कोई भी कहानी ऐसे अंत के लिए नहीं बनी
हरेक भारतीय उदास है,हर दिल रो रहा है। जैसे-जैसे देश के हिस्सों में ये दुःख के ताबूत पहुंचे हैं वैसे वैसे ही लोगों के दिल चीत्कार कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे समय पीछे लौट जाए और सबकुछ वैसा ही सुहावना हो जाए पहलगाम की ठंडी वादियों की तरह। पत्नी के विलाप का यह दृश्य हृदय तोड़ने वाला है और इस दर्द को जैसे पांच सौ साल पहले कश्मीरी शायरा हब्बा ख़ातून (जूनी )लिख गईं थी। विरह में डूबी जूनी ने लिखा था -
बल खाती बहती नदियों के मुहाने तक जाउंगी मै
तुम्हें ढूंढ़ते हुए
विनती-अरदास करती यहां-वहां डोलुंगी मैं
तुम्हें ढूंढ़ते हुए/ ढूंढूंगी मैं तुम्हें चमेली की कुंजों में,
मत कहो, दुबारा अब मिलना नहीं होगा।
पीले गुलाब के झाड़ों पर फूल मुस्कुरा रहे
मेरी भी कलियां फूल बनने को कसमसा रहीं,
दरसन की प्यासी इन अंखियों कोऔर न तरसा
मत कहो, दुबारा अब मिलना नहीं होगा।
ओह ऐसा दर्द एक विरहिणी ही लिख सकती है। अब जब यह लहू जमा देने वाली, आतंकी हरकत हो चुकी है,इतना दर्द देश भर में भेजा जा चुका है तब क्या देशवासी ये उम्मीद कर सकते हैं कि कोई कोशिश इसके जवाब में होगी कि अब सुख,शांति और खुशियों के टोकरे भर-भर के उनके पास भेजे जाएं। अगर जो दुश्मन ने आतंकवादी भेजे हैं तो क्या कोई मसीहा हमारे लिए सुकून लाएगा ?एक नागरिक होने के नाते क्या ऐसी उम्मीद के कोई मायने नहीं हैं ? क्या ऐसे हर दुःख के बाद चुनावी भाषण ही हमें तोहफे में मिलेंगे? लोकतंत्र का उत्सव कहलाने वाले ये चुनाव अब डराने लगे हैं। सीमा पर तनाव और चुनाव के बीच रिश्तों की तकलीफ़ भी सालों पहले राहत इंदौरी जैसे शायर अपने शेरों में कह गए हैं।
जयपुर के युवक नीरज उधवानी की पार्थिव देह ताबूत के भीतर आई तो अंतिम संस्कार के वक़्त हर कोई फफक पड़ा। राजस्थान के मुख्यमंत्री भी आए। नेताओं के पहुंचने से पहले सैकड़ों जवान वहां तैनात कर दिए गए थे। केंद्रीय मंत्री भी आए, तभी एक परिजन उनके सामने दुःख से फट पड़ी -ये आपकी सरकार का फेलियर है ,अब यहां सिक्योरिटी लगाने से क्या होगा ?" यह सुनकर मंत्री जी ख़ामोशी से महिला को नमन कर चले गए। इस तकलीफ़ का कोई अंत नहीं। सिंधु का जल रोक दिया जाए कि कलाकारों की फिल्म रोक दी जाए कि पाकिस्तानी नागरिकों को देश छोड़ने के लिए कह दिया जाए।क्या इससे परिजनों के दुःख पर मरहम लगेग? पाकिस्तान ने भी भारतीय जहाजों के अपने ऊपर से उड़ने पर रोक लगा दी है ,भारतीय नागरिकों को लौट जाने के लिए कहा है। शिमला समझौता तक निलंबित किया है । क्या पाकिस्तान दोनों देशों की सीमारेखाओं का सम्मान नहीं करेगा और कश्मीर समस्या के हल के लिए तीसरे पक्ष को लाएगा ? क्या मज़ाक है ये और ये सब सुनी -सुनी गीदड़ भपकियों सा क्यों लग रहा है।
