भटेरी की भंवरी देवी


कैसी हैं वे सामूहिक बर्बरता के १७ साल बाद ? उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आया करता था परख। प्रस्तुत करते थे विनोद दुआ। उसी कार्यक्रम के जरिए इंदौर में रहते हुए राजस्थान के भटेरी गांव की भंवरी देवी की आवाज सुनी थी। आवाज क्या थी दर्द और आक्रोश में डूबा हाहाकार था। इंटरव्यू में भंवरी देवी ने स्वयं पर हुए अत्याचार को जुबां दी थी। वह एक-एक कर पांचों आरोपियों का नाम लेकर खुद पर हुए जुल्म का ब्यौरा दे रही थी। उनका सामूहिक बलात्कार हुआ था। देखने वालों के दिल में उनकी तकलीफ नश्तर की तरह धंसती जा रही थी। यकीन मानिए वह आवाज आज भी कौंधती है।
फिर एक सुबह बाखबर करने वालों का एक एसएमएस मिला कि शहर में आठ महिलाओं की चित्र प्रदर्शनी लग रही है। "द मेल " शीर्षक के इर्द-गिर्द ही चित्रों का ताना-बाना बुना गया है। बतौर अतिथि भंवरी देवी आमंत्रित हैं। न्याय की राह देखती सामूहिक बलात्कार की शिकार स्त्री से द मेल चित्र श्रखला का उद्घाटन। खैर, इस अवधारणा की दाद देने या आलोचना में पड़ने के बजाय बेहतर यह जानना होगा कि आज सत्रह साल बाद भंवरी देवी किस हाल में हैं? वह भंवरी देवी जो साथिन थीं , हैं और रहेंगी। सरकारी रीति-नीति को महिला और बच्चों के विकास में लागू कराने वाली साथिन।
1992 में जयपुर से ६० किमी दूर अपने गाँव भटेरी में भंवरी देवी ने ऊंची जाति में हो रहे एक बाल विवाह को रुकवाया था। निजी कारणों से नहीं बल्कि इसलिए कि वह सरकार की नुमाइंदी थीं और यही उनका फर्ज था। स्वयं उनका भी बाल विवाह हुआ है। बाल विवाह रुकवाना कथित ऊंची जाति वालों को बरदाश्त नहीं हुआ। भंवरी देवी का हुक्का-पानी बंद कर दिया गया और इस पर भी शांति न मिली तो पांच लोगों ने उसके पति के सामने उसका बलात्कार किया। 22 सितंबर 1992 के बाद से भंवरी देवी मन्ने न्याय चाहिए कि पुकार लगा रहीं हैं और तब से ही उनकी पुकार पर प्रहार का सिलसिला जारी है घटना के ५२ घंटे बाद तक उमका मेडिकल मुआयना नहीं किया गया.वे अपने पेटीकोट को ले लेकर भटकती रहीं. फिर कोर्ट ने तो यहाँ तक कह दिया कोई ऊंची जातवाला नीची जात से बलात्कार कैसे कर सकता है . उन पर दबाव बनाया गया कि मुकदमा वापस ले लें लेकिन उनका कहना था कि अगर ये मेरा मान लौटा सकते हैं तो मैं भी मुकदमा वापस ले लूंगी। यही बात उन्होंने गांव के बुर्जुगों से भी कही। इस बीच खूब राजनीतिक दावपेच खेले गए। सियासत बलात्कारियों की कवच बन गयी . भंवरी देवी के कई रिश्तेदारों ने भी उनसे मुंह मोड़ लिया। सिवाय उनके पति के। वे आज तक उनकी ताकत बने हुए हैं।
कालांतर में उन पर फिल्म भी बनी बवंडर जगमोहन मूंदड़ा निर्देशित फिल्म में भंवरी देवी कि भूमिका नंदिता दास ने अदा की है. फिल्म international फेस्टिवल्स में सराही गयी लेकिन भंवरी देवी का संघर्ष आज भी नहीं थमा है. वे ग्रामीण महिलाओं को भटेरी गाँव में लोन दिलवाती हैं लेकिन उन्हें कहा गया की हमारी तरफ से पैसा दिया जा चुका है अब उन्हें यह चिंता सताए जा रही है की १५ हज़ार रुपये कहाँ से आयेंगे?
अपमान और अभाव से गुजरी भंवरी देवी के लिए वह दिन यादगार हैं जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उन्हें दस हजार रुपए का बहादुरी अवार्ड दिया और मौजूद दर्शकों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया। सचमुच भंवरी देवी स्टेंडिंग ओवेशन के ही लायक हैं। जन्म (जात) लिंग, आर्थिक हालात कुछ भी उनके हक में नहीं था लेकिन हिम्मत हमेशा उनके बस में रही। यह बहादुर स्त्री आज भी उसी गांव में पति के साथ रहते हुए सरकारी योजनाओं का लाभ ग्रामीण महिलाओं तक पहुंचाने में लगी है। चुनौतियों का समंदर यथावत है। कष्ट पहले से ज्यादा हैं लेकिन तसल्ली है कि हौसला कहीं मात नहीं खाया है। मिटटी के बर्तन बनानेवाली भंवरी देवी बेहद सुगढ़ जान पड़ती हैं . कोई भारी भरकम डिग्री नहीं लेकिन विचरों की साफगोई सबको मात देती हुई . ya she is my heroine .हाँ वैसी ही कि में उनका औटोग्राफ ले लूं मुझे ख़ुशी है उनका धैर्य अब तक चूका नहीं है. उनके लब आज़ाद हैं . उनकी जुबां खामोश नहीं. भंवरी देवी को प्रणाम करते हुए.

