जी राम जी के भरोसे छोड़े सब राज काज


कभी कभी लगता है कि हमारी सरकार, सरकार ना होकर कोई बाबा या बहुरूपिया हो जो समय -समय पर रूप बदल-बदल कर जनता को प्रभावित करने के लिए आ जाती है। फिर चाहे इस कोशिश में उसे पुराने और प्रभावी जंतरों को ही क्यों न बदलना पड़े। इस पहल में कभी वह योजनाओं का नाम बदलकर राम-राम जपने लगती है तो कभी सीधे भारतवासियों को ऐसा ध्वजारोहण दिखाती है कि नागरिक अपनी सुध-बुध भूल भवसागर में गोते लगाने लगता है। उसे लगता है कि क्या सोच है,क्या मास्टर स्ट्रोक है,मुझे तो कोई समस्या ही नहीं है। इस बीच नए नाम के साथ पुरानी योजनाओं के बिल पास हो जाते हैं, बिना  इस फर्क को बताए कि जो पहले था वह काम पाने का सुनिश्चित अधिकार था और जो अब है वह बिना फंड के है और सीमित है। जिसके पास काम नहीं, केंद्र उसकी ज़िम्मेदारी लेता था। अब जो हुआ है उसमें यह है कि हे राज्यो, तुम्हारा फण्ड तुम लाओ, हम केवल निगरानी करेंगे। 

क्या देश इसलिए केंद्र की सरकार चुनता है कि कर्तव्य राज्यों के बढ़ते जाएं और नियंत्रण केंद्र का। यह संविधान की संघीय भावना का भी उल्लंघन है। संभव है कि कोई योजना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ी हो तब इसके लिए  लागू करने के पैमानों पर काम करना होगा न कि  योजना के मूल उद्देश्य को ही बदल देना। मनरेगा के साथ यही हुआ है। नाम-धाम बदल दिया गया है, जैसे कोई कंपनी पुराने उत्पाद को नई पैकेजिंग में सामने ले आई हो, वह भी उसकी गुणवत्ता के साथ समझौता कर। तभी तो एक बेहद जुझारू और सक्रिय  सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय लिखती हैं  कि यहां इस  बिल को बदलाव के साथ पेश नहीं होना था बल्कि एक दूसरा  बिल लाया जाना चाहिए था क्योंकि दोनों के मकसद अलग-अलग  हैं। मनरेगा काम के लिए पूछती है जबकि जी राम जी इसे कम करती है। दोनों का उद्देश्य और दायरा अलग है। 


गुरुवार को 'विकसित भारत जी राम जी' विधेयक सरकार ने लोकसभा में पारित कर दिया। सरकार का दावा है कि विकसित भारत-रोजगार और आजीविका मिशन (ग्रामीण) विधेयक, 2025, जिसे विकसित भारत- जी राम जी  विधेयक, 2025 कहा है, मनरेगा में व्यापक वैधानिक बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है, जो ग्रामीण रोजगार को विकसित भारत 2047 के लंबे  विजन के साथ देखता  है और जवाबदेही, बुनियादी ढांचे के परिणामों और आय सुरक्षा को सुदृढ़ करता है। फ़िलहाल मान लेते हैं और इसमें लाए बदलाव को समझते हैं।  योजना का नाम बदल दिया गया है, पहले 90 फ़ीसदी धन केंद्र देता था जिसे अब 40 फीसदी देगा और शेष 60 प्रतिशत राज्य देंगे। न्यूनतम  काम के दिन 100 के बजाय अब 125 दिन की गारंटी देते हैं  जो बेहतर है लेकिन रेकॉर्ड बताते हैं कि सौ दिन का काम कभी नहीं मिल पाता, यह बमुश्किल 50 से 52 दिन होता है। यह योजना थी जो राज्यों के बड़े काम अपने कामगारों से कराने के लिए थी ताकि पलायन रुके और रोज़गार मिले। 

एक बड़ा बदलाव यह है कि जिन दिनों देश में कृषि कार्य के लिए मज़दूरों की ज़्यादा दरकार होगी, उस समय यह योजना लागू नहीं रहेगी। ऐसी मांग पहले भी साल 2011 में कृषि मंत्री शरद पवार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर की थी, जिसका ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने यह कहकर विरोध किया था कि ऐसा कोई अध्ययन सामने नहीं आया है कि मनरेगा की वहज से मज़दूरों की कमी सामने आई है बल्कि इससे तो मज़दूर मेहनताना बढ़ाने के लिए अच्छा भाव-ताव कर सकते हैं ।अब इस सरकार ने नए बिल में उन साठ दिनों में योजना को स्थगित करने का प्रावधान कर दिया है यह मानते हुए कि देश में काम ज़्यादा है और कामगार कम। पुरानी योजना में महिलाओं की संख्या ने कृषि कार्यबल में जबरदस्त वृद्धि दर्शाई थी और कोरोना महामारी के संकट के समय भी मनरेगा ने ही ग्रामीण भारत की कमर तोड़ने से बचाई थी। सरकार ने तब  बजट में 40 हज़ार करोड़ की बढ़ोतरी की थी। मनरेगा जनता का कानून था जिसका नारा था 'हर हाथ को काम दो, काम का पूरा दाम दो। ' 

