यह भारत की सदी है


बेहतरीन पत्रकार मग्नातीसी [magnatic ]शख्सियत शाहिद मिर्जा के व्याख्यान का पहला हिस्सा. शायद आप भी इसे अविकल पढ़ जाएँ...






"Power corrupts and absolute Power corrupts absolutely।"


तो जैसे राज्य एक अनिवार्य बुराई है। वैसे ही लोकतंत्र में भी बहुत सारी बुराइयां अन्तर्निहित हैं। वो एक पर एक फ्री वाला मामला है। आपको वो झेलना होगा। आपने लोकतंत्र को चुना है।लोकतंत्र के बारे में बहुत सटीक शेर allama iqbal ने कहा था की जम्हूरियत वह तर्जे-हुकूमत है कि जिसमे बन्दों को गिना करते हैं तौला nahin । कोई लठैत, कोई हत्यारा, कोई कातिल, कोई आंतककारी। और ये लोग जब जेलों में पहुंचने लग गए तो उन्होंने जेलों को भी जन्नत में तब्दील कर दिया। बेऊर जेल के बारे में बताते हैं कि वह तो बहुत ही सुसज्ज हो गई है। जब आदरणीय चार्ल्स शोभराज जी तिहाड़ जेल में अपना समय काट रहे थे, तो उनके लिए बहुत अच्छे प्रबंध वहां कर दिए गए थे। ये सब बिना राजनीतिक संरक्षण के नहीं हो सकता। ऐसा तो नहीं है कि कोई अकेले में अपराध किया जा रहा हो। कोई अपराधी है, तो कोई उसका आका है और राजनीति में अनिवार्य रूप से आका होते हैं। यह हम सब जानते हैं। लेकिन इसको शुद्ध करने का काम हमारा है। अल्लामियां फरिश्ते तो भेजेगा नहीं। यह महाभारत तो हमको ही लड़नी पडे़गी। कोई भगवान कृष्ण तो अब आएंगे नहीं और कहेंगे कि ये तेरे काका हैं, लेकिन चोर हैं। उन पर तू हथियार चला। तो हमें ही कृष्ण बनना है और हमें ही अर्जुन बनना है।महात्मा गांधी ने साधन शुचिता की बात कही थी कि यदि आपका साध्य पावन है तो उसे अर्जित करने के जो तरीके हैं, वो अपावन नहीं हो सकते। यदि वो गंदगी वाले हैं, मैले कुचैले हैं, तो मैला-कुचैला शासन मिलता रहेगा। मैंने एक नेता से पूछा था कि आप जो घोषणा पत्र जारी करते हो उस पर कभी अमल करते हो? तो वो बोला, आप मीडियावाले मानते नहीं हो इसलिए हम इसे बना लेते हैं। हम इसको छपने के पहले और बाद में कभी नहीं देखते। लेकिन आप लोग बहुत शोर मचाते हैं। क्या नीति है? क्या कार्यक्रम है? यह आपके लिए है। आप इसका विश्लेषण कीजिए। हमको तो वोट छापना है। इसलिए वहां का इंतजाम करना है कि प्राथमिक विद्यालय क्रमांक 56 में बूथ कैसे कब्जाया जाए। सवेरे-सवेरे वोटिंग कैसे कर ली जाए। वो ही तरीका है।लेकिन ऐसा भी नहीं है .1977 का जब चुनाव हुआ था। यदि हमेशा ऐसा ही होता रहता तो इंदिरा माता कभी जाती ही नहीं। वो तो आजीवन सत्ता में बनी रहती और तिरंगे में लिपटकर ही अल्लामियां के पास जाती। तो वो गयी। वो विदा हुई। वो रायबरेली से हार गईं। और ऐसे व्यक्ति से हार गईं जिनको कुछ लोग जोकर वगैरह भी कहते थे। आदरणीय राजनारायणजी को चुनकर लोगों ने उन्हें पछाड़ा। तो ये भारतीय लोकतंत्र की मजबूती भी मैं मानता हूं कि इंदिरा माता जैसी बड़ी बुलंद शख्सियत चुनाव हार गईं। मैं उन्हें अन्य मां-बहनों में बहुत सारे अंक देता हूं। सारी हिन्दुवादी पार्टियाँ पाकिस्तान को गाली बकती रहती हैं, लेकिन पाकिस्तान का बाजू तोड़ने का काम तो इंदिरा माता ने किया। 24 साल में बता दिया कि धर्म जोडे़गा नहीं, तोडे़गा और धर्म के आधार पर किसी देश का निर्माण नहीं हो सकता। द्वि-राष्ट्रवाद का सिद्धान्त सिरे से गलत है और बांग्लादेश भाषा के आधार पर अलग हुआ अर्थात इस्लाम नहीं जोडे़गा। बाद में कई कारण हुए। जब इराक ने कुवैत पर हमला किया। इरान-इराक लड़ पडे़। 1979 की क्रांति के बाद तत्काल 1980 में युद्ध हो गया। तो धर्म तो प्रायः नहीं ही जोडे़गा। वह एक निजी किस्म की चीज हो सकती है, अपने को पवित्र करने का कोई एक जरिया।लेकिन जब आप उसको झंडा बनाकर सड़क पर निकलेंगे तो दुर्गति वही होगी जो श्रद्धेय सद्दाम जी की हुई। लड़ पड़ेंगे , अलग हो जाएंगे। तो द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को तोड़ा-तो इंदिरा गांधी ने। सिक्किम में अमरिकी षड़यंत्र चल रहा था। जो श्रद्धेय चौटियाल जी थे वो किसी सीआईए की एजेंट महिला से शादी करवाने गए थे। और वह भी आजादी का ऐलान करवाने वाला था तो इंदिरा माता ने सिक्किम को कब्जा लिया। सवेरे होते ही पता चला कि सिक्किम भारत का नया राज्य बन गया है। अगर वो जीती रहती तो पता नहीं क्या होता? पता नहीं मालदीव नाम का देश बचता या नहीं बचता? मैं उनको प्रणाम करता हूं। कई मामलों में आलोचना करता हूं। प्रेस को मसल दिया था। अभिव्यçक्त की आजादी की पक्षधर नहीं थी। लेकिन एक व्यक्ति में काला सफेद सारा है। उनको कहीं पूरे-पूरे अंक देने पड़ेंगे । इंदिरा का सपना भारत को एक सबल राष्ट्र बनाने का सपना इंदिरा गांधी का था। भारत से प्रेम करने वाली स्त्री थी और वे चाहती थीं कि पचास फीसदी स्त्रियाँ संसद में हों। यदि वे पचास फीसदी पहुंच जाती तो बात अलग होती। अब तो ये 33 भी नहीं देना चाहते हैं, और वो समाजवादी पार्टी, राममनोहर जो स्त्रियों के महान पक्षधर थे उनके लोग अब कहते हैं कि ये पर कटी बाईयां हैं। फूलनदेवी तो पहुंची थीं। प्रायश्चित का भी स्थान है और फूलनेदवी की चम्बल के बीहड़ों में भी हत्या नहीं हुई जो कि सांसद बन गई। जो कि वे कायदे की बन गईं। प्रायश्चित कर रहीं थीं। जब कि वो अपने पापों पर परदा डालना चाहती थी, जब वे मुख्यधारा में लौट रही थीं, तब उनकी हत्या हो गई? ये गुण्डई है। जब एक महान गुण्डई और डकैत किस्म की स्त्री मुख्यधारा में आती है। कानून के प्रति जिम्मेदार बनना चाहती है। उसको आप दृश्य से ही साफ कर देते हैं। ये बहुत दुखद है। मैं प्रायः इस तरह द्रवित नहीं होता। लेकिन जिस तरह उनकी मृत्यु हुई, उससे मुझे बहुत अफसोस हुआ था, वो रहती तो शायद कुछ कॉन्ट्रीब्यूट करतीं। बहुत ही नीचे से आईं थीं। कुछ उनके पास राजनीति में करने को होगा। उन्होंने दर्द देखा था। हिन्दुओं में जो बहुत कुरूप सिलसिला है जाति का, जो नाइंसाफी है। बहुत सारे लोग उसमें ईसाई हो जाते हैं। जो थोड़ी सी ना इंसाफी है, उन्हें थोड़ी सी बराबरी दे दो। वो कभी छोड़कर नहीं जाएंगे। कोई जमील खां, जोजेफ क्यों नहीं बनते? जो जोधाराम ही जोजेफ क्यों बनते हैं?









