इस लोकतन्त्र को संसद की ज़रुरत नहीं है

इस लोकतन्त्र को संसद की ज़रुरत नहीं है जो होती तो दिल्ली की क्रूर हिंसा के बाद इसके दरवाज़े यूं बंद न होते। कोई कैसे इस ख़ूनी खेल के बाद यूं चुप्पी ओढ़ सकता है ?  होली के बाद बात करने का दुस्साहस कर सकता है ? क्या जनप्रतिनिधियों को एक बार भी यह ख़याल नहीं आया होगा कि हम इस कठिन समय में तकलीफ़ से गुज़र रही दिल्ली के जख्मों पर मरहम रख सकें। एक ऐसा भाव दुखी अवाम के सामने आए जो बता सके कि हमें उनकी चिंता है, परवाह है। यह लापरवाही आख़िर क्यों की जा रही है? यह उदासीन रवैया क्यों कि  आपके आंसू होली के बाद पोछेंगे। उनकी आँखों के सामने उनके अपनों को गोली लगी है ,ज़िंदा जलाया गया है। संसद इतने ज़रूरी समय में गैरहाज़िर कैसे हो सकती है ? संसद की देहरी पर माथा लगाने वाले ऐसा कैसे कर सकते हैं। यह ईंट-गारे से बनी इमारत भर नहीं बल्कि हमारे पूर्वजों की उस आस्था की बुलंद इमारत है जो हर हाल में तंत्र को लोकसहमति से चलाना चाहते थे। आज जो दल चुनकर आया है क्या उसे अपने ही सांसदों पर भरोसा नहीं या वह विपक्ष की आवाज़ दबाना चाहता है जो यूं भी अब बहुत कम संख्या में और दबी हुई है। 

अब तक 47 निर्दोष दिल्ली की हिंसा में मारे जा चुके हैं। चार सौ से ज़्यादा घायल हैं। 79 घर पूरी तरह जल गए हैं 327 दुकाने ख़ाक हुईं हैंऔर ख़ाक हुआ है जनता का विश्वास जिसे संसद लौटा सकती थी लेकिन जलते घावों पर रूई का फोहा रखने में हमारे नेता नाक़ाम रहे। क्या वाक़ई इस लोकतन्त्र को संसद की ज़रुरत नहीं है। यह बिना जनप्रतिनिधियों की बात सुने आगे बढ़ सकता है। संकट के समय देश को किसी सामूहिक आवाज़ की अपेक्षा  नहीं है। पहले शांति हो फिर बातचीत करेंगे यही रवैया संवैधानिक संस्थाओं का रहा तो जनता का यकीन इस व्यवस्था में कैसे बना रहेगा। लोकतंत्र में आस्था का सीधा ताल्लुक अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से  है। कठिन समय में उनकी आवाज़ एक तरफ़ कर पुलिस के हवाले कर दी जाए तो यह तो अंग्रेज़ों वाला शासन ही होगा। फिर तो राजा भी क्या बुरे थे। हम किस दौर में लौट रहे हैं ? हमारे चुने लोगों की आवाज़ कहाँ ग़ुम है? क्यों नहीं मुखर होनी चाहिए लोकसभा राज्यसभा और हर  विधानसभा की आवाज़ ? ये चुने जाने के बाद होली मानाने के लिए हैं क्या ? इस आग में यूं ठंडे पड़े रहना मुर्दा हो जाना ही होगा। इस संकटकाल में तो आपातकालीन सत्र बुलाए जाने की आवश्यकता थी लेकिन  चिल मारो यार होली के बाद मिलेंगे। नए मौसमों का पता खोजो रे नेताओं इस आग में कोई थ्रिल नहीं है। बक़ौल पाश


मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती 

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती 
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती 
बैठे-बिठाए पकड़े  जाना  बुरा तो है 
सहमी-सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है 
सबसे ख़तरनाक नहीं होता 
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है 
जुगनुओं की लौ में पढ़ना 
मुट्ठियां भींच कर वक़्त निकल लेना बुरा तो है 
सबसे ख़तरनाक नहीं होता 

सबसे ख़तरनाक  होता है 
मुर्दा शांति से भर जाना 
तड़प का न होना 
सब कुछ सहन कर जाना 
घर से निकलना काम पर और 
काम से लौटकर घर आना 
सबसे ख़तरनाक  होता है 
हमारे सपनों का मर जाना 

हाँ सबसे ख़तरनाक  होता है मुर्दा शांति से भर जाना और हमारे चुने हुए नेता उसी से भर गए हैं। 


    

टिप्पणियाँ

  1. सबसे ख़तरनाक होता है
    मुर्दा शांति से भर जाना
    तड़प का न होना
    सब कुछ सहन कर जाना
    घर से निकलना काम पर और
    काम से लौटकर घर आना
    सबसे ख़तरनाक होता है
    हमारे सपनों का मर जाना... सच्च का आईना दिखाती अभिव्यक्ति. बहुत सुंदर

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