आतंकियों ने धर्म पूछा फिर मारा यह बात हरेक के दिल में घर कर गई है। यह भयावह है और देश को बांटने की गंभीर साज़िश। आतंकवादियों की इंसानियत मरी हुई होती है लेकिन जो इसे आधार बना कर बहस कर रहे हैं उनकी इंसानियत कहां दफ़न हो गई है? उनकि नेकदिली के चौले क्यों उतर रहे हैं? वे भूल रहे हैं कि मरने वालों में अनंतनाग के सय्यद हुसैन शाह भी हैं वे सैलानियों को बचाने में आतंकियों से भिड़ गए और मार दिए गए ? लेखक आशुतोष कुमार लिखते हैं कि अगर आप इतना ही याद रखेंगे और यह भूल जाएंगे कि हमले के दौरान और उसके ठीक बाद घायलों को अपने कंधों पर या घोड़ों पर अस्पताल पहुंचाने वालों ने न धर्म पूछा न जाति तो आप आतंकवादियों की ही मदद कर रहे हैं। अस्पतालों में डाक्टरों और नर्सों ने बहुत कम सुविधाओं के साथ अपनी भूख, प्यास और नींद सब भूल कर घायलों का इलाज किया, जिससे मृतक संख्या को नियंत्रित किया जा सका। अगर आप इसे भूल जाएंगे तो आतंकवादियों की ही मदद कर रहे होंगे।बहुत देर तक कोई सरकारी सहायता नहीं पहुंच पाई थी, कोई वाहन नहीं थे, तब स्थानीय लोग घरों से बाहर निकले और अपनी जान की बाजी लगाकर उन लोगों को रेस्क्यू किया जो हमले की ज़द में थे। सारा का सारा जम्मू कश्मीर इस जघन्य हत्याकांड के विरोध में उठ खड़ा हुआ है। बिना किसी भय और हिचक के उन्हें संदेश दिया कि कश्मीर का बच्चा-बच्चा उनके खिलाफ़ तन कर खड़ा है। अगर आप यह भूल जाएंगे और केवल हिंदू मुस्लिम नफरती पोस्टर बनाने वालों को याद रखेंगे तो आप आतंकवादियों की ही मदद कर रहे हैं।
पोस्टर की बात करें तो छत्तीसगढ़ भारतीय जनता पार्टी का ही एक पोस्टर सोशल मीडिया में खूब प्रचार पा रहा है। पोस्टर में पत्नी का पति के शव के साथ स्केच है और उस पर लिखा है - 'धर्म पूछा जाति नहीं.... याद रखेंगे।' इसे क्या कहा जाए भीषण दुःख और अपरिहार्य परिस्थिति में भी दलों से सियासत क्यों नहीं भूली जाती। किसी को भी यह समझने में क्यों भूल करनी चाहिए कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। वे अपने हिंसक आक़ाओं की हसरतों के मोहरे भर होते हैं। अगर जो होता तो श्रीलंका में लिट्टे यानई लिबरेशन टायगर्स ऑफ़ तमिल ईलम नहीं होता जिसने भारत के एक युवा प्रधानमंत्री की जान ली थी। धर्म देखकर फ्रिज खोलकर मीट चेक करने के बाद हत्या को अंजाम तो कुछ और भी लोगों ने दिया है। बेहतर है कि पहलगाम में 27 निर्दोषों की हत्या को इस तंग नैरेटिव के बीच न सीमित कर दिया जाए। सरकार को इस घटना से ऐसा सबक लेना चाहिए कि कश्मीर में फिर कभी ऐसी विभीषिका ना हो । सरकार ने ही संसद में बहुत अच्छी बात कहकर लोगों को यकीन दिलाया था कि कश्मीर में सब कुछ सामान्य है। गृहमंत्री ने कहा था कि मोदीजी के नेतृत्व में यह सरकार चुप बैठने वाली नहीं है, घर में घुसकर मारती है। इसी यकीन के दम पर सैलानी कश्मीर जाने लगे। 2023 में दो करोड़ दस लाख से ज़्यादा सैलानी यहां आए जो साल 2020 में 35 लाख से भी कम थे। अभी तो सीजन शुरू ही हुआ था और अगले तीन महीनों तक यह सिलसिला जारी रहना था लेकिन पहलगाम की घटना ने कश्मीर को फिर पीछे पंहुचा दिया है ।