विख्यात पत्रकार शाहिद मिर्जा ने यह वक्तव्य september 2006 में कोटा गवर्नमेंट कॉलेज के एक सेमीनार में भारतीय राजनीति की स्थिति विषय पर दिया था .

टिप्पणियाँ

  1. वर्षाजी ,
    नमस्कार.. आपके ब्लॉग पर शाहिद मिर्ज़ाजी का आलेख पढ़ा !!! यह हम पाठकों का दुर्भाग्य है कि इतने प्रतिभावान पत्रकार को असमय इस दुनिया से विदा होना पड़ा..

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  2. राज्‍य और लोकतंत्र की आवश्‍यक बुराइयों के साथ धर्म की आवश्‍यक बुराइयों को भी झेल रहे हैं।

    शाहिद जी का वक्‍तव्‍य लेख के रूप में देने के लिए आभार।

    आगामी लेख का इंतजार रहेगा।

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  3. मिर्ज़ा साहब की गहरी समझ का कोई उद्धरण देने की आवश्यकता ही नहीं, आप फिर से ये पुनीत कार्य कर रही हैं तो बहुत अच्छा लगता है. ऐसे ही लेखों से परिचित करवाते रहिये ये सब निरपेक्ष और कालजयी हैं.

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  4. shahid mirja ji ke vaktavya ko de kar aapne sarahniya kaarya kiya hai . sach me ab aapke blog ka anusaran karna hi padega , isi tarah ke lekohn ka intajaar rahega . :)

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  5. मुद्दा बिलकुल सही उठाया है…अगली क़िस्त का इंतज़ार रहेगा।
    धर्म को लेकर बिलकुल सही कहा उन्होंने कि यह अंततः तोडने वाली चीज़ है। इसकी बनावट/बुनावट ही ऐसी है कि यह निज़ी बनकर नहीं रह पाता। हिंदु धर्म की दिक्क़्त यह है कि अंबेडकर के शब्दों में यह ऐसी बहुमज़िली इमारत है जिसमें सीढी नहीं तो जो एक बार तथाकथित नीची जाति में पैदा हो गया वह उसीमें रहने को अभिशप्त तो एक ही रास्ता बचता है उसे छोडकर निकल जाने का। अब संघियों को उस पर भी एतराज़ है।

    लोहिया का महिलाओं के प्रति नहीं तमाम वंचित तबकों के प्रति दृष्टिकोण मेरी समझ में कभी नहीं आया।

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