दोनों ही पक्षों ने मर्यादा को तोड़ा है

बहुत हैरानी और दुःख की बात है कि नेताओं की अदूरदर्शिता किसी भी राज्य के सामान्य दिनों को अचानक ही उथल-पुथल से भर देती है। क्या वाकई ये नेता कहलाए जाने लायक भी हैं? एक राज्य राजस्थान जिसकी सरकार जब से वजूद में आई है यानी 2018 से खुद को बचाने में ही लगी हुई है। सरकार को खुद याद नहीं होगा कि उसने कितने दिन राज-काज संभाला है और कितने दिन रिसॉर्ट पॉलिटिक्स की है। जनता के काम बनें, इससे पहले ही सरकार के बने रहने पर ही तलवार लटकने लगती है। यह भी उस वक्त हो रहा है जब सरकार के पास ठीक-ठाक बहुमत है या फिर उसके नेता ने वह जुटा लिया है। होता यह भी है कि उसकी  अपनी पार्टी के  नेता जो उपमुख्यमंत्री भी थे, रूठ जाते हैं क्योंकि उन्हें मुख्यमंत्री बनना था। उन पर आरोप लगता है कि वे उस पार्टी से बातचीत कर रहे थे जिसके ख़िलाफ़ सड़कों पर लड़कर उन्होंने सत्ता हासिल की थी।  मान-मनुहार के बाद वे लौट आते हैं। उनसे उनके दोनों पद उपमुख्यमंत्री और  पीसीसी अध्यक्ष का छिन जाते हैं। वे पार्टी में बने रहते हैं। फिर ऐसा क्यों होता है कि उसी नेता की वजह से पार्टी में दूसरी बार बगावत होती है। अबकी बार विधायकों को लगने लगता है कि पार्टी आलाकमान उन्हीं बागी को मुख्यमंत्री बनाने जा रहा है और पूरा नेतृत्व, सरकार सब हिल जाते हैं। नतीजतन एक बार फिर राज्य अस्थिरता की ओर बढ़ने लगता है। क्या तंत्र है यह ? कोई ज़िम्मेदारी लेगा इसकी? दूसरी तरफ़ देश में ऐसे भी राज्य हैं जहां तीन-तीन मुख्यमंत्री एक ही कार्यकाल में बदल दिए जाते हैं और कोई आवाज़ नहीं सुनाई देती। गुजरात के एक पूर्व  मुख्यमंत्री ने साफ़ कहा कि मुझे रात को ऊपर से निर्देश मिला और सुबह मैंने पद छोड़ दिया। एक तरफ़  खुला दंगल है तो दूसरे  में पूरी तानाशाही। राज्य और देश इन दोनों ही तरीकों से ऊब तो नहीं गए हैं? उनमें नैराश्य तो नहीं पसर रहा है? ऐसे में क्या कोई उम्मीद है कि महंगाई, बेरोज़गारी और नफ़रत भरी बहसों के षड्यंत्र में उलझाने के बजाय आम जन को राहत दे?  कोई आस है ऐसी? आज़ादी के अमृत महोत्सव के साल में ऐसी निराशा से मुक्त हो भारतवर्ष, ऐसा कोई रास्ता है कहीं?

