सांसद को रोकने से ज़्यादा असंसदीय क्या होगा



 असंसदीय शब्दों की सूची बाहर आई है साथ में  क्या कुछ और भी बाहर आया है ? आया है  सत्ता पर काबिज़ लोगों का डर। कुछ इस तरह  जैसे चोर की दाढ़ी में तिनका। शब्दों पर आपने रोक लगा दी लेकिन भाव और मुख मुद्राओं का क्या ? उन  पर कैसे प्रतिबन्ध लगेगा। मान लीजिये आपने बहुत ही संसदीय शब्द बहुत ही अभद्र भाव से कहे हों तब ? और तो और आपने किसी नेता को मूर्ख बोलने के लिए अल्प बुद्धि शब्द का प्रयोग कर लिया तब ? तानाशाह को आपने तन कर खड़ा शाह बोल दिया तब। ज़ाहिर है कुछ शब्दों पर प्रतिबन्ध लगा कर आप अभिव्यक्ति को नियंत्रित नहीं कर सकते। एक फिल्म में देव आनंद अपने साथियों को आगाह करने के लिए कह देते थे जॉनी पुलिस का आदमी है। शब्दों की फेहरिस्त पढ़ते हुए लगता है जैसे बात कहने के अंदाज़ और बहस से ही जैसे किसी को इंकार हो। अकबर के दरबार में बीरबल अपनी बात को पुख्ता तरीके से रखने के लिए अपनी बुद्धि के साथ नए-नए प्रयोग करते थे, कुछ वैसे ही तरीके सांसदों को भी अपनाने होंगे। आखिर उन्हें जनता ने चुन कर भेजा है और वह जनता की ही भाषा बोलते हैं। इन शब्दों के आलावा जीता हुआ सांसद लोक मुहावरे भी जानता है। यह मुद्दा इतना रोचक हो चुका है कि दरबारी ही नहीं आम जनता भी हंस रही है लोटपोट हो रही है। बहुत संभव है कि विपक्ष के पास शब्दों का अभाव  नहीं रहेगा। वाकचातुर्य में  वे बीरबल के ही वंशज मालूम हो सकते हैं लेकिन यह जरूर है कि बोलते हुए एक भय  हावी हो सकता है जो किसी भी सत्ता को जरूरी लगता है।

देश की दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही के दौरान बोले जाने वाले शब्दों की एक लिस्ट बनाई गई है जिन्हें अब असंसदीय शब्दों की श्रेणी में रखा जाएगा। इन शब्दों में जयचंद , शकुनि, जुमलाजीवी ,बालबुद्धि ,कोविड स्प्रेडर ,स्नूपगेट ,शर्मिंदा ,रक्तपात ,खूनी ,धोखा ,शर्मिंदा,दुर्व्यवहार ,चमचा ,चमचागिरी, भ्रष्ट, कायर ,मगरमच्छ के आंसू ,दादागिरी , पाखंड, गदर , लॉलीपॉप ,खरीद फरोख्त ,कोयला चोर ,विनाश पुरुष, निकम्मा, नौटंकी, गुल खिलाए, पिट्ठू,  बहरी सरकार जैसे शब्द शामिल हैं। क्या यह समझा जाए कि अब तक जब भी इन शब्दों का प्रयोग हुआ है ये  कार्यवाहियों से हटा दिए गए हैं यानी  जो भी दर्ज़ हो  रहा है वह सब दूध जैसा  धवल है। सरकार बेदाग है। विपक्ष इस पर तीखा प्रहार करता हुआ नज़र आ रहा है। कांग्रेस कह रही है जुमलाजीवी से किसको डर लगेगा जिसने जुमले दिए हों ,जयचंद शब्द से कौन डरेगा जिसने देश से धोखा किया। पार्टी सचिव जयराम रमेश ने ट्वीट किया -"मोदी सरकार की सच्चाई दिखाने के लिए विपक्ष की ओर से इस्तेमाल अब सभी शब्द असंसदीय माने जाएंगे ,अब आगे क्या विषगुरु।" टीएमसी के राज्यसभा सांसद  डेरेक ओबरॉयान ने कहा मैं इन तमाम शब्दों का इस्तेमाल करूंगा। मुझे निलंबित कीजिये ,मेरी लड़ाई लोकतंत्र के लिए है। शिव सेना की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने कहा -"अगर हम करें तो करें क्या ,बोलें तो बोलें क्या ?सिर्फ वाह मोदी जी वाह !"ज़ाहिर है विपक्ष भले ही राष्ट्रपति चुनाव में बिखरा-बिखरा नज़र आ रहा हो लेकिन यहां एक है और हमलावर भी। अब जुमलाजीवी शब्द असंसदीय है तो फिर आंदोलनजीवी क्यों नहीं। क्योंकि आंदोलनजीवी प्रधानमंत्री ने कहा था ?

