नोटबंदी, देशबंदी के बाद अब वोटबंदी
नोटबंदी, देशबंदी के बाद अब वोटबंदी का दौर है। सरकार के इन फ़ैसलों को लाभ-हानि के तराज़ू में तौलने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी और गंभीर पक्ष है आम आदमी की जान जाने का क्रम। नवंबर 2016 में यकायक लागू हुई नोटेबंदी ने पूरे देश को कतार में लगा दिया था । परिवारों के इलाज, ब्याह-शादी के कार्यक्रम अस्त-व्यस्त हुए। सैकड़ों लोग इस अभाव और तनाव में अपनी जान खो बैठे। मार्च 2020 की एक रात देश की गति को अचानक रोक दिया गया। लॉकडाउन घोषित हो गया, जो जहां था वहीं, थम गया। जिसके पास थमने के लिए जगह नहीं थी, वह पैदल ही अपने घर के लिए निकल पड़ा।अव्यवस्था के अस्पतालों में मरीज़ दम तोड़ रहे थे तो सड़कों पर जनता। अब वोटबंदी लागू हुई है कि जल्द से जल्द जनता 2002 की मतदाता सूची के हिसाब से अपने मतदाता होने का सबूत सरकार को दे वर्ना नाम कट जाएगा। सरकार को अपने ही तंत्र से बनी वोटर आईडी पर शक हो गया है इसलिए देश के बारह राज्य अब इसी काम में लगे हुए हैं। इस काम को पूरा करने के लिए सबसे छोटी इकाई बीएलओ है जिन पर काम का ऐसा दबाव है कि वे आत्महत्या कर रहे हैं और जो नागरिक यह साबित नहीं कर पा रहे हैं, वे भी ख़ुद को हीन समझ कर तनाव और मौत को गले लगा रहे हैं।
उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद के स्कूल टीचर सर्वेश सिंह (46) का आँसुओं से भरा चेहरा देखने वाले को द्रवित कर देता है जिसमें आत्महत्या से पहले वे अपनी बेटियों और माँ से क्षमा मांग रहे हैं कि क्यों वे ऐसा करने के लिए मजबूर हुए। वे लगातार काम करते हुए भी दिए गए टास्क को पूरा नहीं कर पा रहे हैं और 20 दिन से सोए नहीं हैं। सवाल सबसे बड़ा यही है कि अगर जो मक़सद बेहतर व्यवस्था को लागू करना भी है तो यह रास्ता लोगों की ज़िन्दगियों से होकर क्यों जाता है? अफ़सोस कि व्यवस्था शायद अब भी रजवाड़ों के उसी क्रूर दौर में जी रही है जहां माना जाता था कि लोगों की बलि ही उसकी नींव को द्रढ़ बना सकती है। किसान आंदोलन और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शन को भी शामिल किया जाए, तब तो यह क्रोनोलॉजी और भयावह मालूम होती है। इधर विरोध के बाद ज़रूर बीएलओ का कुछ मानदेय बढ़ा है और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से थोड़ी राहत मिली जब कहा गया कि राज्य सरकारों काम का दबाव कम करने के लिए कर्मचारियों की संख्या बढ़ाए। ज़ाहिर है जब तक मरोगे नहीं, तब तक कोई सुनवाई भी नहीं होगी। अतीत के उदाहरणों पर गौर करने पर पता चलता है कि ये जानें बच सकती थी।
कोविड महामारी के समय एक मरीज़ को हार्ट, शुगर की तकलीफ़ पहले ही थी। महामारी के डर से किसी अस्पताल ने उसका इलाज नहीं किया। अजमेर के अस्पताल ने जयपुर रैफ़र कर दिया। जयपुर के निजी अस्पताल ने मरीज़ को बाहर से ही सरकारी अस्पताल सवाई मानसिंह रैफ़र कर दिया।वहां पहुंचते ही उसकी मृत्यु हो गई। कहा गया बॉडी तो कोरोना टेस्ट के बाद ही मिलेगी। नमूना लिया गया और रात भर के लिए शव मुर्दाघर में रखवा दिया गया। सुबह सूचना दी गई कि जो नमूना लिया था वह ग़ुम हो चुका है। स्वैब दोबारा लिया जाएगा। पूरे दिन इंतज़ार के बाद अस्पताल ने शाम को शव सौंपा था। दुखी परिजन ऐसे उलझे कि उनके आंसू भी दग़ा दे गए। पुलिस के डंडे तो रोज़ कमा कर रोज़ी चलाने वालों पर ऐसे बरसे थे, जैसे वे यूं ही कोरोना को मार भगाएंगे। निगम की गाड़ियां ठेले उलट कर उन्हें पीट रही थीं । गरीब की सब्ज़ी पर भी शिकंजा था लेकिन बड़े व्यापारी ख़ूब माल बेच रहे थे। लॉकडाउन भी भयावह था। दो दोस्त सूरत से घर वापसी के लिए निकलते हैं। पुलिस के डंडे पड़ते हैं, लेकिन वे चलते जाते हैं। एक दोस्त की हालत बिगड़ती है तो ट्रक ड्राइवर कोरोना के डर से बीच रास्ते में ही उन्हें उतार देते हैं। दोस्त रास्ते में ही दम तोड़ देता है। बीच सड़क पर अपने मित्र के लिए मदद मांगते दोस्त की यह तस्वीर और कहानी न्यूयॉर्क टाइम्स अख़बार में छपती है।भारत में पांच लाख के लगभग लोग मारे गए जिनमें कई व्यवस्था के भी शिकार थे।


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