जोधाराम ही जोजेफ क्यों बनते हैं?


ख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा के व्याख्यान का दूसरा हिस्सा
कोई जमील खां, जोजेफ क्यों नहीं बनते? जोधाराम ही जोजेफ क्यों बनते हैं? दंगे से वो भी परेशान हैं। बेरोजगार वो भी हैं। अदक्ष तो वो भी हैं। जैसे जोधाराम हैं वैसे जमील खां हैं। तो इस पर विचार करना चाहिए। मैं हिन्दू नेताओं से कहता हूं। खासतौर पर विश्व हिन्दू परिषद के सभी लोगों से मिलने-जुलने का मौका मिल जाता है। जाति प्रणाली का जिक्र इसलिए किया कि वो अपना उम्मीदवार बनाते हैं। तब यह ध्यान रखते हैं कि अच्छा वो गांव है, यादवों का है। किसी यादव को टिकट दे दो। कोई यादव गाजियाबाद से क्यों नहीं? यादव है तो क्या दिक्कत है। उसे वहां से चुनाव लड़ने दो। मतलब आदमी को भी जाति का टूल बना लिया है और यह बहुत विभाजन करेगा। वोट बैंक पॉलिटिक्स भी इसीलिए हो रही है। तथाकथित तुष्टीकरण की पॉलिटिक्स भी इसी कारण हो रही है। जयपुर विश्वविद्यालय से आई थीं प्रोफेसर। मैंने उनसे कहा कि तुष्टीकरण से मुसलमान का रत्तीभर भी फायदा नहीं होगा। मुसलमान को दो बीघा जमीन नहीं मिली। उनको उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण नहीं मिला। जॉब का वादा नहीं मिला। जीवन जीने की सुरक्षा और दंगे के खिलाफ कभी सुरक्षा का वादा नहीं मिला। तो तुष्टीकरण क्या है? यह फसाद है, एक छल है, छद्म है। आपने रख लिया और आप भूल गए। मैंने कहा जिम्मेदारी से बोलिए। अब मैं मूल विषय पर आता हूं। नई दिल्ली से आई डॉ. सुषमा यादव ने कल सुबह कहा था कि राजनीति में सभी को आने दो। गुलदस्तां बनने दीजिए। हमें आपत्ति होनी चाहिए कि कोई जुआरी, चोर, लबार,लम्पट,गुण्डा, डकैत, हत्यारा संसद में नहीं पहुंचे और प्रायश्चित करे तो फूलनदेवी भी पहुंच जाए। कोई दिक्कत नहीं है। सुधरने का अवसर मिलना चाहिए। अंग्रेजी में तो कहावत है कि एवरी सैंट हैज पास्ट एंड एवरी सिनर हैज अ फ़्यूचर। अपराधी का भविष्य है। संत का अतीत है। अतीत को वो दबाकर रखना चाहता है। पता नहीं क्या था? वो बताना नहीं चाहता। संत बन गए तो उनकी पूजा होती रहती है। लेकिन अपराधी के सामने तो भविष्य है। जब वह अपने पाप से तौबा कर लेगा, तो उसको एक अच्छा आदमी बने की मुख्यधारा में आने की, जनप्रतिनिधि बनने की आजादी होनी चाहिए। लेकिन, जो भूमाफिया है, कातिल है। वो संसद या विधानसभा का सदस्य तो क्या ,पार्षद नहीं बनना चाहिए। ग्राम पंचायत में हम लठैतियों को ही क्यों चुनते हैं? यह किसकी जिम्मेदारी है। कैसे लोग आएं? हमारे सांसद का आचरण कैसा हो? संसद अच्छा गुलदस्ता कैसे बने? यहां कोई पैगंबर नहीं आने वाला है। यह तो हमें ही देखना पडे़गा। हम अपने वोट का इस्तेमाल कैसे करें? 1977 में इंदिरा जी को अपदस्थ करने के लिए जयप्रकाश नारायण जी आए। मैं भी उसमें था, यूथ फोर डेमोक्रेसी के लोग थे। छात्र संघर्ष युवावाहिनी के लोग थे, हमने बूथ पर जाते लोगों को देखा कि लोग रात को ही वोट नहीं छाप लें। हम मतपेटियों की हिफाजत करते थे, तो यदि हम एक चौकन्ना लोकतंत्र है। चौकन्ना मतदाता है तो हमारी राजनीतिक पार्टियाँ भी चौकन्नी बनेंगी। राजनीतिक पार्टियाँ के घोष्णा-पत्र केवल अखबार वालों को दिखाने के लिए नहीं छापे जाएंगे। हमें उन्हें जिम्मेदार बनाना होगा। आखिरकार हमने यह शैली चुनी तो फिर इकबाल की उस पंक्ति की तरह नहीं हो सकते कि जम्हूरियत तर्ज़ ए हुकूमत में बंदों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते।´
ठीक है। संख्याबल का महत्व है। बहुमत व्यवस्था का कोई अर्थ होगा कि 100 में से 51 आपके हैं तो आप जीते तो इस पर सवाल हो सकता है। लेकिन जब शैली यह हमने चुन ली, तो इसको दायित्ववान बनाना, इसको जवाबदेह बनाना, ये सभी हमारे काम होने चाहिए। इसे कोई दूसरा थोड़े ही करेगा। तो सभी को आने दीजिए। कलाकार को आने दीजिए। पत्रकार को आने दीजिए। अभिनेता को आने दीजिए। लता मंगेशकर को बुला लिया। और वे संसद में एक दिन नहीं आईं। युसूफ भाई दिलीप कुमार भी शायद एक ही दिन आए हैं। कभी बोले नहीं। विनोद खन्ना आए। शत्रुघ्न सिन्हा आए। ये खूब बोले। राजेश खन्ना चुनकर आए। नरगिस दत्त कुछ बोलती थी, लेकिन एक सुन्दर चेहरा था। 12-13 चेहरों में नामांकन राष्ट्रपति कर सकता है। लेकिन उसमें अलग अलग चेहरे नहीं होते। उसमें स्वास्थ्य के लोग होते ही नहीं, फौज में से लोग नहीं आते। शंकरराय चौधरी राज्यसभा में चले गए। लेकिन निर्वाचन से आए। उन्हें उन 12-13 लोगों में नहीं रखा। 237 की जो हमारी राज्यसभा है उसकी संख्या बढ़ानी चाहिए। अच्छा कोई प्रशासक है। किसी ने कोई बहुत अच्छा काम किया है। तो उसको संसद में लेकर आइये। उसके अनुभवों का लाभ लेने में क्या दिक्कत है?
परगट सिंह अच्छा खिलाड़ी था या सुनील गावस्कर अच्छा क्रिकेटर था तो वे संसद में आकर खेल नीति बनावें और तभी उसका योगदान है। हमारे यहां खेलमंत्री ऐसे आदमी को बनाते हैं, जिसने जीवन में कभी खेल ही नहीं खेला हो। भ्रष्टाचार का खेल किया इसके अलावा उसे दूसरा खेल आता ही नहीं है। और हम उसे खेल मंत्री बना दें। फिर कहते हैं कि हमारा तो मैडल जीतने वालों में नाम ही नहीं हैं। और वह नेता तो टीम के राइट्स को लेकर भी पैसे खा जाता है। तो यह हमें देखना है।