हैरानी है कि ये आम बोलचाल के शब्द हैं और लोकतंत्र के मंदिर से ही लोकभाषा को लुप्तप्राय बनाया जा रहा है। जनता की नुमाइंदगी करने वाले जनता की ही भाषा तो संसद में बोलते हैं फिर उनके शब्द असंसदीय क्यों कर होंगे । संसद कानून बनाने वाली सर्वोच्च इकाई है फिर इसके सांसद पर यह रोक-टोक क्यों। सांसद को रोकने से ज़्यादा असंसदीय भला क्या होगा। यह सूची इतनी लंबी है कि जब नेता भाषण देंगे तो क्या सिर्फ बीप-बीप सुनाई देगा या सुनने वाला अपने कानों में खुद ही एक फ़िल्टर लगा लेंगे। यह तानशाही नहीं तो क्या और जो सांसद इस पर रो रहे हैं क्या वे घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। क्या वे भ्रष्ट आचरण कर रहे हैं ? क्या ऐसा करने के लिए उन्हें किसी ने लॉली पॉप दी है या वे पाखंडी हैं या यह उनका दोहरा चरित्र है ? क्या वे जुमलाजीवी होकर रह गए हैं ? लगता है कि अठारह जुलाई से शुरू होने जा रहे मानसून सत्र में सरकार प्रतिरोध और हंगामे से डर रही है यह भूलते हुए कि जब वे विपक्ष में थे तो किस कदर हल्ला मचाए रहते थे। यह दोहरा व्यवहार नहीं है तो क्या है?
     लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला ने कहा है -" देश में भ्रम की स्थिति नहीं होनी चाहिए।किसी शब्द को बैन नहीं किया गया है ,लोकसभा सचिवालय ने कुछ असंसदीय शब्दों को जो लोकतंत्र की गरिमा के अनुकूल नहीं थे,को विलोपित किया है। इसमें संसद और और कुछ राज्यों की विधानसभाओं की कार्यवाही का भी संदर्भ दिया गया है। यह संसद की प्रक्रिया है जो 1954 से चली आ रही है।"  बेशक यह परंपरा का ही हिस्सा है लेकिन इससे पहले सूचियों ने ध्यान क्यों नहीं खींचा ?  क्यों एक ज़िम्मेदार सरकार अपने खिलाफ कुछ भी सुनने से दूर होना चाहती है। खुद को बेदाग और अजेय साबित करने का जूनून शेष को किस तरह जोड़ पाएगा ,शामिल कर पाएगा। संसद पक्ष और  विपक्ष से ही मिलकर बनती है। किसी शायर ने कहा भी है  हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो। यह विपक्ष को मौन रखने का नया तरीका है लेकिन क्या शब्दों के इस्तेमाल की ज़रूरत केवल विपक्ष को पड़ती है क्या पक्ष यह नहीं कह सकता कि विपक्षी नेता पाखंड कर रहे हैं ,घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। कुल जमा यह सूची बेहद गैर सृजनात्मक मालूम होती है। किसी भाषाविद्वान् की सलाह के बगैर ,किसी विशेषज्ञ समिति के बिना बनी हुई । 

शब्द अपने आप में कोई घात नहीं करते उनका संदर्भ मायने रखता है। एक मिसाल देखिये कि किसी को गधा कहे बगैर भी कैसे गधा कहा जा सकता है। शायर मिर्ज़ा  ग़ालिब को आम खूब पसंद थे। ग़ज़ल की महफ़िल जमने से पहले आम की महफ़िल सज गई थी। दिल्ली की अमराइयों और मंडी से लाए आम महक रहे थे। हकीम साहब आम काट रहे थे। ग़ालिब ने पूछा -"आप एक भी आम नहीं खाएंगे" हकीम ने गुज़र रहे गधों की और इशारा करते हुए कहा-" नहीं ,देखिये गधे भी आम नहीं खाते।" ग़ालिब ने धीमे से कहा -"जी गधे ही नहीं खाते।  " फिर क्या था हकीम का चेहरा देखने जैसा था और महफ़िल कहकहों से गूँज गई थी। 


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