फ़त्तो के मिर्ज़ा में न ग़ुलाब हैं न सितारे
फत्तो 95, माफ़ कीजियेगा गुलाबो सिताबो का ये नाम ज़्यादा मुफ़ीद होता। क्लाइमेक्स में केक पर लिखे यही शब्द होठों पर मुस्कान ला देते हैं। कहना मुश्किल है कि इस कठिन कोरोना काल में इतने बड़े सितारों की इस फ़िल्म को छोटी-छोटी स्क्रीन पर डिजिटल रिलीज़ करना डायरेक्टर और कलाकारों को कैसा लगा होगा। बतौर दर्शक
हम
अपनी बात करें तो सिनेमा हॉल में देखने के बाद छोटे पर्दे पर फ़िल्म दोबारा देखने में तो आनंद आता है लेकिन गुलाबो सिताबो को देखने के बाद थिएटर में दोबारा जाएंगे या नहीं तो इसका जवाब ना ही होगा। अमिताभ बच्चन ने शूजित सरकार की गुलाबो सिताबो में झंडे गाड़ दिए हैं। मिर्ज़ा के इस
लालची क़िरदार में वे इस क़दर लालची पाए गए हैं कि कोई भी मिसाल कम होगी। जनाब अपनी ही हवेली का क़ीमती सामान कौड़ियों के दाम में बेचते जाते हैं।
फ़ातिमा महल लखनऊ की बड़ी-सी हवेली का नाम है जिसमें कई किराएदार मामूली से किराए के एवज़ में रहते हैं। हवेली मिर्ज़ा की ही तरह जर्ज़र होते हुए भी दमख़म से खड़ी है। यदा-कदा उसकी भी दीवारें ढहती रहती हैं ज्यों मिर्ज़ा भी गिरने से पहले अक्सर संभल जाते हैं।
बांके
(आयुष्मान खुराना) आटा चक्की चलाता है और अपने माता-पिता भाई बहनों के साथ इसी हवेली में रहता है महज़ 30 रुपए महीने पर। मिर्ज़ा हवेली ख़ाली कराना चाहते हैं और बांके उनके इस ख़्वाब को हर वक़्त कुतरने की फ़िराक में। इन सब के बीच बेग़म साहिबा हैं जो मिर्ज़ा की बीवी हैं और उम्र में उनसे सत्रह साल बड़ी। मिर्ज़ा इंतज़ार कर रहे हैं कि कब बेग़म का जनाज़ा उठे और वे इस हवेली के मालिक बन बैठें
। बेग़म
मिर्ज़ा
की हरकतों से वाक़िफ़ हैं और उन्हें तवज्जो नहीं देती। इस उम्र में भी वे ज़िंदगी के क़रीब हैं और बालों का रंग-रोगन और सज्जा बरक़रार रखे हुए हैं।
मिर्ज़ा ज़रूर हवेली की क़ीमत सुन सुन कर किसी लीचड़ की नाईं ग़श खाते रहते हैं और उम्मीद करते हैं कि बेग़म जल्द अल्लाह को प्यारी हो जाएं।
मज़ेदार दृश्य है जब बेग़म पूछती हैं कि हम किसके साथ भागे थे तब
मिर्ज़ा कहते हैं आप भागीं तो अब्दुल रहमान के साथ थीं, निक़ाह हमसे हो गया । किस्सा कुछ यूं था कि बेग़म ख़ुद इस फ़ातिमा हवेली के मोह में रही हैं जिसे छोड़कर वे कहीं नहीं जाना चाहती थीं। मिर्ज़ा उम्र में उनसे बहुत छोटे हैं लेकिन घरजमाई बनने को तैयार। लालची मिर्ज़ा को कागज़ात पर बेग़म के दस्तख़त चाहिए। बेग़म कहाँ कम हैं सारी अंगुलियों पर पट्टी बांध लेती हैं। लखनवी अंदाज़ में यह डाल-डाल और पात-पात का खेल चलता रहता है। डॉक्टर बेग़म की हालत को जब कुछ कह नहीं सकते जुम्ले से जोड़ता है तो मिर्ज़ा भी आश्वस्त हो जाते हैं कि अब तो बेग़म रुख़सती के क़रीब हैं। वे कफ़न ख़रीदने भी पहुँच जाते हैं। आदतन वे वहां भी मौल-भाव से बाज़ नहीं आते।
हवेली पर निगाह बिल्डरों की भी हैं जो वकील और पुरातत्त्व के हवाले से उस पर कब्ज़ा करना चाहते हैं।
एक दिन मिर्ज़ा को ख़बर मिलती है कि बेग़म तो गईं। पूरी हवेली को लगता हैं कि बेग़म दूसरी दुनिया में कूच कर गई हैं लेकिन एक चिट्ठी मिर्ज़ा और उनके किराएदारों के चेहरे का रंग उड़ा देती है पर दर्शक को खिलखिलाने पर मजबूर । गुलाबो सिताबो के तमाम स्त्री पात्र ज़्यादा आत्मविश्वास और बुद्धि से भरे हैं फिर चाहे वह बेग़म हो या बांके की बहन और प्रेयसी।
गुलाबो सिताबो गति को पा सकती थी अगर हास्य-विनोद का पुट कुछ और गहरा होता। सामग्री अचार की है लेकिन चटखारे थोड़े कम । शूजित सरकार ऐसा विक्की डोनर और पीकू में कर चुके हैं यहाँ थोड़ी चूक हुई है लेकिन मिर्ज़ा और बेग़म (फ़र्रूख़ ज़फ़ र ) क़िरदार में डूबे नज़र आते हैं। फटी अचकन के धागों में लटके बुढऊ बढ़िया है।
जूही चतुर्वेदी की पटकथा वाली
गुलाबो सिताबो मज़ेदार है। वे खुद लखनऊ की हैं और शहर यहाँ ज़िंदा है ।
Mam behad umda tarike se apne gulabo sitabo se parichay krwaya he... Wakai behad khoob vishay ki patkatha he.. Mene bhi dekhi he....acchi movie he.
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