टिप्पणियाँ

  1. "अंग्रेजी में तो कहावत है कि एवरी सैंट हैज पास्ट एंड एवरी सिनर हैज अ फ़्यूचर। " भई, हमारे यहां तो यह कहावत है - कुत्ते की दुम टेढी़ की टेढ़ी और हम देख रहे हैं इस सच्चाई को संसद के माध्यम से:)

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  2. विचार बहुत स्पष्ट हैं. आगे क्या कहा यह जानने की उत्सुकता रहेगी. बांटने का आभार!

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  3. जम्हूरियत तर्ज़ ए हुकूमत में बंदों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते!

    वोटिंग का कम होता प्रतिशत इस गणना को भी प्रभावित करता है। बीकानेर की एक तहसील में 24 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। तीन प्रत्‍याशियों में वोट बंटे। अगर जीतने वाले प्रत्‍याशी को सर्वाधिक वोट भी दिए जाएं तो यह 12 प्रतिशत से अधिक नहीं होंगे। यानि तहसील के 12 प्रतिशत लोगों ने यह तय किया कि कौन शासन करेगा। यह तो अति है लेकिन जब 50 प्रतिशत लोग वोट करें और वे भी कई पार्टियों में बंट जाएं तो पता चलता है कि शासन करने वाले लोग महज 25 प्रतिशत वोटों या जनता के समर्थन के साथ शेष 75 प्रतिशत लोगों का भी भविष्‍य तय कर रहे हैं।
    एक बार कहीं पढ़ा था कि दुनिया के बीस प्रतिशत लोग शेष 80 प्रतिशत लोगों का भविष्‍य तय करते हैं। लोकतंत्र में तो यह अधिक शिद्दत से महसूस होने लगा है। अंतर केवल 5 प्रतिशत का रहा है। वोट का प्रतिशत गिरता रहा तो ऐसा भी दिन आएगा जब 5 या 10 प्रतिशत लोग बाकी आबादी का भविष्‍य तय किया करेंगे। तब संख्‍या नहीं वजन ही भारी पड़ेगा।

    अच्‍छा लेख। सोचने पर मजबूर करता है।

    आपका बहुत बहुत आभार वर्षा जी जो आपने इन लेखों को नियमित कर दिया। कुछ समझने और सोचने का भोजन नियमित मिल सकेगा।

    उम्‍मीद है यह यात्रा जारी रहेगी।

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  4. bahut badhiya lekh. aapka blog me naye lekh ka intajaarr ragta hai . likhti rahiye :)

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  5. लेख थोडा और विस्तार की मांग करता है।
    लोकतंत्र उपलब्ध विकल्पों के बीच चुनाव की बात करता है। लेकिन अगर व्यव्स्था ही पूरी तरह भ्रष्ट हो जाये तो नये विकल्प तलाशने की ज़रूरत पडती है।

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