क्या होगा फिर मुद्दे पर वोट और फिर वोट की चोट


वक्त की नब्ज़ पर हाथ रखा  जाए तो देश में एक राज्य दिल्ली है जिसकी सरकार के प्रतिनिधि कह रहे हैं कि उन्हें सरकार तोड़ने के लिए खरीदा जा रहा है ,एक बिहार है जहां के मुख्यमंत्री को याद आ गया है कि उन्होंने सात साल से गलत टेका ले रखा  था , एक महाराष्ट्र है जहां की सरकार टूटकर केंद्र में सरकार वाली पार्टी की गोद में जाकर बैठ गई है ,एक गुजरात है जहां की  सरकार ने बलात्कार और हत्या के दोषसिद्ध आरोपियों को जेल से निकाल खुला छोड़ दिया है , एक राजस्थान है जहां गांधीवादी विचारधारावाली सरकार तो है लेकिन उसे भी नहीं सूझ रहा है कि दलित का सम्मान कैसे सुनिश्चित किया जाए और एक नन्हा सा राज्य  तेलंगाना है जहां से एक बयानवीर ने फिर उबालें खाती राजनीति में भाटा डाल दिया है। 

इन हालात को पढ़ने वालों और झेलनेवालों  को बांटने  का बचाखुचा काम मीडिया और सोशल मीडिया कर देता है  नेताओं का काम फिर बिलकुल आसान हो जाता है।  तकलीफ की तह में जाने की बजाय नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाज़ी हर कहीं देखी जा रही है। मुद्दा कोई हो दो गुट बन ही जाते हैं। इन नेताओं की नूरा कुश्ती की पोल जनता के सामने खोल सके ऐसा फ़िलहाल कोई नहीं। पहले यह काम जनसंचार के माध्यम करते थे, अब इनकी परिभाषा बदल गई है।  बड़े-बड़े व्यापारी शेयर इधर उधर खसका कर  मीडिया की आवाज़ इधर-उधर करने में लग गए हैं। अब जब यहां से उम्मीद धुंधली हो चली है, न्याय की उम्मीद न्यायलय से होने लगती है लेकिन यहां जनता से पहले सरकारें कतार में हैं। वे  न्याय के दंड से झटपट फैसले अपने हक़ में करा लेना चाहती है। कार्टूनिस्ट उन्नी ने एक बेहतरीन कार्टून पिछले दिनों बनाया जिसमें माता-पिता बच्चे से कह रहें हैं फ़ोकट की घोषणाओं से फ़ुटबाल के विवाद तक सारे मसले अदालत की देहरी चढ़ जाते हैं तुम वक़ील बनो बहुत बढ़िया भविष्य होगा। उल्लेखनीय है कि राजनीतिक पार्टियों के बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी सेवाएं मुफ़्त करने पर केंद्र की सरकार को तकलीफ़ है और वह चाहती है कि देश की सर्वोच्च अदालत तत्परता से फैसला सुना दे। अदालत ने कह दिया है कि राजनीतिक पार्टियां आपस में मिलकर तय करें, इसमें अदालत क्या कर सकती है। ज़ाहिर है ये राजनीतिक पार्टियां  सिर्फ सत्ता में आकर जनता को दुहने के मुद्दे के अलावा किसी मसले पर एकमत नहीं होती। लगता तो है कि जनता नेताओं की इस कवायद को बहुत पैनी निगाह से देख रही है। जनता उस पार्टी को भी देख रही है जिसके नेता  जब तब ऐसे  बयान दे डालते हैं जो सामाजिक सद्भावना के ताने-बाने को छिन्न भिन्न करते हुए नज़र आते हैं। भाजपा की प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बाद ताज़ा बयान तेलंगाना के विधायक ठाकुर राजा सिंह का आया है। भाजपा ने इस बार बदलाव यह किया है कि विधायक को पार्टी से निलंबित कर दिया है और सख्त एक्शन लेने से पहले दस दिन के भीतर जवाब देने के लिए कहा है। इसके बावजूद टी राजा नहीं चूकें हैं और उन्होंने दूसरा बयान भी दे डाला  है। 