हालिया राजस्थान के  सियासी नाटक की पटकथा किसने रची? किसने लिखा है इसे या जो कुछ भी हुआ वह सब अनायास और अचानक सामने आया घटनाक्रम था? किसकी ग़लती है यह? अशोक गहलोत कांग्रेस के उन वफ़ादार नेताओं में हैं जिन्हें अब अंगुलियों पर गिना जा सकता है। उन्हें निर्देश मिला था कि उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना है। सब जानते हैं कि गहलोत राहुल गांधी को ही इस पद पर देखना चाहते थे यानी ख़ुद नहीं बनना चाहते थे। शायद यह कांटों का ताज था  जो एक राज्य की सत्ता के एवज में उन्हें दिया जा रहा था। गहलोत को यह आशा रही होगी कि जीतने के बाद राजस्थान की सत्ता उनके ही किसी विश्वासपात्र को सौंप दी जाएगी लेकिन इस विश्वास के तो परखच्चे उड़ गए और इसके अंश मीडिया, जनता और विधायक की आंखों में किरकिरी बनकर समाते चले गए। अशोक गहलोत समर्थक विधायकों ने बग़ावत कर दी क्योंकि उन्हें ऐसे संकेत मिले  कि दिल्ली से अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे की जो टीम आई है वह उनका मत जानने नहीं बल्कि सचिन पायलट का नाम उन पर थोपने आई है। गहलोत समर्थक इन नेताओं की बैठक  में शामिल न होकर संसदीय मामलों के मंत्री शांति धारीवाल के घर पर जुट गए। इसे कांग्रेस आलाकमान के नेतृत्व को चुनौती बताया जा रहा  है। कुछ का यह भी मानना है  कि गहलोत भले ही आलाकमान के नुमाइंदों के साथ विधायकों का इंतज़ार कर रहे थे लेकिन उनकी विधायकों को शह थी। गहलोत के लिहाज़ से न भी देखा जाए तो यह भी लगता है कि पार्टी अपने एक नेता से कुछ ज़्यादा की मांग कर रही थी। केवल दो राज्य देश में अभी कांग्रेस के पास हैं- छत्तीसगढ़ और राजस्थान। राजस्थान तो ऐसा है जहां गहलोत भाजपा के चक्रवातों से बामुश्किल सरकार बचा पाए थे। ऐसे में जब पार्टी को अध्यक्ष भी उन्हें ही चुनना था तो प्रदेश को क्योंकर दांव पर लगाना था? क्या इतनी सी बात पार्टी के राजस्थान प्रभारी अजय माकन को नहीं समझ आई या फिर यह वह असुरक्षा थी जो पार्टी में गहलोत का बढ़ता क़द देखकर पार्टी के तमाम  नेताओं में समा गई थी। इस पूरे एपिसोड में गहलोत का  सर्वाधिक नुक़सान हुआ है। तीन दिन पहले तक वे एक स्वीकार्य नेता थे और फिर अचानक आलाकमान के निर्देशों की धज्जियां उड़ाने वाले नेता में तब्दील होते दिखाई देने लगते  हैं। 

कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने से पहले गहलोत से इस्तीफ़ा मांगना पहली बड़ी गलती रही है। दूसरे, अजय माकन का यह कहना कि विधायकों ने अनुशासनहीनता की है। यह मसले को हल करने की बजाय बिगाड़ना ज़्यादा लगता है; तीसरे, सचिन पायलट का विधानसभा में विधायकों से जा-जाकर मिलना और पूरे प्रदेश का 'नए युग की तैयारी' के पोस्टर्स से पट जाना ऐसा था जैसे किसी दूसरी पार्टी की सरकार बनने जा रही हो। पार्टी का नेतृत्व भले ही युवा और प्रखर नेता सचिन पायलट को पार्टी में लौटा लाया हो, ज्योतिरादित्य की तरह भाजपा में जाने से बचा लाया हो लेकिन राजस्थान में कभी भी गहलोत बनाम पायलट की रार को थाम नहीं पाया। यह बात पूरे देश की जनता जानती है लेकिन आलाकमान और राज्य के बीच कड़ी की भूमिका निभाने वाले चूक गए। इस चूक ने भूचाल ला दिया। 