 राजग के राज्यसभा सांसद मनोज झा नए बिल के लिए कहते हैं  कि मनरेगा केवल एक सरकारी योजना नहीं है, बल्कि यह भारत गणराज्य की ओर से अपने सबसे गरीब नागरिकों से किया गया नैतिक वादा है। यह संविधान की ओर से दी गई गरिमा,आजीविका और सामाजिक न्याय की गारंटी को दर्शाता है। सांसद ने महात्मा गांधी के जंतर का जिक्र करते हुए कहा कि गांधी हमें यह याद दिलाते थे कि फ़ैसला लेने से पहले हम उस सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति का चेहरा याद करें और खुद से पूछें कि क्या वह उस व्यक्ति के किसी काम आएगा ? वे कहते हैं 125 दिन के काम की गारंटी ज़रूर है लेकिन बमुश्किल 50 से 55 दिन का काम ग्रामीणों को मिल पा रहा है। 40 फीसदी का दारोमदार राज्यों पर बोझ बढ़ाएगा और कम सक्षम राज्यों को अलग-थलग करेगा। 

   ग्रामीण भारत को निश्चित रोज़गार की गारंटी देने वाली इस योजना से महात्मा गांधी के नाम को हटा दिया गया है। उन बापू का नाम जो  ख़ुद नाथूराम गोड़से की गोलियों के बाद 'हे राम' कहते हुए बैकुंठवासी हुए थे। शहादत की राह पर अंतिम नाम उन्होंने भगवान राम का ही लिया था। सरकार पर चुटकी लेते हुए आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने संसद में कहा कि आप को पाप लगेगा क्योंकि आपने भगवान को उसके भक्त से अलग किया है और आपने ग़रीब के  पेट और पीठ दोनों में छुरा घोंपा है।  बेशक़ समय-समय पर योजनाओं के बजट और प्रारूप में बदलाव होता है लेकिन राज्यों पर पड़े भार का विरोध एनडीए की महत्वपूर्ण सहयोगी तेलगुदेशम पार्टी समेत कुछ भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों ने भी किया है सच्चाई तो यह भी  है कि केंद्र पर अब अभी कई राज्यों का भुगतान बक़ाया है। तृणमूल कांग्रेस जो बिल के विरोध में बोरिया बिस्तर लेकर संसद के सामने बैठ गई है उस पार्टी की महुआ मोइत्रा ने चर्चा में याद दिलाया कि बिल में 92 बार गारंटी शब्द कहा गया है लेकिन हक़ीक़त यह है कि सरकार ने अपना बजट और कार्यक्षेत्र दोनों ही तय कर दिए हैं तो गारंटी कैसे हुई ? 

केंद्र ने अपनी भूमिका ज़रूर रखी है लेकिन वह उस दरोगा की लगती है जो विवाद या किसी वारदात के बाद ही घटनास्थल पर पहुंचेगा। बीस साल पहले लागू हुई मनरेगा में देश के 12 करोड़ मज़दूर पंजीकृत हैं। 27 फरवरी 2015 को लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के लिए कहा था -"मनरेगा आपकी विफलताओं का जीता–जागता स्मारक है।" अब सफलता का प्रतीक बनने के लिए यह योजना सज-धज कर नए और हिंगलिश कपड़े पहन कर जनता के बीच आ गई है।  यूं भारतीय जनता पार्टी की ख़ूबी है कि वह नाम खूब बदलती है लेकिन इतना जटिल नाम जिसने भी सुझाया है वह या तो वह जल्दबाज़ी कर गया या विकसित भारत ,रोज़गार की गारंटीऔर ग्रामीण परिवेश साथ लाने में चकरघिन्नी हो गया। कोंग्रेसियों ने तो संसद में आरोप लगाया है कि सरकार ने अब तक हमारी 23 योजनाओं के नाम बदले हैं। कोरोना महामारी के समय मनरेगा ही थी जिसने सरकार की लाज रखी थी। उस साल मनरेगा के बजट में 40 हज़ार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की गई थी । इसके बाद बजट में लगातार कटौती की जाती रही जबकि महंगाई के हिसाब से ही इसे औसतन पांच फीसदी बढ़ना चाहिए था। योजना उस ग्रामीण भारत के सबसे कमज़ोर इकाई तक पहुंचनी चाहिए थी  जिसके पास कोई काम नहीं है। गुलज़ार का मशहूर गीत है -नाम गुम जाएगा . . चेहरा ये बदल जाएगा . .मेरी आवाज़ ही पहचान है . .गर याद रहे। सब कुछ कर लीजिये लेकिन उस अंतिम व्यक्ति को अपनी योजनाओं में हमेशा शामिल रखिये। उसे दौलतमंदों के सस्ते श्रम की अबूझ प्यास का शिकार मत होने दीजिये। 




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