टिप्पणियाँ

  1. आपका ये लेख सचमुच बेहतरीन हैं।

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  2. हम लोग तात्कालिकता के काईल हैं जिसे समृद्ध शब्दों में कहूं तो "मसाणिया बैराग" आज सत्रह साल बाद आप जैसा ही कोई लिखता है. जिस समय मशाल जली सब ने वाह वाह की और पुरूस्कार के लिए समर्थन जताया लेकिन ये सब ठण्ड भी इतना जल्दी पकड़ता है कि इस अपराध पर कोई उचित निर्णय आये उससे पहले हम भूल चुके होते हैं. बलात्कार पीड़िता पर फिल्म बनाने वाला संवेदनशील कहाया जाने वाला कुछ ही महीनों बाद सवयं उसी आरोप का उत्तर देने के लिए मुंह छिपा रहा हो.... शर्म शर्म. वर्षा जी बहुत मुश्किल है आदम का आदम होना.

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  3. ज़रूरी है ऐसे चरित्रों को बार बार याद किया जाना,उनकी बार बार याद दिलाया जाना.

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  4. स्त्री अधिकार संगठन के साथी भंवरी देवी से मिलने उनके गांव गये थे और लौटकर जो कुछ बताया वह उदास और क्रुद्ध कर देने के लिए काफ़ी था।

    यह प्रकरण बताता है कि आज भी हमारा समाज किस कदर स्त्री विरोधी और दलित विरोधी बना हुआ है।

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  5. जिस समाज मे क्रांति के बड़े-बड़े हथियारों को वक्त और विस्मृति का दीमक चाट जाता हो..वहाँ उम्मीद के लौ के साथ १७ साल चलते रहना..बिना थके..क्या कहूँ
    लोकतंत्र के चार खम्भे कहे जाते है..मगर मैं कहूँगा कि लोकतंत्र की छत ऐसे जीवट लोग ही हैं..जो इतनी विपरीत स्थितियों मे भी व्यवस्था मे आस्था रखते हुए अपने कर्म मे रत हैं..बिना टी आर पी की फ़िकर किये..
    बधाई आप को भी दूँगा वर्षा जी..मीडिया के नक्कारखाने मे इन धुँधली आवाजों को भी बाकी सब तक पहुचाने के लिये...

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  6. धुँधली आवाजों को सब तक पहुँचाती रहिये

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