उम्र उधेड़ के, साँसें तोड़ के


आज गुलज़ार साहब की 76 वीं सालगिरह है उन्हीं की एक नज़्म जो मेरे  सवाल का जवाब भी है.
 

रोज़गार के सौदों में जब भाव-ताव करता हूँ
गानों की कीमत मांगता हूँ -
सब नज्में आँख चुराती हैं
और करवट लेकर शेर मेरे
मूंह ढांप लिया करते हैं  सब
वो शर्मिंदा होते हैं मुझसे
मैं उनसे लजाता हूँ
बिकनेवाली चीज़ नहीं पर
सोना भी तुलता है तोले-माशों में
और हीरे भी 'कैरट' से तोले जाते हैं .
मैं तो उन लम्हों की कीमत मांग रहा था
जो
मैं अपनी उम्र उधेड़ के,साँसें तोड़ के देता हूँ
नज्में क्यों नाराज़ होती हैं ?

ps:गुलज़ार साहब की  किताब
छैंया-छैंया के बेक कवर से

टिप्पणियाँ

  1. शब्दों का प्रभाव धन से कहाँ मापी जा सकती है, वह तो लम्हों में छिपी है।

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  2. shukriya praveenji aap hain to lagta hai ki blog prakashit bhi hua hai..haha

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