स्टैंडअप कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारुक़ी हैदराबाद में अपना शो करनेवाले थे। वही मुनव्वर जिन्हें मध्यप्रदेश सरकार ने इंदौर में शो करने के दौरान जेल में डाल दिया था। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है इसलिए यह संदेश साफ़ था कि पार्टी को मुनव्वर का विरोध करनेवालों से कोई एतराज़ नहीं जबकि एक कॉमेडियन को यूं जेल में डालने पर सरकार की कड़ी आलोचना हुई थी। तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव यानी केसीआर की सरकार है। तेलंगाना के साल  2014 में राज्य बनने के बाद से तेलंगाना राष्ट्र समिति ही सत्ता में है। भाजपा के एकमात्र विधायक टी राजा ही 2018 में जीते थे। अब शायद धर्म के नाम पर वोट  लेने की ज़िम्मेदारी भी उन्होंने ही अपने सर ले ली है। भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बयान को दोहराने के बाद समूचे तेलंगाना में उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज़ हो रही हैं और विरोध प्रदर्शन भी जारी हैं। इस बयानबाज़ी से सामाजिक तानाबाना तोड़ने की कोशिश दुबारा भी हुई जब टी राजा ने अपने नए बयान में  कहा कि उनके लिए धर्म पार्टी से बड़ा है ,उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है और वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के ज़िम्मेदार सिपाही बने रहेंगे । स्पष्ट है निलंबन के बावजूद एक विधायक के बयान आने नहीं रुके हैं आखिर यह शह उन्हें मिलती कहां से है ? 

गोदी मीडिया को रात की बहसों के लिए नया खादपानी मिल गया है। अबकी बार राज्य नया है। उत्तर भारत में तो बहुत चल गया यह खेल। अब नई फसल पक रही है दक्षिण में ।  टी राजा की ज़मानत देनावाले ने भी कहा है  कि उन्हें भी सर तन से जुदा करने की धमकियां   मिल रही हैं। राजस्थान की वहशी घटना जिसमें कन्हैया लाल दर्ज़ी की हत्या कर दी गई थी शायद ही कभी कोई भूल सकता है लेकिन फिर से वैसे  ही उकसाने की भूल कोई क्यों जानबूझ  कर कर रहा है ? किसे फायदा है इसमें। चिल्ला-चिल्ला कर शिवाजी महाराज नाम के साथ हिदुत्व का बीड़ा उठानेवाले क्या वाकई शिवाजी को जानते हैं ,पढ़ते हैं ? गोविंद पानसरे ने हू वाज़ शिवाजी किताब लिखी थी जिसमें 1657 का वह खत भी शामिल है जो शिवाजी ने औरंगज़ेब को लिखा था। पत्र  जजिया कर को चुनौती देता हुआ था। शिवाजी का विरोध बादशाह के धर्म के खिलाफ नहीं उनकी करनीति के खिलाफ था। उन्होंने लिखा "साम्राज्य की सरकार रोजमर्रा का प्रशासन हिन्दुओं से जजिया लेकर चला रही है। आपसे पहले बादशाह अकबर ने अत्यंत समभाव से शासन किया था जिसमें दाऊदियों और मोहम्मदियों के अलावा हिन्दुओं जैसे ब्रहम्मणों और शैवों के धार्मिक रिवाज़ों को भी संरक्षण  दिया जाता था। बादशाह सब  धर्मों की मदद करते थे इसलिए जगतगुरु कहलाए। इस खत में शिवाजी जहांगीर और शाहजहां का नाम लेते हुए कहते हैं की उन्होंने भी सब धर्मों के रीति-रिवाज़ों  को पालन करने दिया। शिवाजी इन तीनों बादशाहों के साथ  औरंगज़ेब  की तुलना  करते हुए कहते हैं अपने शासन में आपने अनेक किले और सूबे गँवा दिए ,बचे हुए भी गंवाने वाले हैं। इसकी वजह यह है की बुनियादी काम की चीज़ों के लिए आपके पास फुरसत ही नहीं है। यहां सोचनेवाली बात यह है कि वर्तमान हुकूमत  शिवाजी द्वारा बादशाह अकबर के लिए जगतगुरु जैसी उपाधि कैसे स्वीकार सकती है वह भी शिवाजी महाराज के ज़रिये  ? ऐसा नरेटिव थोड़ी बनना चाहिए। 2015 में पानसरे की हत्या  हो जाती है। ऐसे ही कलबुर्गी ,दाभोलकर और गौरी लंकेश की भी।  धर्म के नाम पर लगातार फैलते वैमनस्य को अगर नहीं चीन्हा गया या वोट के लिए इस पर पर्दा डाला गया तो मुमकिन है कि हम बेहद खतरनाक हालात में फंस जाए। बयानबाजियां और नतीजे साफ़  दिखाई देने के बावजूद यह चुप्पी बनी रहना खतरनाक है। नेताओं की दिलचस्पी सिर्फ तत्कालीन चुनावों में रहती है जनता को अपना भविष्य देखना चाहिए। 

