थी
सब पूछे थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था
तीन शेर उस बेहतरीन ग़ज़ल से जो उन्होंने मांटगोमरी जेल में लिखी
कब याद में तेरा साथ नहीं ,कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
सद शुक्र के अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं
मुश्किल है अगर हालात वहां दिल बेच आएं जां दे आएं
दिलवालों कूच ए जानां में क्या ऐसे भी हालात नहीं
जिस धज से कोई मक़तल में गया वो शान सलामत रहती है
ये जान तो आनी जानी है ,इस जां की तो कोई बात नहीं
हैरानी और दुःख होता है जब एक उदार समाज गीतों-ग़ज़लों की ज़ुबां समझना बंद कर दे। यह अनूठापन केवल इंसान को नसीब है, ये कौन हैवान है जो प्रेम और इंसानियत के जज़्बे को नए चश्में पहन देख रहा है। यक़ीनन यह उस सभ्यता का हिस्सा तो नहीं जिसने दुनिया को दो नायाब ग्रंथ दिए हैं। वैज्ञानिक दृष्टि वाली भाषा दी है। ये शायर भी उसी विरासत का हिस्सा हैं। हमारी ही ज़मीन का शायर ।
गुलों में रंग भरे बादे नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास ये यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज ज़िक्रे-यार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बारे में कहने लिखने से पहले लेखक कहा करते थे शायरी की दुनिया में फ़ैज़ के मुक़ाम उनकी शख़्सियत और उनके फ़न की बुलंदियों को लेकर कुछ भी कहना हमारे लिए आसान नहीं है फिर ये कौन है जो इतनी आसानी से इतने उम्दा शायर को ज़लील किये जा रहे हैं?
मनोहर श्याम जोशी का धारावाहिक हमलोग देखकर जो पीढ़ी बड़ी हुई यह उस शीर्षक गीत को कैसे भूल सकती है। ये फ़ैज़ की ही नज़्म है।
आइये हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़ ए मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
एक शायर जो सिर्फ़ मोहब्बत का पैग़ाम देता है वह किसी व्यवस्था में यूं अपमानित किया जाए यह किसी भी संस्थान के लिए फ़ख़्र की बात कैसे हो सकती है। फ़ैज़ साहब के इस शेर को देखिये
थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फुर्सत थी
सब पूछे थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था
तीन शेर उस बेहतरीन ग़ज़ल से जो उन्होंने मांटगोमरी जेल में लिखी
कब याद में तेरा साथ नहीं ,कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
सद शुक्र के अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं
मुश्किल है अगर हालात वहां दिल बेच आएं जां दे आएं
दिलवालों कूच ए जानां में क्या ऐसे भी हालात नहीं
जिस धज से कोई मक़तल में गया वो शान सलामत रहती है
ये जान तो आनी जानी है ,इस जां की तो कोई बात नहीं
हैरानी और दुःख होता है जब एक उदार समाज गीतों-ग़ज़लों की ज़ुबां समझना बंद कर दे। यह अनूठापन केवल इंसान को नसीब है, ये कौन हैवान है जो प्रेम और इंसानियत के जज़्बे को नए चश्में पहन देख रहा है। यक़ीनन यह उस सभ्यता का हिस्सा तो नहीं जिसने दुनिया को दो नायाब ग्रंथ दिए हैं। वैज्ञानिक दृष्टि वाली भाषा दी है। ये शायर भी उसी विरासत का हिस्सा हैं। हमारी ही ज़मीन का शायर ।
गुलों में रंग भरे बादे नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास ये यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज ज़िक्रे-यार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बारे में कहने लिखने से पहले लेखक कहा करते थे शायरी की दुनिया में फ़ैज़ के मुक़ाम उनकी शख़्सियत और उनके फ़न की बुलंदियों को लेकर कुछ भी कहना हमारे लिए आसान नहीं है फिर ये कौन है जो इतनी आसानी से इतने उम्दा शायर को ज़लील किये जा रहे हैं?
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