इसी यकीन के भरोसे सपरिवार पिछले बरस आठ दिन कश्मीर में और दो दिन पहलगाम में बिताए थे। सब ख़ुश थे घोड़े वाले, टैक्सी वाले, होटल वाले, कॉफ़ी शॉप वाले कि घाटी में बहार आई है और सैलानी लगातार आ रहे हैं।ऑटो और शिकारा चलाने वाले भी बेहद ख़ुश थे कि इस बार टूरिस्ट की संख्या ने उनके घर,दुकान,गाड़ियों के लोन अदा करवा दिए। श्रीनगर में जहां कदम- कदम पर फौजी नंगी स्टैनगनों के साथ मुस्तैद नज़र आए थे ,वैसा पहलगाम में नहीं दिखा था। पहलगाम यानी चरवाहों का गांव और वाकई लिद्दर नदी के हमराह यहां सिर्फ घोड़े ही घोड़े नज़र आते हैं। ऊपर के गांवों से नीचे आते हुए घोड़े और फिर इन्हीं रास्तों से लौटते हुए घोड़े, मानों पहाड़ के साथ सड़कों पर भी इन्हीं का राज हो। वहां के गुर्जर चरवाहों की यही रोज़ी है। सर्दियों में वे अपने बनाए गर्म कपड़ों को लेकर भारत के मैदानों में आ जाते हैं। टूरिस्ट पहलगाम से ही टैक्सी लेकर आस-पास के स्थानों पर दिन भर में घूमकर पहलगाम लौट आते हैं। बाहर की गाड़ी ले जाने की आज्ञा नहीं है। आरु वैली ,बेताब वैली ,चन्दन बाड़ी (जो अमरनाथ यात्रा का बेस पॉइंट है ) बैसरन घाटी जैसे कई पिकनिक स्पॉट्स तक सैलानी जाते हैं लेकिन मंगलवार को आतंक ने हाहाकार मचा दिया।
इस हमले के ख़िलाफ़ कश्मीर के अख़बारों ने काली जगह छोड़कर विरोध जताया है। जम्मू से श्रीनगर तक यही भावना है जैसे अभी चुप रहेंगे तो आगे और बड़े गुनाहों के भागी होंगे । वह गुहार लगा रही है बंद करो, बंद करो यह ख़ूनी हिंसा बंद करो। वह शर्मिंदा भी है कि अपने मेहमानों को नहीं बचा सकी । वे लगातार बोल रहे हैं, लिख रहे हैं कि हम शर्मिंदा हैं और इस कुकृत्य पर हमारा सर शर्म से झुका हुआ है। कश्मीर के लोग लिख रहे हैं कि कोई भी कहानी ऐसे अंत के लिए नहीं बनी है ये तस्वीर हमेशा हमेशा के लिए कश्मीर को दर्द देती रहेगी । कश्मीर टाइम्स ने एक स्टोरी में बताया है कि पहलगाम की किशोरी रुबीना जो वहां पर्यटकों को ख़रगोश बेचती है, उसने हमले के समय अपने छोटे से घर को सुरक्षित आवास में बदल दिया। वह और उसकी बहन मुमताज़ तीन बार पार्क गए और घायलों को सुरक्षित नीचे अपने घर लाए। जो रूबीना को भूलेंगे तो फिर हम आतंक से कैसे मुकाबला करेंगे। रुबीना और सैय्यद जैसे लोग अंधेरे में किरण नहीं सूरज हैं।
Very effective narrative...congrats.
जवाब देंहटाएं🙏
हटाएंइंसानियत ही हमें इस दर्द, समस्या से उबारेगी । दिल से नहीं दिमाग से काम लेने की जरूरत है इस समय।
जवाब देंहटाएंसही कहा सुनील जी
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