नहीं परोसा खाने की थाली में भरोसा

वाक़ई सियासी दखल ने खाने की  थाली में विश्वास नहीं परोसने दिया है। कहा गया है कि प्राचीन हड़प्पन थाली से मांसाहर हटा दिया जाए 
फ़र्ज़ कीजिये कि आप किसी प्राचीन देश में किसी प्राचीन शहर को समझने की जुगत में हों  यानी  वहां की संस्कृति, खाना, पहनावा और हो ये कि आपके साथ कुछ फ़र्ज़ीवाड़ा हो जाए। घबराइए नहीं बस इतना कि जो भोजन इतिहास आपसे साझा किया गया है, उसमें कुछ घपला कर दिया जाए। तब आपको कैसा  लगेगा ? क्या आप ठगा सा महसूस करेंगे ?

मेरी अपेक्षा तो  होगी कि जो खाना उस काल खंड में, उस सभ्यता में प्रचलित था वही परोसा जाए । यह और बात है की जिस अनाज या शोरबे  को मैं ना खा पाऊं वह मैं ना चुनूं। बहरहाल यह सब हो रहा है उस हड़प्पन संस्कृति के साथ जिसे पुरातत्व के विद्वान पांच हज़ार साल प्राचीन बताते हैं। वह एक विकसित सभ्यता थी और तमाम अनाजों दालों के साथ मांसाहार भी उस सभ्यता के खान-पान में शामिल था। दिल्ली  नेशनल म्यूजियम भी इस सभ्यता के हवाले से उस दौर के खाने को हमारी प्लेट तक पहुंचाना चाहता था। आइडिया   ही कितना दिलचस्प है कि जो थाली हड़प्पन दौर में परोसी जाती थी,उसका स्वाद आज के दौर में भी लिया जा सकता है। हल्दी के स्ट्यू में मछली ,साल के पत्ते में पका चिकन, सूखी मछली के साथ बाटी , मीट सूप ,काबुली चना के साथ लैम्ब  लीवर, महुआ के तेल में बानी चटनीऔर खीरे का अचार । और भी बहुत  कुछ आपकी प्लेट में होता जो कुछ सांसदों  की निगाह इस फ़ेहरिस्त पर न पड़ती। उनके आख़िरी मिनट के फरमान ने इस सूची पर पानी फेर दिया है जो हड़प्पन काल के ज़ायके से रूबरू करने वाली थी। 
यह नेशनल म्यूजियम का इवेंट है जिसमें वन स्टेशन मिलियन स्टोरीज के तहत इस बार सिंधु घाटी की सभ्यता का स्वाद और सुगंध फ़ैलनी थी। इस स्वाद को गहरे रिसर्च और पुरा अध्ययन के  बाद तैयार किया गया था। ख़ासकर जो चीज़ें और पाकशास्त्र के उन दिनों में प्रचलित तरीक़े थे उसके आधार पर। जानवरों की मिली हड्डियोंके हिसाब से  देखा गया कि बीफ़, मटन, कछुए, घड़ियाल के साथ नदी और समुद्री मछलियां भी खाई जाती थीं। केवल शाकाहार का परोसा जाना उस दौर की सही छवि प्रस्तुत  नहीं करेगा। फर्मेन्टेड वाइन भी सिंधु सभ्यता का हिस्सा थी तो इससे नफ़रत करनेवाले इस तथ्य को ही नकार देंगे। अनाज और दालों में गेहूं ,चावल ,रागी ,मटर अरहर और मूंग दाल का होना सिंधु सभ्यता के विकसित होने की पुष्टि करता है। और हाँ ज्वार की उन्नत किस्म भी उस सभ्यता में पनपा ली गई थी। अलसी और तिल भी हमारे पूर्वज खाते थे। जाने क्यों तथ्य हमारी राजनीति को नामंज़ूर है। और कुछ नहीं तो खाने की विरासत  के साथ ही छेड़छाड़। 

आलू , टमाटर, चीज़ सब बाद में दूसरे मुल्कों से आए। ये उस खाने में आपको नहीं मिलेंगे। ज़ाहिर है ये हड़प्पन खाने की प्लेट में नहीं होंगे अब कोई नेता आलू टमाटर की सब्ज़ी खाने की ज़िद ही कर ले तब तो इतिहास और  संस्कृति का मक़सद ही ख़त्म हो जाए। नेशनल म्यूजियम दिल्ली की हिस्टोरिकल गैस्ट्रोनॉमिका से मीट को अलग करके इसी मक़सद का अंत किया गया है।  सियासत की लंबी नाक है जो कहीं भी घुस जाती है।
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