गहलोत को 'घेलोट' बोलने वाले  मीडिया को चटखारे मिल चुके थे। विधायकों ने शक्ति प्रदर्शन कर दिया था, आखिर लोकतंत्र आंकड़ों की ही तो ताकत है।  जिन विधायकों को टूटने के डर से अशोक गहलोत किसी अभिभावक की तरह हमेशा बचाते आए थे या कहें कि उनकी मिजाज़पुर्सी उन्हें लगातार करनी होती थी उन्हीं विधायकों को आशंका थी कि कहीं ऐसा न हो कि उनके नेता से मुख्यमंत्री का पद भी ले लिया जाए और वे अध्यक्ष भी न बन पाएं। इस नाते यह बग़ावत कोई अनहोनी भी नहीं थी और वे यह भी नहीं चाहते थे कि उसे नेता बना दिया जाए जिसकी वजह से वे बाड़ों में रहें।  यह आपसी नाता ही था कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र होने से बचा रहा। मध्यप्रदेश की सत्ता और ज्योतिरादित्य दोनों चले गए। पंजाब की ग़लती ने तो सरकार भी नहीं बनने दी और सीएम भी चले गए। महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे अपनी पार्टी को तोड़कर भाजपा की गोद में बैठ गए। हालांकि यहां कांग्रेस सीधे सत्ता में नहीं थी लेकिन ऐसे उदहारण भी पार्टी को गलती करने से नहीं रोक पाते तो समस्या गंभीर मालूम होती है। राजस्थान की हालिया बग़ावत पार्टी के भीतर ही थी  लेकिन इस बीच गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी का बयान खूब चर्चा में है। वे कह रहे हैं कि रात को पार्टी नेतृत्व का संदेश मिला और सुबह उन्होंने बिना एक शब्द भी बोले राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। यह ठीक एक साल पहले की बात है। गुजरात में पांच सालों में तीन मुख्यमंत्रियों को बदलने के बाद भाजपा चौथी बार सत्ता में आने की कोशिश में है। गुजरात में भाजपा की प्रदेश इकाई लगभग गौण ही रहती है और देश के पीएम और गृहमंत्री के बिना वहां पत्ता भी नहीं हिलता। पांच साल के शासन के बाद भी वे आश्वस्त नहीं है कि चुनाव जीत लेंगे। दौरे और घोषणाएं जारी हैं। ज़ाहिर है एक पार्टी में स्थानीय नेतृत्व सिरे से ही गायब है तो दूसरी ओर यह इतना ज़्यादा है कि अनुशासन की कोई रेखा बन ही नहीं पाती। जनता अपने हित के फैसलों का इंतज़ार करती रह जाती है। ये दोनों ही स्थितियां उसे निराश कर रही हैं। नफ़रत का डोज़ तो बीच-बीच में उसे पिला ही दिया जाता है। बिल्किस बानो के अपराधियों की रिहाई भी जनता देखती है और बुलडोजर की ताक़त भी। ऐसे में सकारात्मक उद्देश्य के साथ अगर कुछ चेहरे दिखाई दे जाते हैं तो उस पद यात्रा में जिसे भारत जोड़ो का नाम दिया गया है। हंसती-खेलती, गले मिलतीं और खुद पर निहाल होती हुई बच्चियों की तस्वीरें सकारात्मकता जगाने वाली हैं। देश को इस ऊर्जा की ज़रुरत है। ऊर्जा मिली शायद तभी एक कट्टर वर्ग जो इसी वैमनस्य के खाद-पानी से  राजनीति को चमकाना चाहता रहा है, वह मस्जिदों, मदरसों का रुख़ करने लगता है। यह अच्छा है और यही नए युग का सूत्रपात है। मस्जिदों में मंदिर ढूंढ़ना कोई गुनाह नहीं है लेकिन उसकी राजनीति में वोट का गणित देखना गुनाह है। भाई-भाई के बीच नफ़रत बोना गुनाह है। भारत जोड़ो यात्रा इस नफ़रत को कम करने के पवित्र उद्देश्य पर पांच महीने चली तो देश को सकारात्मकता से भर सकती है और जो ख़राब सियासत की कालिख़ में घिरी तो एक बड़ा मौक़ा देशवासियों के हाथ से चला जाएगा क्योंकि हम अपने वैविध्य में ही एक हैं। इधर-उधर की सियासत के बीच विविधता का सम्मान ही एकमात्र  पथ है जो देश को जोड़ता है। देखना यह होगा कि कहीं राजस्थान का मसला भारत जोड़ो यात्रा को नुकसान न पहुंचाए।

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