किसी दलविशेष को यह लगता  कि वह ऐसी हरकतों से देश की तहज़ीब में आमूलचूल परिवर्तन कर खोया गौरव लौटा देगा  तो यह  भ्रम से ज़्यादा कुछ नहीं है। दुनिया में हमारी उदार छवि को लगातार धक्का पहुंच रहा है और प्रजातांत्रिक मूल्यों को हर रोज़ गिरते हुए दिख रहे हैं। सरकारी जांच एजेंसिया चुनचुन कर विपक्ष को निशाना बना रही हों  ,हत्यारे और बलात्कारी समय से पहले रिहाई पाकर सम्मानित होकर संस्कारी बताए जा रहे हों ,मज़हब को लेकर नफ़रत भरे बयान नेता के कद को बढ़ाने का पैमाना  बन गए हों ,दलित बच्चा इसलिए पीट-पीट कर मार दिया जाता है क्योंकि वह अलग रखे सवर्ण मटके से पानी पी लेता है ऐसे में कैसे कोई मुल्क अपनी आज़ादी के पचहत्तरवें साल में खुश हो सकता है। अभी खुश होने में बहुत वक्त है क्योंकि काम बहुत है। 

टेकचंद की कविता 'भीड़ और पागलपन के ख़िलाफ़ 'बहुत कुछ कह जाती है 

धर्मांद भीड़ के इस  पागलपन में 

मैं शामिल नहीं हूं  

आप मुझे अकेला होने के जुर्म में 

पागल करार दे

गोली मार सकते हैं 

टांक सकते हैं सूली पर 

भूख और रोटी के तर्क का 

छाप और चोटी के फ़र्क का 

सच कहने पर जेल भेज सकते हैं 

आप कुछ भी कर सकते हैं 

जो कि आप कर ही  रहे हैं 

बेरहम होकर मुझे कुचल सकते हैं 

जैसा कि आप कुचल ही  रहे हैं  

क्योंकि मैंने आपने वोट की ताकत 

आपको सौंप दी है 

मगर वोट की चोट फिर मेरे हाथ होगी 

तब एक एक अकेला भारी पड़ेगा

 इस धर्मांध भीड़ पर 

तब आपकी गोली सूली जेल 

सब धरे रह जाएंगे 

लोग जब वोट की चोट लगाने आएंगे क्या होगा फिर मुद्दे पर वोट और फिर वोट की चोट 

जब मुद्दों पर मोहर लगाएंगे 

आप भी अकेले रह जाएंगे। 


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